जब डेनमार्क के इस सीमावर्ती शहर
के लिए प्रवीण बावला पहुँचे तो शाम जवान थी। मौसम भी बेहद
दिलकश था। बसंत ऋतु की खुनकी हवा में घुलकर वातवरण को मस्त
किए दे रही थी। शहर तो छोटा-सा ही था, लेकिन कार्निवाल के कारण
ख़ासी भीड़ थी। अलग-अलग शहरों और कस्बों से आए नृत्य समूह अपनी
तैयारियों के अन्तिम चरण में थे। सारी गहमागहमी के बावजूद
प्रवीण बावला उदास थे। चारों तरफ़ की भीड़ और उत्साह के बावजूद
उन्हें सब कुछ बेरस लग रहा था। दरअसल पिछले तीन दिनों से वे
जिस मानसिक उद्वेलन की स्थिति से गुज़र रहे थे उसका कारण वे
स्वयं भी समझ नहीं पा रहे थे।
ऐ यंग मैन! गहमा गहमी के बीच
चर्च के पास एक रेलिंग के सहारे टिके खोए से प्रवीण बावला की
तंद्रा को उनके सहायक जैनसन ने भंग किया - बस अब कार्निवाल के
चीफ गेस्ट आने ही वाले हैं। और एक खुशखबरी है – जैनसन चहका-
दर असल मैं इसी बीच यहीं के एक ग्रुप सालसा की टीना से पूरे
बीस मिनट रेडियो के लिए बात करने का समय लेकर आया हूँ। मेरी
आंटी ने ही किसी ज़माने में इस समूह का गठन किया था।
जब वह दोनों लोग वहाँ पहुँचे
तो सब कुछ सामान्य ही था। तमाम नृत्यांगनायें अपनी साज सज्जा
को अन्तिम निखार देने में व्यस्त थीं।
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