मॉल की सेल में मुफ्त का चंदन
- डॉ आभा सिंह
शॉपिंग कॉम्प्लेक्स, थिएटर
और सिनेमा घर फिर से क्या खुले मन फिर से सेल के लिए कलपने
लगा। बरसो से एक पर दो फ्री, तेल के साथ कंघी फ्री, सूट के
साथ टाई फ्री और ऊपर से रुमाल भी फ्री पाने के लिए मन तड़प
उठा। जाने क्यों नयन बावरे वहीं टिकने की चाह करने लगे हैं
जहा कुछ ना कुछ फ्री मिलता हो। मुफ्त की महिमा ऐसी ही होती
है। मुफ्त का चन्दन घिस मेरे नन्दन कहते ही अपने पराए का
अंतर मिट जाता है। हर चन्दन को एक नन्दन मिल ही जाता है।
फ्री कहिए, मुफ्त कहिए या कह
लीजिए छूट हर रूप में सेल बाहुबली होती है। जैसे पहलवान के
लिए बल और नेता के लिए छल जरूरी है वैसे ही जरूरी है मुफ्त
का चन्दन और उसे भोगने वाला नन्दन। मेरी एक सखी है
छूटेशनंदिनी। सखी के नाम में समाया छूट शब्द उसके छूट के
आनंद में भी वैसे ही समा जाता है जैसे एक दल से निकला
दूसरे दल में। माता पिता ने तो बड़े प्यार से नाम रखा था
नंदिनी परंतु समय के साथ-साथ बड़ी होने वाली सिर्फ उसकी
उम्र ही नहीं थी। उसका छूट का मोह भी उम्र के साथ परवान
चढ़ा। बरसात के दिनो में कपड़ा बाजार की सेल में वह ऐसे रमी
रहती थी जैसे खिचड़ी के साथ घी। कामकाजी महिलाओं को जो मोह
रविवार के अतिरिक्त मिलने वाली छुट्टियों का रहता है वही
मोह सखी को ‘डिस्काउंट’ से था। यही कारण है की इष्ट मित्रो
ने उसके तरह-तरह के संबोधन बना रखे थे। छूटेशनंदिनी उन्ही
में से एक था।
लॉक डाउन के दिनों में मौसम के मिजाज बदलते ही हमारी
छूटेश्वरी ने अपना मुँह ऐसे लटका लिया जैसे हवा के झोंके
से जामुन लटकते है। टपाटप बारीश होती तो सखी की आँखे ही
नहीं रोम-रोम पुलक उठता। अब ये सारी बाते उतनी ही पुरानी
हो गई जितनी कोरोना की गंभीरता। सेल की स्मृतियों में सखी
वैसे ही व्याकुल होती थी जैसे लक्ष्मण की स्मृतियों में
उर्मिला। उदाहरण से सेल के प्रति सखी के मोह का अंदाजा
लगाना उतना ही आसान है जितना बुखार से बीमारी का।
सेल में ऐसा क्या मिलता है जैसे प्रश्नों का आनद लेने के
लिए मैं भी एक दिन सखी के साथ चल पड़ी। मुफ्त का मोह ऐसा ही
होता है। हमने वे दुकाने चुनी जहाँ एक पर दो मुफ्त मिल रहा
था। सखी कहती है कि उसे तो धरती से पाप के अंत की शुरुआत
के संकेत ही ‘सेल’ के लगने से मिलते है। कभी कभी घोर
दार्शनिक की तरह कहती है कि उस दुकानदार की उदारता का
अंदाजा लगाओ जो मुश्किल से मुश्किल समय में भी मुफ्त देता
है। मुझे भी लगने लगा की सेल तो दरअसल पुण्यात्माओं का खेल
है।
लॉकडाउन के दिनों में सखी उदास थी उदासी का कारण बरसात का
ना होना नहीं था। सेल तो तब भी होती थी जब बरसात नहीं होती
थी। बाजार के बंद होने से न सेल लगी न सेल की बरसात। सखी
की आँखें ललचाई नजरों से उन तख्तियों को ढूँढती रहती जिनपर
पचास, पचीस या तीस प्रतिशत की छूट लिखा होता था। सखी लटक
लटक कर लटकती तख्तियाँ ढूंढती। एक पर एक मुफ्त तो सखी ऐसे
सूंघ लेती है जैसे शेर अपना शिकार। सेल ना लगने से वह अपनी
इच्छाशक्ति पर संदेह भी कर चुकी है। आजकल उसने शबरी को
अपना आदर्श बनाया है। स्वाति नक्षत्र की बूंद से प्यास
बुझाने जितना संयम वह सेल लगने तक लगाए रख सकती है। लोग
उसका मन सेल के मोह से हटाने के लिए उदाहरण देते कि कब नौ
मन तेल होगा और कब राधा नाचेगी। सेल की प्रतीक्षा में सती
को कोसती सखी कहती कि राधा को नौ मन तेल मैं दे आती हूं
लेकिन अब सेल लगनी ही चाहिए। कपड़ा बाजार वालों ने हाल ही
में छूटेशनंदिनी का सत्कार समारोह आयोजित किया जहां से
छूटते ही वह उन दुकानों के ताले खींच आई जहाँ चोर दरवाजा
होने की खबर मिली है। जितनी छूट है उतनी लूट है।
सखी के साथ मैं भी बाल्टी के साथ मग्गा और साबुन के साथ
घिसनी के मोह में स्वर्ग की अर्थात सेल की सैर पर निकाल
पड़ी। मुफ्त मिलने वाला हर सामान ऐसे बटोरा जैसे नई पीढ़ी
धीरज बटोरती है। कोरोना की कॉलर ट्यून से हम हर जगह डोलते
रहे। मुफ्त ही मुफ्त का माल बटोरते रहे। घर लौटे तो चेहरे
पर वैसी ही चमक थी जैसी ९९.९ लिखा देखने पर होती है। मैंने
सारा सामान ऐसे फैलाया जैसे कोई राजा अपनी सल्तनत। सामने
मेरी रिआया नहीं बल्कि लोकतन्त्र में चार कदम आगे चलने
वाली जनतातुल्य मेरे बच्चे खड़े थे। बगुला जैसे मछली को
देखता है वैसे बेटी ने सामान की एक्स्पायरी डेट देखी। उसके
बाद मुझे देखा। कारण बिलकुल साफ था। मुफ्त मिला सारा सामान
पहले ही काल के गाल में समा चुका था। बेटी अब भी मुझे
देखकर समझने का प्रयास कर रही थी की जो वस्तु उपयोग की ही
नहीं उसे मुफ्त में पाकर क्या मिला!
मैं नजरे चुराए सखी के साथ मुफ्त मिले चन्दन में अपनी
नन्दन की भूमिका पर बगले झाँक रही थी। मेरे पास अफसोस की
सेल लगी थी।
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