ट्रेन
के डब्बे की उमसभरी घुटन से जानकी बेहाल थी। रह रहकर पसीने और
कडवे तेल का मिला जुला भभका आता और नथुनों में समा जाता। यह तो
कहो उसे और विश्वंभर जी को खिड़की के पास वाली सीट मिल गयी थी।
बाहर से आती ताज़ी हवा से कुछ राहत थी। भीतर तो बहुत ही बुरा
हाल था। लोग भेड़ बकरियों की तरह ठुँसे पड़े थे। जो जहाँ था,
वहीं फँसा बैठा था। जरा सा हिला नहीं, कि दूसरा यात्री और फैल
जाता। जगह खोने के डर से हर यात्री बस साँस लेने भर की ही हरकत
कर रहा था। मजाल है कोई टस से मस हो जाये। शौचालय जाने का तो
प्रश्न ही नही था। यात्रियों ने उसे भी घेर रखा था। डब्बे में
लोग जबरदस्ती घुस आए थे। गठरा गठरी लादे, जिसके जहाँ सींग समाए
ठेल ठाल कर घुस गया।
भीड़ को देख जानकी बोली, “क्यों जी, यह तो आरक्षित डब्बा है न?”
विश्वंभर जी मुस्कुरा दिए, “आस्था की बाढ़ को कौन रोक पाया है।
सभी पुण्य कमाना चाहते हैं। जिसको जो साधन मिला उसी पर हो
लिया। कुछ ही देर की बात है, बस पहुँचने ही वाले हैं।”
ट्रेन हर स्टेशन पर रुक रही थी। और हर स्टेशन पर एक रेला चढ़ता
और उसी भीड़ में जज़्ब हो जाता। अब तो लोगों ने एतराज करना भी
बंद कर दिया था। लोग इतने त्रस्त थे कि कोई किसी के मुँह नही
लगना चाहता था। जबरियन घुसने वाले लोगों की भीड़ बढ़ती जा रही थी
और साथ ही आरक्षित यात्रियों की मुश्किलें।
गठरी बनी बैठी जानकी की देह ऐंठने लगी थी। पैर लंबे करे भी तो
कैसे, दोनों बर्थ के बीच में भी लोग अटे पड़े थे। एक अजीब सी
महक डिब्बे में तैर रही थी। उसका जी मिचलाने लगा। विश्वंभर ने
तौलिया भिगोकर जानकी को देते हुए कहा, लो चेहरे पर फैला लो। बस
घण्टेभर की बात है। जानकी ने तौलिया पसीने से लथ पथ चेहरे पर
फैला लिया। खिड़की से आती ठंडी हवा से, राहत की एक लहर शरीर में
दौड़ गई और मन पिछले कुछ दिनों की घटनाओं पर जा पहुँचा।
***
जानकी अपने घर गृहस्थी के काम निबटा रही थी। रात हो चली थी, और
विश्वंभरजी उसे एकटक देखे जा रहे हैं। बालों में सफेदी उभर आई
थी, आँखों के नीचे गड्ढे पड़ने लगे थे, पर जोश में कोई कमी न
थी। गठिया के बावजूद, घर में चक्करघनी की तरह घूमती, सबकी
जरूरतें पूरी करती हुई।
जानकी ने कनखियों से देखा, “क्या हुआ जी। ऐसे क्या देख रहे
हो।”
“कुछ नहीं, यहाँ, आओ, पास बैठो।” जानकी उनके पास आकर बैठ गई।
वे उसका हाथ हाथों में ले, देर तक सहलाते रहे।
“क्या सोच रहे हो?” जानकी ने फिर पूछा।
“सोच रहा हूँ, इस वर्ष हमारे विवाह को पूरे चालीस वर्ष हो
जायेंगे। जैसे ही ब्याहकर आयीं, घर गृहस्थी में जुट गयीं।
गृहस्थी भी तो कितनी बड़ी थी। अम्मा बाबू, चार भाई बहन। दिनभर
सबकी सेवा टहल में गुजर जाता। कभी अपने बारे में नहीं सोचा।
सारा जीवन परिवार के लिए होम कर दिया। बच्चों की जरूरतें पूरी
करते करते, अपनी इच्छाओं को परे सरकाती रहीं। बस यही कहा, “अरे
ज़िंदगी पड़ी है, फिर सही।” अपने लिए कभी कुछ नही माँगा। बस एक
बार तुमने गंगा दशहरे में नहान की इच्छा जताई थी। तब तो न कर
सका। पर अब हम अपने दायित्वों से फारिग हैं। दोनों बेटों का
काम अच्छा चल निकला है, अपने परिवारों में व्यस्त हो गए हैं।
अब जीवन के इस पड़ाव पर पहुँचकर, अपने सभी दायित्व निभाकर सोचता
हूँ, और कुछ तो दे न सका, तुम्हारी यह इच्छा तो पूरी कर दूँ।
अबकी चलो गंगा दशहरे पर संगम स्नान कर आयें।”
खुशी तैर गई थी उसकी आँखों में। “सच...!”
पर तभी शंकाओं ने धर दबोचा था। “इसका खर्च...!”
“मैंने जोड़ रखे हैं पैसे। किसी के आगे हाथ नहीं फैलाने
होंगें।”
“पर क्या बच्चे इतनी आसानी से मान जायेंगे। उनसे एक बार पूछ तो
लीजिये। उन्हें हमारे जाने से परेशानी तो नहीं होगी। बच्चे भी
छोटे हैं। बहुएँ संभाल पायेंगी।”
“जानकी अब बस। ज़िंदगी भर दूसरों की सोचती रहीं। कभी तो अपने
लिए सोचो।”
“आप एक बार बच्चों से बात कर लेते।”
“कर लूँगा। पर इजाजत नही लूँगा, केवल सूचित करूँगा।”
कितना कोहराम मचा था उस दिन..!
छूटते ही बड़ा बेटा चिल्लाया।
“यह क्या कह रहे हैं। संगम पर नहान करेंगे, इस उम्र में और
इतनी गर्मी में? तबियत खराब हो गई तो परदेस में कौन संभालेगा।
हमारे बस का नही दौड़ धूप करना। क्यों जान साँसत में डाल रहे
हैं। शांति से घर में बैठिए, इतनी ठंड में, कहीं जाने की जरूरत
नहीं।”
छोटा भी बड़े की हाँ में हाँ मिलाने लगा,
“ठीक ही तो कह रहे हैं भैया। मेले और भीड़ में गर्मी से कितनी
मौतें होती हैं, आप ही तो बताते हैं, फिर क्यों यह झंझट मोल
रहे हैं? आये दिन माँ गठिया के दर्द से परेशान रहतीं हैं। वहाँ
मीलों चलना पड़ेगा। चल पायेंगी?”
“अच्छा, घर पर जब दिन भर तुम लोगों के आगे पीछे, दौड़ती रहतीं
हैं, तब कभी ख्याल नहीं आया, कि गठिया से परेशान हैं, कैसे
करतीं होंगीं। आज बड़ी चिंता हो रही है। कभी उनके बारे में
सोचने की फुरसत मिली। उन्हें क्या अच्छा लगता है, उनकी क्या
पसंद है। उनकी क्या इच्छा है..!
“अब बस, मुझे कोई दलील नहीं सुननी। हमने तय कर लिया है, हम जा
रहे हैं।
“और हाँ तुमसे इजाजत नही माँग रहा, केवल सूचना दे रहा हूँ कि
हम दोनों हफ्तेभर के संगम स्नान के लिए जा रहे हैं। मन लगा तो
और रुकेंगे, नही तो लौट आयेंगे। रहने खाने का प्रबंध भी स्वयं
कर लेंगे। तुम्हें न चिंता करने की जरूरत है न दौड़ धूप की।
पैंसठ साल का हूँ, पर अभी बहुत हिम्मत है शरीर में।
“चलो जानकी सामान बाँधो, चलने की तैयारी करो।”
हमेशा शांत रहनेवाले पिता का यह रूप देख दोनों बेटे सहम गए थे।
जानकी को यह सब अच्छा नही लग रहा था।
“रहने दीजिए न, इतनी कलह करने की क्या जरूरत है।”
“नही जानकी, जीवन में तुम्हारे लिए कभी कुछ नही कर पाया। अब तो
करने दो।”
जानकी ने कुछ नहीं कहा और वह दोनों चल पड़े थे।
***
ट्रेन प्रयागराज जंक्शन पर रुकी तो डब्बे में हड़कंप मच गया।
उसकी तंद्रा टूटी। देखा लोग अपना अपना सामान बटोरकर, धक्का
मुक्की में लगे हैं। हड़बड़ाकर उठ खड़ी हुई, तो जानकी का हाथ थाम
विश्वंभर जी ने बैठाते हुए कहा, “बैठ जा भागवान, आराम से
उतरेंगे। ट्रेन इससे आगे नही जाएगी। जरा पैर फैला लो, गाँठे पड़
गई होंगी, मुड़े मुड़े।” जानकी ने हौले से पैर सीधे किए, दर्द की
एक लहर चोटी तक दौड़ गई। “यह मुआ गठिया तो मेरी जान लेकर
जाएगा।”
“चलो आराम से उठो, कोई जल्दी नहीं,” कहते हुए विश्वंभरजी ने
सहारा देकर जानकी को उठाया, एक हाथ में अटैची उठाई और दूसरे से
उसे थामे धीरे धीरे दरवाजे की ओर बढ़े। डब्बा अब लगभग खाली हो
चुका था।
ट्रेन श्रद्धालुओं से भरी पड़ी थी, हर डब्बे का वही हाल था।
लोगों के जत्थों के जत्थे उतर रहे थे। डब्बे से उफना सैलाब अब
स्टेशन पर बह रहा था। और वह समुंदर, प्लैटफ़ार्म पर उछाल मार
रहा था। एक दूसरे को मजबूतीसे थामे, कुनबे के कुनबे एक दिशा
में हाँके जा रहे थे। कुछ लोगों ने एक मोटी सी रस्सी थाम रखी
थी, कुछ एक लंबी सी धोती से बँधे, गिरते पड़ते बढ़ते जा रहे थे।
लोगों के शोर में, उद्घोषिका की आवाज दब चुकी थी, पुलिस वाले
लोगों को डाँटते हुए, अलग अलग निकास द्वारों की ओर भेड़ बकरी की
तरह हाँक रहे थे। यात्रियों की सुविधा के लिए कई अस्थायी
प्रवेश एवं निकास द्वार बने हुए थे। उन पर जानवरों के चित्र
बने थे। पुलिस लगातार निर्देश दे रही, “यह जत्था हाथी वाले गेट
से बाहर निकलेगा। इस लाइन में खड़े लोग, गाय के चिन्ह वाले
द्वार से निकलेंगे।” अजीब नज़ारा था। जानकी पति का हाथ कसकर
पकड़े थी। भीड़ को बारी बारी से, थोड़े थोड़े अंतराल पर छोड़ा जा
रहा था। श्रद्धालु ऐसे भड़भड़ाकर निकलते जैसे पशु, बाड़े से निकल
रहे हों। पुलिस का इतना कड़ा बंदोबस्त, मजाल है, कोई एक जत्थे
से दूसरे में घुस जाये। इतनी भीड़ देख, जानकी घबरा गई। “सुनो
जी, यहाँ तो कितनी भीड़ है, हम लोग कैसे पहुँचेंगे।” “बस भीड़ के
साथ चलती चलो, सबका गंतव्य एक ही है।” विश्वंभर जी एक हाथ में
अटैची और दूसरे में जानकी को कसकर थामे, स्टेशन से बाहर निकले।
बसों की कतारें लगीं थीं, पर अधिकतर लोग, अपना बोझा और कुनबा
ढोते, पैदल ही चल पड़े थे। बाहर निकलते ही, अचानक सेंकड़ों
रिक्शे, टेम्पो वाले कुकुरमुत्तों की तरह उग आए।
“क्यों साहब संगम जाना है, बैठ जाइए। एक सवारी का पचास रुपए
किराया लगेगा।”
जानकी ने कातर दृष्टि से पति की ओर देखा। “भैया कुछ तो कम कर
दो। नहीं बाबूजी फ़िक्स्ड रेट हैं। जल्दी बैठिए, नहीं तो टेम्पो
भर जाएगा। इससे कम रेट में कोई ले जाये, तो मैं आधी मूँछ
मुँडवा दूँ।” नया शहर, गंतव्य का अता पता नहीं, विश्वंभरजी ने
बहस करना उचित न समझा, और जानकी को टेम्पो में चढ़ाकर, उसके बगल
में बैठ गए।
दोनों बड़े कौतूहल से आसपास का नज़ारा देख रहे थे। एक इंसानी नदी
सड़कों पर बही जा रही थी। जहाँ तक नजर जाती सिरों पर लदी
गठरियाँ ही दिखाई दे रही थीं। छोटे छोटे बच्चे कन्धों पर चढ़े,
भौचक्के से इस नई दुनिया को देख रहे थे। शहर की सड़कें दुल्हन
की तरह सजी हुई थीं। हर चौराहे पर गमलों में सुंदर पौधे उग रहे
थे। लोगों के घरों पर, छाल दीवारों पर रंगों से, नेताओं, और
घाटों के सुंदर सजीव चित्र बने हुए थे।
संगम से कुछ दूरी पर सवारियाँ उतार दी गईं। यहाँ से आगे का
रास्ता पैदल ही तय करना था। तट पर पहुँचते ही ठंडी गंगा बालू
के स्पर्श से जानकी का रोम रोम सिहर उठा। कितना तरसी थी वह इस
पल के लिए। संगम तट पर तीर्थयात्रियों के रहने के लिए, शिविर
बने थे, जहाँ बिजली पानी शौचालय की पूरी व्यवस्था थी। पुआल पर
दरियाँ और गद्दे बिछे थे, जिससे शिविर आरामदेह था। देखते ही
जानकी की थकान मिट गयी। थोड़ी देर सुस्ताकर दोनों निकल पड़े। सड़क
के बीचों बीच, गाड़ियों की आवाजाही के लिए लोहे की प्लेट पड़ी
थीं, जिनके सिरे, लोहे के कुंडों से बँधे थे। बालू को बैठाने
के लिए बड़े बड़े पानी के टैंकर तरी कर रहे थे। सड़क के दोनों तरफ
खूब सारी छोटी-छोटी दूकाने थे। रंग बिरंगी मालाएँ, हाथों में
हाथ डाले झूल रही थीं, गाढ़ी लाल, पीले, नारंगी रंगों के सिंदूर
की सजी ढेरियाँ, सुहागनों को बरबस अपनी ओर खींच रही थीं। जगह
जगह इलाइची दाना, रेवड़ियाँ, बताशे, कलावा, व अन्य पूजा की
सामग्री बिक रही थी। गृहस्थी की जरूरत का सारा सामान, कड़ाही,
करछुल, कद्दूकस, सूप चलनी, चलना, गृहनियों के आकर्षण का केंद्र
थे। वहीं, सुहागनों और युवतियों को कड़े, कंगन, चूड़ी, बिंदी,
लाली, रंग बिरंगे चुटीलों, की दुकानें मोह रही थीं। दोनों टहल
रहे थे, तभी उद्घोषणा हुई, संध्या आरती का समय हो रहा है, जो
भी श्रद्धालु, देखना चाहें, घाट की तरफ प्रस्थान करें।
संध्या आरती के लिए, गंगा किनारे सुंदर सजे हुए मंचों पर पूजा
की तैयारी हो रही थी। एड़ियाँ उचकाए रोशनी से जगमाते ऊँचे छत्र
सितारों से होड़ लगा रहे थे। अपने कैमरा और मोबाइल से लैस, उस
भव्यता को समेटने, लोग, नावों और घाटों पर आतुर बैठे थे। आरती
आरंभ हुई। घंटा, घड़ियालों, शंख ध्वनियों और मंत्रोच्चारण के
बीच, सेंकड़ों रश्मियाँ बिखेरते सहसत्रों लौ से प्रज्वलित विशाल
दियों से होती भव्य आरती जानकी को एक दिव्य स्वप्न सी लग रही
थी। गंगा की लहरों, में झिप झिपाते दीपों की आँख मिचौली देख,
जानकी का रोम रोम हर्षित हो उठा, और अश्रुधारा बहने लगी।
अद्वितीय था वह अनुभव...! जीवन भर के तप का पुण्य आज उसे मिल
गया था।वह दृश्य सदा के लिए उसके मानस में अंकित हो गया।
“थक गयी होगी जानकी, चलो थोड़ी कमर सीधी कर लो,” कहकर विश्वंभर
जी, उसे शिविर में लिवा लाये। वह लौट तो आयी, पर मन वहीं घाट
पर छूट गया।
भोजन पश्चात वह दोनों फिर निकल पड़े। एक पूरा शहर बसा हुआ था।
भक्तों की हर सुविधा को ध्यान में रखते हुए, अलग अलग शिविर बने
थे। एक अस्थायी अस्पताल था, डाकखाना था, रेल की टिकिट आरक्षित
करने की सुविधा थी। जगह जगह भोजनालय थे, कई लोगों ने लंगर खोल
रखे थे। वे टहलते हुए, काली सड़क पर आ गए। यहाँ की तो रौनक ही
गजब थी। रोशनी से आँखें चौंधियाने लगीं। बच्चे, बड़े, बूढ़े, हर
उम्र, हर तपके का व्यक्ति, अपनी अपनी तरह से उस मेले का आनंद
ले रहा था। बड़ी बड़ी प्रदर्शनियाँ लगीं थीं। रंगीन रोशनी से सजे
ऊँचे ऊँचे झूलों पर लोग झूल रहे थे। उम्दा चाट के, दक्षिण
भारतीय व्यंजन, छोले भटूरे, चाइनिज व्यंजनों के स्टॉल लगे थे।
इतनी हलचल से जानकी को घबराहट होने लगी, “सुनो जी यहाँ बहुत
शोर है, चलो गंगा तट पर ही चलते हैं, वहाँ बहुत शांति है।”
दोनों लौट पड़े। गंगा किनारे, ठंडी बालू पर दोनों बैठ गये। संगम
क्षेत्र, रौशनी से नहाया हुआ था। शिशु लहरें, किनारे पर खड़ी
नावों के किनारों से टकरा, छप छप की मधुर ध्वनि से एक सम्मोहन
बिखेर रही थीं। मेले की भव्य सजावट मन मोह रही थी। पूरा संगम
क्षेत्र, तेज पीली रोशनी से जगमगा रहा था। विशालकाय पोंटूनों
को जोड़कर बनाए पोंटून पुलों पर दुपहियों चारपहियों का आवागमन
जारी था। दूर पुल से गुजरती रेलगाड़ियों की रोशनी, नदी में
दीपमाला तरंगित कर रही थी। सिद्ध साधू संतों के भव्य शिविरों
से प्रवचन और मंत्रोच्चारण के स्वर गूँज रहे थे। उनकी पताकाएँ
लहराकर अखाड़े की श्रेष्ठता पर मोहर लगा रही थीं।
“जानकी चलना है प्रवचन सुनने, यह अवसर फिर नहीं मिलेगा”,
विश्वंभर जी ने कहा।
“नहीं जी, बस यहीं बैठेंगे। भीड़ से दूर। यह गंगा का किनारा,
उसमे झिलमिलाती रोशनी, दूर से आते भजनों और मंत्रों के स्वर,
अद्वितीय है सब कुछ। मुझे तो इस पावन तट को छूकर ही मोक्ष मिल
गया। आपने मेरे बरसों की साध पूरी कर दी,” कहते हुए जानकी ने
अपना सिर विश्वंभर जी के सीने पर टिका दिया। वह इन पलों को एक
सिरे से समेट अपने आँचल में सहेज लेना चाहती थी। वह पल, जो इस
जीवन में अब कभी नसीब न होंगें। ठंड बढ़ती देख, विश्वंभर जी ने
उसका माथा सहलाया, “जानकी, चलें....!” रात गहरा रही थी। न
चाहते हुए भी जानकी चलने को राज़ी हो गयी।
***
अगले दिन, शंख ध्वनि से आँखें खुलीं। खूब ढ़ोल ताशे बज रहे थे।
संतों का आगमन जारी था। बड़े बड़े मठाधीश अपने अपने अखाड़ों के
साथ, पूरी आन बान शान से अपने निर्धारित क्षेत्रों में आकर
विराज रहे थे। ऊँचे ऊँचे निशान और पताकाओं से लैस, हाथी, घोड़े
और रथों पर इनकी भव्य सवारी, पैदल चलता गेरुआ वस्त्र धरण किए
भक्तों का रेला, अपने मठों की पताकाएँ लिए, इनकी प्रतिष्ठा
स्थापित कर रहे थे। जब जुलूस आता तो सारे कल्पवासी सड़क के
दोनों ओर खड़े हो जाते। जो जहाँ होता वहीं रुक जाता।
जानकी बड़े कौतूहल से सब देख रही थी। संगम पर स्नान का विशेष
महत्व होता है। लोग नावों पर सवार हो, संगम जाते और डुबकी
लगाकर पुण्य कमाते। जानकी और विषम्भर जी एक तिरपाल लगी नाव में
बैठ गए। उसमें १५ और नहवहिये मौजूद थे। रास्ते में चिड़ियों को
दाना खिलाने के लिए, नावों पर लोग छोटी छोटी पन्नी की थैलियों
में सेव बेच रहे थे। जानकी ने भी दो पैकेट खरीद लिए। जब नाव
बीच नदी में पहुँची, तो नाविक आ, आ आ की अजीब आवाज़ें गले से
निकालने लगा। देखते देखते मुर्गाबियों का एक हुजूम अचानक प्रकट
हो गया। लोग सेव निकालकर हवा में उड़ाते, और मुर्गाबियाँ उड़ कर
उन्हें हवा में ही लोक लेतीं। नाव में बैठे बच्चों को तो आनंद
आ ही रहा था, बड़े भी बच्चे बन गए थे। कों कों की कर्कश आवाज
करती वह मुर्गाबियाँ नाव के चारों तरफ मँडराती रहीं, पर जैसे
ही सेव खत्म हुए, वह उतनी ही तेज़ी से कहीं और से आती उसी
परिचित आवाज की दिशा में मुड़ गईं।
जहाँ गंगा जमुना और लुप्त सरस्वती का संगम होता है, वहाँ गंगा
की मटमैली धारा और जमुना जी के हरे जल के बीच की लकीर साफ
दिखाई दे रही थी। नाविक ने उन्हें दिखाया, “यह देखें, ई है
संगम...! यहाँ पानी बहुत गहरा होता है।” वहाँ से थोड़ी दूरी पर,
कई तखत बीच धार में गड़े थे, जहाँ लोग उतरकर स्नान कर रहे थे।
वहाँ पंडों और पुजारियों की भीड़ थी। पहुँचते ही, पंडों ने घेर
लिया, “जजमान, संगम पर पुरखन का पिंडदान करेंगे, तो पुरखे तर
जाएँगे। बस छोटी पूजा है, कहें जजमान”। पर विश्वंभर जी के एक
मित्र ने उन्हें पहले ही आगाह कर दिया था, कि “पंडों के चक्कर
में भूले से भी न पड़ना, फँसे, तो लंबा चूना लगेगा,” उन्होने
कहा, “भाई, हम केवल एक नारियल, अगरबत्ती और फूल चढ़ा देंगे।”
हिकारत से देखते हुए, पंडे छिटकने लगे।
दोनों ने डुबकी लगायी। जानकी का जीवन तर गया। यही तो वह पल था,
जिसकी इतनी लंबी प्रतीक्षा की थी। गंगा मैया की गोद में डुबकी
लगा, जानकी का मनोरथ पूरा हो गया था। वे हाथ जोड़े आँखें बंद
किए खड़ी थीं। “माँ यह मेरे सत्कर्मों का ही प्रसाद है, जो आज
तुम्हारी गोद का स्पर्श कर सकी। मैं धन्य हुई माँ” आँखों से
अश्रुधारा अविरल बह रही थी। पास ही लकड़ी के एक तख्त पर कपड़े
बदलने के लिए आड़ बनी थी। नाव लौटने को तैयार थी, सभी यात्री,
कपड़े बदलकर, उसपर सवार हो चुके थे। जानकी और विश्वंभर भी आकर
अपनी जगह पर बैठ गए। लौटते हुए, जब तक संगम आँखों से ओझल नहीं
हो गया, जानकी एकटक उसे देखती रही।
सूरज क्षितिज की तरफ तेज़ी से बढ़ रहा था, अरुणाई पानी में हौले
हौले पिघल रही थी, लहरों पर स्वर्ण चूर्ण, हिचकोले खा रहा था।
बादलों का रंग देखते देखते, नारंगी से लाल, फिर, नीला , फिर
बैंगनी होता जा रहा था। सूरज डुबकी लगा चुका था। अँधेरा घिरने
लगा था। हवा में ठंडक महसूस हो रही थी। किनारे उतरकर नाविक का
किराया दे, वे लोग अपने
शिविर
की तरफ बढ़ गए। दोनों चुपचाप चल रहे थे। जानकी उस विलक्षण अनुभव
को पुन: पुन: दोहरा रही थी। और विश्वंभरजी, अपने मनोरथ को
पूर्ण कर संतुष्ट थे।
“खुश हो,” विश्वंभर जी ने जानकी का चेहरा हथेलियों में भरकर
पूछा। जानकी उनके सीने से लग गईं।
“बरसों की मुराद पूरी हो गई। जीवन सफल हो गया जी।”
विश्वंभर जी ने उन्हें अंक में भर लिया। गंगा की धारा, चाँद तारे
नक्षत्र उस पल के साक्षी बन मुस्कुरा रहे थे। |