हास्य व्यंग्य

बीमार होना बड़े अफ़सर का
उमा शंकर चतुर्वेदी


जो भी नौकरी करते हैं, भगवान करे, उनके जीवन में ऐसा सुयोग ज़रूर आवे, जब उनका बड़ा अफ़सर बीमार पड़े। बीमारी में तीमारदारी से बड़ी कोई सेवा नहीं होती है। बीमारी में साहब की समीपता पाने, साहब की बीवी और बच्चों से बतियाने का जो अवसर और सुकून मिलता है, वह अन्यथा मिलना दुर्लभ होता है। मुझे भी भाग्य से ऐसा सुयोग मिला, जब मेरे सबसे बड़े अफ़सर बीमार पड़े। वैसे बड़ा अफ़सर कभी बीमार नहीं पड़ता है, ठीक वैसे राजा कभी गलती नहीं करता है। असली बीमारी तो बड़े अफ़सरों की ही हुआ करती हैं, जब सारा विभाग उमड़ पड़ता है और हर अदना कर्मचारी से लेकर छोटे-बड़े अफ़सर तक यह चाहते हैं कि उनका बड़ा साहब, गहन चिकित्सा इकाई में भरती होकर सबको अनुग्रहीत करे। छोटे कर्मचारियों, अफ़सरों की बीमारी भी कोई बीमारी है? बड़े आए कहीं के? पड़े रहते हैं जनरल वार्ड में या फिर घर की चारपाई तोड़ते हुए घरवाली और घरवालों को परेशान करते रहते हैं। दफ़्तर से छुट्टी भी लेते हैं और दवाओं का पैसा भी दफ़्तर से वसूलते हैं। बड़े अफ़सर तो चौबीसों घंटे कर्तव्यस्थ (ऑन ड्यूटी) रहते हैं, इसलिए बीमारों में भी ऑन ड्यूटी रहते हैं। बीमारी भी तो सरकारी या दफ़्तर की होती है, कोई उनकी व्यक्तिगत थोड़े ही होती है? बीमारी बड़े काम की हुआ करती है, जो सुख-दुःख में दोनों को ही काम देती है- अफ़सरों को भी और मातहतों को भी।

जब हमारे बड़े अफ़सर बीमार पड़े, तो विभाग के लोगों को दुःख के साथ-साथ बड़ी खुशी हुई। दुःख से साक्षात इस बात का था कि पूरे विभाग का बड़ा अफ़सर बीमार हो गया था और जब बड़ा अफ़सर बीमार हो, तो पूरा विभाग ही बीमार- जैसा लुंजपुंज हो जाता है। खुशी अलबत्ता जो दुःख से बड़ी थी, इस बात की थी कि बड़े साहब को बीमारी जो भी थी, वह पद की गरिमा के लिहाज से काफी बड़ी थी, अतः आराम करने का मौका मिल गया था। दुसरे उन्हें काफी दिनों तक अस्पताल में रहना था, इसलिए कर्मचारी और अधिकारीगण खुश थे कि उतने दिनों तक डाँट-डपट से बचत रहेगी। तीसरे उन लोगों को और अधिक खुशी हुई, जिनके काम अटके थे। वे यह सोचकर खुश थे कि साहब की तीमारदारी करके अपना काम निकालने में आसानी रहेगी। वैसे मैं आपको बता दूँ कि हमारे बड़े अफ़सर बड़े ईमानदार और नेकनीयत हैं, न किसी से कुछ लेना और न देना। अनायास कोई उनके घर पर कुछ पटक जाए, तो उनके बस की बात नहीं है। लेकिन उन्होंने कभी अपने मन से इच्छा व्यक्त कर मुँह खराब नहीं किया। जब कुछ किसी से लेते नहीं हैं, तो कोई काम के लिए दबाव भी नहीं डालता है। लोग बात करने में घबड़ाते हैं, सो किसी माध्यम से जुगाड़ लगाते हैं। यों तो बीवी और बच्चों से बढ़कर कोई दूसरे अच्छे माध्यम नहीं होते हैं, लेकिन लोग हैं कि कई तरह से एक-से-एक बढ़कर माध्यम खोज लेते हैं। इन्हीं सब माध्यमों का परिणाम यह हुआ कि साहब का बंगला बन गया और साहब को पता भी न चला कि उनके बीवी और बच्चे इतने जुगाड़ू हैं। ऐसे अफ़सर को कौन पसंद नहीं करेगा और ऐसे अफ़सर के बीमार होने पर किसे बराबर का सुख और दुःख नहीं होगा?

अफ़सरों और कर्मचारियों को कई प्रकार के फ़ायदे हुए। अधीनस्थ का दफ़्तरों से गायब रहना और पूछने पर बताना कि बड़े साहब को देखने गए थे। बड़े अफ़सर के दफ़्तर में न होने से छोटे अफ़सरों को डाँट-डपट से छुट्टी मिल गई तथा बड़े साहब की बीवी और बच्चों से बतियाने तथा समीपता पाने और मेल-मिलाप करने, बढ़ाने का मौका मिल गया। जिन अफ़सरों, कर्मचारियों को बड़े साहब कभी फूटी आँखों से भी देखना पसंद नहीं करते थे तथा कर्मचारी व अफ़सर भी अपने बड़े अफ़सर को कानी आँखों से भी नहीं देखना चाहते थे, वे भी बड़े साहब की बीवी से 'मैडम' कहकर साहब की नेकदिली और उनकी सब के प्रति सदाशयता का गुणगान कर रहे थे।

जिस दिन साहब बीमार हुए अथवा यों कहिए कि बीमार होनो का समाचार फूटा, सारा विभाग उमड़ पड़ा। घर पर ही इतने डॉक्टर आ गए कि यह समस्या उठ खड़ी हुई कि कौन-सा डॉक्टर पहले देखे। बड़ी कशमकश के बाद साहब के मुँह लगे कुछ अफ़सरों ने तय किया कि डॉक्टरों का एक पैनल उनका परीक्षण करे, क्योंकि यह तो पता था ही नहीं की बीमार किस वजह से हुए और बीमारी कौन-सी है? तदनुसार एक पैनल तैयार हुआ और उस पैनल का प्रमुख उस डॉक्टर को बनाया गया, जिसकी बीवी बड़े साहब की बीवी की दोस्त थी और तत्काल वहीं आ पहुँची थी। यद्यपि जिसे पैनल का हैड बनाया गया, वह डॉक्टर जूनियर था, लेकिनन सबने कहा कि विपत्ति में नियम-धरम टूट जाते हैं। अतः सीनियर-जूनियर का प्रश्न न लाते हुए डॉक्टरी परीक्षण कराया जाए।

परीक्षण के पूर्व बीमारी से पहले की पृष्ठभूमि का जायज़ा लिया गया, तो पता चला कि पति-पत्नी में कुछ खटपट हुई थी और जैसा कि बड़े अफ़सरों के यहाँ अक्सर होता रहता है, उनके यहाँ भी वैसा ही हुआ। खटपट होने के बाद बड़े साहब को दौरा पड़ जाता था, लेकिन उस दिन का दौरा एक अन्य अफ़सर के आ जाने से सार्वजनिक हो गया था और दौरा लंबा पड़ गया अतः उसे यों ही नहीं छोड़ा जा सकता था। नतीजा यह हुआ कि बीमारी दूर करने लिए डॉक्टर हाजिर हो गए।

डॉक्टरों की राय थी कि साहब मूर्छा किसी खटपट का नतीजा नहीं हैं, क्योंकि ऐसी खटपटें तो हर अफ़सर, डॉक्टर, इंजीनियर और हर वर्ग के पति-पत्नी में होती रहती है। लेकिन उससे कभी मूर्छा नहीं आती है चूँकि रोग के ये लक्षण भारतीय वातावरण से भिन्न थे, अतः डॉक्टरों के पैनल ने तय किया कि बड़े साहब को बड़े अस्पताल की गहन चिकित्सा इकाई में भर्ती कराया जाए, जहाँ बड़े डॉक्टर उनका परीक्षण और इलाज करें। 'अंधा क्या चाहे दो आँखें' वाली कहावत के अनुसार सभी यह चाह रहे थे कि साहब भर्ती हों और चाकरी का अवसर मिले।

बड़े साहब को बड़े अस्पताल की गहन चिकित्सा इकाई में भर्ती कराया गया। साहब को बिस्तर पर लिटाने के लिए सारे विभाग ने पलक पाँवड़े बिछा दिए। सब जगह टेलीफोन कर दिए गए। कुछ अफ़सर दूसरे मेडिकल कॉलेजों से एक्सपर्ट और कई रोगों के विशेषज्ञों को लेकर आ गए और साथ में नाना प्रकार के मौसमी फलों के टोकरे। कई प्रकार की समस्याएँ पैदा हो गईं। एक तो इतने डॉक्टरों से परीक्षण कैसे कराया जाए, दूसरे फलों के टोकरे कहाँ रखे जाएँ, फल तो घर पर अर्थात साहब के बंगले पर भिजवा दिए गए और खराब न हों इसलिए कुछ अजीज़ अफ़सरों ने अपने-अपने घरों से फलों को सुरक्षित रखने के लिए फ्रीज भी बड़े साहब के बंगले पर पहुँचवा दिए, जिन पर बाकायदे अफ़सरों की चिटें चिपकी हुई थीं। उधर डॉक्टरों ने एक-एक परीक्षण किया और कई घंटे परीक्षण करने के बाद यह तय हुआ कि नींद की दवा देकर साहब को आराम करने दिया जाए। दिल का परीक्षण हुआ, कार्डियोग्राम लिया गया, ईसीजी लिया गया, रक्तचाप, रक्त परीक्षण आदि जितने परीक्षण थे सभी किए गए लेकिन स्त्री के चरित्र और पुरुष के भाग्य की तरह बड़े साहब की बीमारी का पता न चल सका। बड़ों की बीमारी सामान्यतः ऐसी ही हुआ करती है।

प्रदेश का बड़ा विभाग और उसका बड़ा अफ़सर तथा बड़ी किंतु अज्ञात बीमारी, सो सारा विभाग परेशान। जब सारा विभाग परेशान हो, तो साहब की बीवी और बच्चों को परेशान होने की ज़रूरत ही नहीं पड़ी। अस्पताल की भीड़ का क्या कहना? ''इक निर्गम इक प्रविसहिं, भीड़-भाड़ दरबार' की तरह भीड़ का जमावड़ा लग गया। दिन-रात सैंकड़ों आएँ और सैंकड़ों जाएँ, लेकिन बड़े साहब से मिलने की इजाज़त उन्हीं लोगों को थीं, जिनकी बीवियाँ और गाड़ियाँ साहब की सेवा में लगी थीं। बाकी लोगों से तो मिलने की मनाही थी अन्यथा साहब आराम कैसे करते? ऐसे अफ़सर और कर्मचारी जिनके पिताश्री के दिवंगत होने पर बड़े अफ़सरों ने पूछा भी नहीं था, वे भी राक-रात भर अस्पताल के बाहर लेटकर ड्यूटी दे रहे थे। पता नहीं इतना त्यागकर कौन-सी आशा संजोये हुए थे? एक अफ़सर ने तो यहाँ तक किया कि एक डॉक्टर ने उन सबके नाम दर्ज कराना आरंभ कर दिया, जो साहब को देखने या उनकी कुशलक्षेम पूछने अस्पताल आए, ताकि सनद रहे और वर्ष के अंत में गोपनीय चरित्रावली लिखते समय साहब के काम आए।

डॉक्टरों ने भी खूब तीमारदारों की, क्योंकि अधिकांश डॉक्टरों के घर वाले या नाते-रिश्तेदार हमारे विभाग में कार्यरत थे, जो डॉक्टर दूसरे मरीज़ों को कई बार बुलाने पर देखने जाते थे, वे बिना बुलाए दिन में दस बार हमारे बड़े साहब के हाल-चाल पूछने आते थे। असली नज़ारा तो उस समय देखने को मिलता, जब डॉक्टर बड़े अफ़सर को सूई लगाने को हाथ पकड़ता, तो बगल में खड़ी कई अफ़सरों, कर्मचारियों की बालाएँ व स्वयं वे भी अपने-अपने हाथ आगे बढ़ाकर कहते, ''डॉक्टर साहब हमारे साहब के बदले हम लोगों को इंजेक्शन लगा दीजिए, उन्हें क्यों तकलीफ़ देते हैं।'' दवा पीने के स्थान पर डॉक्टरों से पूछा जाता कि कोई विदेशी किस्म की कोई अन्य चीज़ नहीं ली जा सकती है? यद्यपि बड़े साहब स्थूलकाय व्यक्ति थे, फिर भी सैंकड़ों लोगों ने अपना खून परीक्षण करा लिया था कि साहब को खून की ज़रूरत पड़े और बंदा लोग हाज़िर। एक दिन बड़े साहब की नस में डॉक्टर ने सुई लगाई कि बगल में खड़ा छोटा अफ़सर गिरकर बेहोश हो गया, इसी बीच दूसरे अफ़सर को कहना पड़ा कि 'डॉक्टर साहब बड़े अफ़सर की जगह मेरा खून निकाल लीजिए।' ऐसी ज़मात के बीच डॉक्टर ने बड़े साहब का इलाज कैसे किया, यह खोज का विषय है और उस डॉक्टर की खूबी है। सुना है वह ऐसे ही अफ़सरों की इलाज करता आया है और अब उसे पद्मश्री मिलनेवाली है।

इन बीमारी के मौके पर कई अफ़सरों ने बड़ी मैडम को विदेशी छतरियाँ भेंट की हैं, जो उनके भाग्य की छतरियाँ बन चुकी हैं। कुछ ने देशी-विदेशी साड़ियाँ भेंट कर दी हैं, जिन्हें पाकर साहब की मैडम ने वो मुसकान बिखेरी है, जो मातहत अफ़सर के दिल को पार करती हुई,  जीवन में नया रास्ता बनाती चली गई है। जो अफ़सर बात भी न कर पाते थे, वे अब उनके फर्स्ट गियर में आ गए हैं। हमारे बड़े साहब को छुट्टी मिलनेवाली है। सभी की दिली इच्छा है कि ऐसे मौके पर साहब को छुट्टी मिले जब केवल उन्हीं की कार हो और साहब उन्हीं की कार में बैठकर घर जावें। सब सोच रहे हैं कि वो कितना भाग्यशाली होगा, जिसकी गाड़ी में बैठकर साहब तशरीफ़ ले जाएँगे। जब से साहब बीमार पड़े हैं, उनकी पत्नी का मन साहित्य में लग गया है। अतः मुझे तो विश्वास है कि साहब अपनी बीवी के साथ मेरी ही गाड़ी में जाएँगे, जो मैंने एक मित्र से जुगाड़ जमाकर ली है। 'मेरा साहित्य और साहब की बीवी' नाम का एक सीरियल बनेगा। अब आप देखना कि मेरी पुस्तकें किस तीव्र गति से छपती हैं। मेरा साहित्य उन्हें ही समर्पित होगा। अगली बार जब बड़े साहब बीमार पड़ें, तो आप भी आना न भूलिएगा।

२३ जून २००८