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पर्व परिचय


गंगावतरण का पर्व - गंगा दशहरा
- सुरेश गाँधी


प्रतिवर्ष ज्येष्ठ माह की शुक्ल पक्ष की दशमी को गंगा दशहरा मनाया जाता है। गंगा दशहरा यानि माँ गंगा के धरती पर आने का दिन। कामनाओं को पूरा करने का दिन। माँ से वरदान पाने का दिन। दस दिव्य योगों में धरती पर अवतरण करने वाली माँ गंगा का उल्लेख श्रीमद्भागवत पुराण, वाल्मीकि रामायण और महाभारत समेत कई ग्रंथों में है। गंगे तव दर्शनात मुक्तिः! यानी गंगा माँ के दर्शन से मुक्ति मिलती है। गंगा दशहरा को बाबा रामेश्वर महादेव की प्राण प्रतिष्ठा का दिन भी माना जाता है। इस दिन गंगा स्नान, पूजन और दान के साथ बाबा विश्वनाथ, महाकाल, बाबा सोमनाथ, बाबा बैजनाथ धाम समेत १२ ज्योर्तिलिंगों का दर्शन मोक्षदायक माना गया है।

मान्यता है कि सूर्यवंशी राजा भगीरथ के कठोर तप के बाद ज्येष्ठ मास के शुक्लपक्ष की दशमी तिथि, दिन बुधवार, हस्त नक्षत्र, व्यतिपात योग, गर योग, आनंद योग, कन्या राशि में चंद्रमा और वृषभ में सूर्य योग में देव नदी माँ गंगा का स्वर्ग से धराधाम पर आई थी। ज्येष्ठ शुक्ल पक्ष की दशमी को संवत्सर का मुख कहा गया है। इसलिए इस दिन दान और स्नान का ही अत्यधिक महत्व है। इस दिन दान में सत्तू, मटका व हाथ का पंखा दान करने का विशेष महत्व है। गंगा दशहरा के दिन सभी गंगा मंदिरों में भगवान शिव का अभिषेक किया जाता है। गंगा का पूजन-अर्चन भी किया जाता है।

मनुस्मृति में १० प्रकार के कायिक, वाचिक और मानसिक पाप कहे गए हैं। बिना आज्ञा दूसरे की वस्तु लेना, शास्त्र वर्जित हिंसा, परस्त्री गमन ये तीन प्रकार के कायिक (शारीरिक) पाप हैं। कटु बोलना, असत्य भाषण, परोक्ष में किसी की निंदा करना, निष्प्रयोजन बातें करना ये चार प्रकार के वाचिक पाप हैं। परद्रव्य को अन्याय से लेने का विचार करना, मन में किसी का अनिष्ट करने की इच्छा करना, असत्य हठ करना ये तीन प्रकार के मानसिक पाप हैं। कुछ मान्यताओं के अनुसार गंगा दशहरा के दिन गंगा स्नान से इन दस पापों की मुक्ति होने के कारण ही इस पर्व का नाम गंगा दशहरा है।

इस दिन लोग निर्जल व्रत करके एकादशी की कथा सुनते हैं और अगले दिन दान-पुण्य करते हैं। इस दिन जल का घट दान करके फिर जल पीकर अपना व्रत पूर्ण करते हैं। इस दिन दान में केला, नारियल, अनार, सुपारी, खरबूजा, आम, जल भरी सुराई, हाथ का पंखा आदि चीजें भक्त दान करते हैं। गंगा दशहरे के दिन श्रद्धालु जन जिस भी वस्तु का दान करते हैं उनकी संख्या दस होती है और जिस वस्तु से भी पूजन करते हैं उनकी संख्या भी दस होती है जैसे दस प्रकार के फूल, दस गंध, दस दीपक, दस प्रकार का नैवेद्य, दस पान के पत्ते, दस प्रकार के फल आदि। मान्यता है कि ऐसा करने से शुभ फलों में और अधिक वृद्धि होती है। दक्षिणा भी दस ब्राह्मणों को दी जाती है और जब गंगा नदी में स्नान करते हैं दस बार डुबकी लगाने की परंपरा है। यदि कोई व्यक्ति पूजन के बाद दान करना चाहता है तब वह भी दस प्रकार की वस्तुओं का करता है, यद्यपि तिल का दान सोलह मुठ्ठी किया जाता है।

‘वाल्मीकीय रामायण’ बालकांड सर्ग-३४ में महर्षि विश्वामित्र जी ने भगवान रामचंद्र जी को भगवती गंगा का वर्णन करते हुए उसे ‘सर्व लोकनमस्कृता’ और ‘स्वर्गदायिनी’ कहा है। जगजननी सीता ने भी वन यात्रा के समय गंगा की वंदना करते हुए सकुशल वापस लौटाने पर बड़े समारोह के साथ पूजा करने की मन्नत माँगी है। निर्मल जलस्तर पर हुए तमाम शोधों के बाद वैज्ञानिक भी मानते है कि माँ गंगा सबसे पवित्र नदियों में एक है। गंगाजल में कीटाणुओं को मारने की क्षमता होती है। इसका जल हमेशा पवित्र रहता है। यह सत्य भी विश्वव्यापी है कि गंगा नदी में एक डुबकी लगाने से सभी पाप धुल जाते हैं। हिन्दू धर्म में तो गंगा को देवी माँ का दर्जा दिया गया है।

कहते हैं भगवान राम के रघुवंश में उनके एक पूर्वज हुए, महाराज सगर, जो चक्रवर्ती सम्राट थे। एक बार महाराज सगर ने अश्वमेघ यज्ञ का अनुष्ठान किया। उसके लिए अश्व को छोड़ा गया। राजा इन्द्र यह यज्ञ असफल करना चाहते थे। इसीलिए इंद्र ने अश्वमेघ यज्ञ के उस घोड़े को ले जाकर कपिलमुनि के आश्रम में पाताल में बाँध दिया। तपस्या में लीन होने के कारण कपिल मुनि को इस बात का पता नहीं चला। महाराज सगर के साठ हजार पुत्र थे, जो स्वभाव से उद्दंड एवं अहंकारी थे। मगर उनका पौत्र अंशुमान धार्मिक एवं देव-गुरु पूजक था। सागर के साठ हजार पुत्रों ने पूरी पृथ्वी पर अश्व को ढूँढा परंतु वह उन्हें नहीं मिला। उसे खोजते हुए वे पाताल में कपिल मुनि के आश्रम में पहुँचे, जहाँ उन्हें अश्व बंधा हुआ दिखाई दिया। यह देख सगर के पुत्र क्रोधित हो गए तथा शस्त्र उठाकर कपिल मुनि को मारने के लिए दौड़े। तपस्या में विघ्न उत्पन्न होने से जैसे ही कपिल मुनि ने अपनी आँखें खोलीं, उनके तेज से सगर के सभी साठ हजार पुत्र वहीं जलकर भस्म हो गए! इस बात का पता जब सगर के पौत्र अंशुमान को चला, तो उसने कपिल मुनि से प्रार्थना करके उन्हें प्रसन्न कर लिया।

कपिल मुनि ने अंशुमान से कहा, यह घोड़ा ले जाओ और अपने पितामह का यज्ञ संपन्न कराओ। महाराज सगर के ये साठ हजार पुत्र उद्दंड एवं अधार्मिक थे, अतः इनकी मुक्ति तभी हो सकती है, जब गंगाजल से इनकी राख का स्पर्श होगा। महाराज सगर के बाद अंशुमान ही राज्य के उत्तारधिकारी बने किंतु उन्हें अपने पूर्वजों की मुक्ति की चिंता सतत बनी रही। कुछ समय बाद गंगा को स्वर्ग से पृथ्वी पर लाने के लिए अंशुमान राज्य का कार्यभार अपने पुत्र दिलीप को सौंपकर वन में तपस्या करने चले गए तथा तप करते हुए ही उन्होंने शरीर त्याग दिया। महाराज दिलीप ने भी पिता का अनुसरण करते हुए राज्यभार अपने पुत्र भगीरथ को सौंपकर तपस्या की, किंतु वे भी गंगा को पृथ्वी पर नहीं ला सके। इसके बाद सूर्यवंशी महाराजा भागीरथ ने स्वयं अपने पितामहों का उद्धार करने का संकल्प लेकर हिमालय पर्वत पर घोर तपस्या की।

इससे ब्रह्माजी प्रसंन होकर भगीरथ से कहा, हे भगीरथ! मैं गंगा को पृथ्वी पर भेज तो दूँगा, पर उनके वेग को कौन रोकेगा? इसलिए तुम्हें देवादिदेव महादेव की आराधना करनी चाहिए। इस पर भगीरथ ने एक पैर पर खड़े होकर भगवान शंकर की आराधना की। उनकी तपस्या से प्रसन्न होकर शिवजी ने गंगा को अपनी जटाओं में रोक लिया और उसमें से एक जटा को पृथ्वी की ओर छोड़ दिया। इस प्रकार गंगा का पृथ्वी पर अवतरण हुआ। अब आगे-आगे भगीरथ का रथ और पीछे-पीछे गंगाजी चल रही थीं। शिव की जटाओं से होकर गंगा स्वर्ग से धरती पर पहाड़ों से उतर कर हरिद्वार ब्रह्मकुंङ में आई थीं। मार्ग में जह्नुऋषि का आश्रम था। गंगा उनके कमंडल, दंड आदि को भी अपने साथ बहाकर ले जाने लगीं। यह देख ऋषि ने उन्हें पी लिया। राजा भगीरथ ने जब पीछे मुड़कर देखा, तो गंगा को नहीं पाकर उन्होंने जह्नुऋषि से प्रार्थना की तथा उनकी वंदना करने लगे। प्रसन्न होकर ऋषि ने अपनी पुत्री बनाकर गंगा को अपने दाहिने कान से निकाल दिया। इसीलिए गंगा को जाह्नवी के नाम से भी जाना जाता है। भगीरथ की तपस्या से अवतरित होने के कारण उन्हें भागीरथी भी कहा जाता है। जिसके बाद माँ गंगा के पावन चरणों की धूलि पाकर राजा सगर के ६० हजार पुत्रों का उद्धार हुआ था। तभी से इस दिन को गंगा दशहरा के रूप में मनाया जाने लगा।

१ जून २०१७

 
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