भारत में
बिहार प्रांत की
राजधानी पटना से लगभग ११०
किलोमीटर दूर पूर्वी चंपारण जिला मुख्यालय से ३५ किलोमीटर
दक्षिण, साहेबगंज-चकिया मार्ग पर लाल-छपरा चौक के पास
अवस्थित है प्राचीन ऐतिहासिक स्थल केसरिया। यहाँ एक वृहत
बौद्धकालीन स्तूप है। जो कि शताब्दियों से मिट्टी से ढका
था। जिसे स्थानीय लोग पुराण-प्रसिद्ध एक उदत्त सम्राट
राजावेन का गढ़ मानते थे। राजा बेन कोई काल्पनिक नाम नहीं
है। उसकी चर्चा श्री मद्यभागवत महापुराण के प्रथम खंड के
चतुर्थ स्कंध के तेरहवें तथा चौदहवें में किया गया है।
भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण पटना अंचल के अधीक्षण
पुरातत्वविद मोहम्मद के.के. के नेतृत्व में उत्खनन कार्य
प्रारंभ किया गया। उत्खनन के उपरांत जो साक्ष्य सामने आए
हैं, उससे प्रमाणित हो गया है कि किसी राजा का गढ़ नहीं
बल्कि बुद्ध स्तूप है। जिसके संबंध में चीनी यात्री
फाहियान तथा ह्वेनसांग ने अपने यात्रा-वृत्तांत में उल्लेख
किया था। फाहियान (४५० ई.) तथा
ह्वेनसांग (६३५ ई.) के यात्रा वृत्तांत के अनुसार बुद्ध से
जुड़े स्थानों को देखने भारत आए थे। इन लोगों ने इस स्थान
की खंडहर के रूप में देखा था। उनके अनुसार यह स्थान वैशाली
से उत्तर-पश्चिम के कोण पर २०० ली यानी ३० मील और अब लगभग
५५ किलोमीटर पर एक अति प्राचीन बौद्ध स्तूप है। भौगोलिक
दृष्टि से यह स्तूप का स्थान वर्तमान केसरिया में आता है।
यहाँ अति प्राचीन बौद्ध स्तूप का होना प्रमाणित भी हो गया
है। साथ ही साथ यह भी प्रमाणित हो गया है कि भगवान बुद्ध
के प्रिय स्थल वैशाली से उनके जन्म स्थान कपिलवस्तु (लुंबिनी)
जाने के मार्ग पर ही अवस्थित है। इस प्राचीन मार्ग पर छह
अशोक स्तंभ तथा तीन बौद्ध स्तूप केसरिया, लौरिया नंदनगढ़
तथा जानकीगढ़ है।
सर्वप्रथम कर्नल मैंकेजी
ने १८१४ ईं में इस स्तूप का पता लगाया था। उसके बाद होडसन
ने १८३५ ईं में एक रिपोर्ट प्रकाशित की थी और केसरिया की
यात्रा कर रेखा चित्र बनाया था। सन १८६१-६२ में जनरल
कनिंघम ने स्तूप को देखा था, तो उस समय यह लगभग ६२ फुट
ऊँचा एवं परिधि लगभग १४०० फुट में फैली थी। जिसका व्यास ६८
फुट ५ इंच एवं स्तूप की ऊँचाई लगभग ५१ फुट थी। कनिंघम के
अनुसार स्तूप का यह भाग अपने मूल रूप में संभवतः ८० से ९६
फुट तक रहा होगा। अतः स्तूप एवं नीचे टीले की ऊँचाई जोड़ने
पर यह स्तूप अपनी मूल अवस्था में लगभग १५० फुट तक था।
बंगाल लिस्ट एवं कुरैशी लिस्ट में भी इस स्थान का विस्तृत
उल्लेख किया गया है। इसके अलावा ब्लॉक ने भी केसरिया जा कर
इस स्तूप को देखा था। स्तूप के बगल के ईंट भट्टे में निकला
एक प्राचीन छोटे व्यास का कुआँ भी कम महत्वपूर्ण नहीं है
जो प्रमाणित करता है कि यहाँ कभी नगर था।
पूर्व भाग में अब तक के
उत्खनन के बाद जो अवशेष प्राप्त हुए हैं, उससे प्रमाणित
होता है कि यह स्तूप गोलाकार है, जो प्रदक्षिणा पथ के
साथ-साथ सीढ़ीनुमा चार सतहों वाला है। ईंटों से निर्मित
साढ़ी ऊपर की ओर क्रमशः कम होती हुई एवं कई सतहों वाली
वृत्ताकार बनावट की है। प्रदक्षिणा पथ के साथ चार सतह की
बनावट जो सभी ओर से पथ से घिरी हुई है। इसकी दीवारों मे
कहीं-कहीं ताखें मिले हैं जो कम पत के आकार वाली बाहर की
ओर निकली दीवाल के बीच है। प्रत्येक वृत्ताकार सतह में कई
सेल मिले हैं। जिनमें भगवान बुद्ध की सुरखी-चूने से बनी
विशाल मूर्तियाँ पुरातत्वविदों को चौंकानेवाली हैं। मूर्ति
की बनावट से तत्कालीन कला की निपुणता का आभास होता है। ये
मूर्तियाँ ध्यानस्थ तथा भूमि स्पर्श मुद्रा में हैं।
प्रयोग
की गई ईंट
स्तूप में प्रयोग की गई
ईंटों के आकार कई प्रकार के हैं। प्रारंभ में बनने वाली
मिट्टी के स्तूप मौर्यकाल के हैं, जिसमें ईंटों का आकार ५०
सेंटीमीटर लंबा २५ सेंटीमीटर चौड़ा तथा ८ सेंटीमीटर मोटा
है, शुंग तथा कुषाण काल की ईंट ४० सें.मीं लंबी, २० सें.मी.
चौड़ी तथा ५ सें.मी. मोटी है। स्तूप में प्रयोग की गई
घुमावदार एवं नक्काशीदार ईंटें गुप्त काल की हैं।
खुदाई के दौरान स्तूप में
मौर्यकाल, शुंग, कुषाण काल तथा गुप्तकाल की वास्तुकला के
नमूने मिले हैं, वे सभी गुप्तकालीन हैं और इन पर पाँचवीं
शताब्दी की सारनाथ शैली का अस्पष्ट प्रभाव है। भूमि स्पर्श
मुद्रा वाली बुद्ध मूर्ति सारनाथ शैली के अलावा गंधार शैली
की भी हैं। प्रदक्षिणा पथ के बाहर भी तीन कमरों के आधार
मिले हैं, जिनमें भगवान बुद्ध की मूर्तियाँ स्थापित किए
जाने के प्रमाण मिले हैं। एक मूर्ति के नीचे बैठा हुआ शेर
है। पुराविद मोहम्मद के.के. का मानना है कि मूर्तियों को
स्तूप के चारों ओर वृत्ताकार सतहों में बनाए गए छोटे-छोटे
पूजा गृहों में गुप्तकाल में स्थापित किया गया था। इसे
देखकर ऐसा प्रतीत होता है कि जैसे पर्वत पर बुद्ध की
जीती-जागती मूर्तियाँ बैठी हों। जावा (इंडोनेशिया) में
स्थित विश्वविद्यालय बोरो-बुदुर का स्तूप जो ८वीं शताब्दी
का है, केसरिया स्तूप का विस्तृत रूप प्रतीत होता है।
उल्लेखनीय यह है कि केसरिया स्तूप का निर्माण छठी शताब्दी
में किया गया था, जबकि बोरोबुदुर स्तूप का निर्माण ८वीं
शताब्दी के आसपास हुआ है।
बौद्ध ग्रंथों के अनुसार
बुद्ध ने वैशाली के चापाल चैत्य में तीन माह के अंदर ही
अपनी मृत्यु (महापरिनिर्वाण) होने की भविष्यवाणी की थी। कुटागारशाला में अपना अंतिम उपदेश देने के बाद वे कुशीनगर
को रवाना हुए, जहाँ उन्होंने अंतिम साँस ली। यात्रा
प्रारंभ करने से पहले वैशाली नगर की ओर मुड़कर देखते हुए
उन्होंने आनंद को संबोधित करते हुए कहा, 'इदं पश्चिम भागं
आनंद वैशाली पश्चिनम भविष्यवादि', यानी मैं वैशाली के
पश्चिम में हूँ और इसे अंतिम बार देख रहा हूँ।
उनके मना
करने एवं वैशाली लौट जाने की सलाह के बावजूद उनके शिष्य
अगाध श्रद्धा और प्रेम से वशीभूत उनके पीछे-पीछे चलते रहे।
अंत में अपने पीछे आने वाले वैशालीवासियों को रोकने के
उद्देश्य से उन्होंने केसरिया में उन लोगों को अपना
भिक्षा-पात्र, स्मृति-चिन्ह के रूप में भेंट किया और लौटने
पर राजी किया। इसी घटना की याद में सम्राट अशोक ने इस
स्थान पर वृहत स्तूप का निर्माण कराया था।
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