समकालीन कहानियों में प्रस्तुत
है भारत से
जयनंदन-की-कहानी-
छठ तलैया
सुगनी जो
रोब हुई वियोग से
आदित होऊ न सहाय
सुगवा जो मारबो धनुख से
सुगा गिरे मुरुझाय
दशहरा के बाद कातिक हेलते ही हुलसी मम्मा (दादी) के भीतर
अपने आप छठी-मैया के गीत बजने और उसी तर्ज पर होंठ फड़फड़
करने लगे हैं। बार-बार उसका ध्यान उसी पर जाकर टिकने लगा
है। कैसे निभेगा ई बच्छर (इस वर्ष) मैया का बरत उसकी जर्जर
बूढ़ी देह से और कैसे वह इस पराधीन शहर में भिड़ा पायेगी कोई
जुगत? गाँव में रहती तो कोई न कोई रास्ता वह निकाल ही
लेती। जबसे उसने अपनी सास द्वारा हस्तांतरित कई पुश्तों से
चले आ रहे इस व्रत को घर की अन्य जिम्मेदारियों के साथ
ग्रहण किया है तब से आज तक एक बार भी नागा नहीं किया।
हालाँकि पिछले साल उसकी हिम्मत ने जवाब दे दिया था, फिर भी
उसने जोखिम उठाकर किसी तरह पूरा कर लिया। मगर इस बीच एक
साल में उसकी असमर्थता ने उसे बड़ी तेजी से बहुत बुरा दबोचा
है। मम्मा को अपने इस दुर्भाग्य
पर रोना आता है कि उसके बेटे-बहू छठ अथवा अन्य...आगे-
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