समकालीन कहानियों में
इस माह
प्रस्तुत है- भारत
से
सरस दरबारी की
कहानी
नहान
ट्रेन
के डब्बे की उमसभरी घुटन से जानकी बेहाल थी। रह रहकर पसीने और
कडवे तेल का मिला जुला भभका आता और नथुनों में समा जाता। यह तो
कहो उसे और विश्वंभर जी को खिड़की के पास वाली सीट मिल गयी थी।
बाहर से आती ताज़ी हवा से कुछ राहत थी। भीतर तो बहुत ही बुरा
हाल था। लोग भेड़ बकरियों की तरह ठुँसे पड़े थे। जो जहाँ था,
वहीं फँसा बैठा था। जरा सा हिला नहीं, कि दूसरा यात्री और फैल
जाता। जगह खोने के डर से हर यात्री बस साँस लेने भर की ही हरकत
कर रहा था। मजाल है कोई टस से मस हो जाये। शौचालय जाने का तो
प्रश्न ही नही था। यात्रियों ने उसे भी घेर रखा था। डब्बे में
लोग जबरदस्ती घुस आए थे। गठरा गठरी लादे, जिसके जहाँ सींग समाए
ठेल ठाल कर घुस गया।
भीड़ को देख जानकी बोली, “क्यों जी, यह तो आरक्षित डब्बा है न?”
विश्वंभर जी मुस्कुरा दिए, “आस्था की बाढ़ को कौन रोक पाया है।
सभी पुण्य कमाना चाहते हैं। जिसको जो साधन मिला उसी पर हो
लिया। कुछ ही देर की बात है
... आगे-
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