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अमि काफी देर से नहा रही है।
एकदम चुप-सी हो कर। नहाते समय उसे कुछ गुनगुनाना नहीं आता। और
ना ही आता है, विवस्त्र होकर नहाना, वरन वह तो उम्र की
सीढ़ियाँ चढ़ती हुई अपनी यात्रा के एक ऐसे बिंदु पर आ चुकी है,
जहाँ अपनी देह में निरन्तर होते जा रहे परिवर्तन को देखने का
जंगली-सम्मोहन अपनी पूरी तीव्रता पर होता है। देहासक्ति की एक
सहज दीप्त इच्छा। मगर, अमि ने अभी तक इस सबको लेकर ऐसी कोई
ख़ास तल्ख़ी महसूस ही नहीं की। हाँ, एक दफा इच्छा अवश्य हुई
थी। मगर, पूरे वस्त्र उतार कर आइने के सामने निवर्सन होने के
पहले ही वह ख़ुद को एकदम मूर्ख लगी थी। बाद इसके उसने ख़ुद को
टटोलते हुए पूछा था कि वह अपनी तमाम अन्य हमउम्र सहेलियों की
तरह कोई भी हरक़त करते समय ख़ुद को ऐसा असहज क्यों अनुभव करने
लगती है? हाँ, क्यों...? हाँ, क्यों...?
और अब भी नहाते समय वह कुछ ऐसा ही सोच रही थी। ख़ुद को तथा
ख़ुद के परिवेश को ले कर। सोचते-सोचते अचानक ख़याल आया कि वह
काफी देर से बाथरूम में बंद है। वह खड़ी हो गई। जल्दी-जल्दी
बदन पोंछा, और नल को वैसा ही टपकता हुआ छोड़ कर, कपड़े पहन
बाहर आ गई। फिर बाथरूम की सिटकनी सरका कर वह ज्यों ही मुड़ी,
सामने पापा थे। और पापा की निगाहें, अमि पर। मन की कोमल-कोमल
सतहों पर सकुचाहट व भय का मिलाजुला पनीलापन फैल गया, जिसमें
शनै: शनै: उसे अपना वजूद डूबता-सा जान पड़ा। |