इस सप्ताह- |
1
अनुभूति
में-
योगेश समदर्शी, वीरेन्द्र
कुँवर,
कविता सुल्ह्यान, मीना अग्रवाल और सुरेन्द्रनाथ तिवारी की रचनाएँ। |
- घर परिवार में |
रसोईघर में- हमारी रसोई संपादक शुचि द्वारा प्रस्तुत
दक्षिण भारत के व्यंजनों की विशेष शृंखला में इस बार प्रस्तुत है-
नारियल की चटनी मूँगफली वाली। |
रूप-पुराना-रंग
नया-
शौक से खरीदी गई सुंदर चीजें पुरानी हो जाने पर फिर से सहेजें
रूप बदलकर-
पुराने दरवाजों से बगीचे का केबिन। |
सुनो कहानी- छोटे
बच्चों के लिये विशेष रूप से लिखी गई छोटी कहानियों के साप्ताहिक स्तंभ में
इस बार प्रस्तुत है कहानी-
अद्दू
बद्दू सपने में।
|
- रचना और मनोरंजन में |
नवगीत की पाठशाला में-
कार्यशाला- २८ में विषय है चंपा का फूल। अनुभूति के चंपा
विशेषांक के बाद अब ब्लॉग पर रचनाओं का प्रकाशन प्रारंभ हो गया
है। |
साहित्य समाचार में- देश-विदेश से साहित्यिक-सांस्कृतिक
समाचारों, सूचनाओं, घोषणाओं, गोष्ठियों आदि के विषय में जानने के लिये
यहाँ देखें। |
लोकप्रिय
कहानियों
के
अंतर्गत- इस
सप्ताह प्रस्तुत है १ जून २००६ को
प्रकाशित गिरीश पंकज की कहानी-
भाई साहब।
|
वर्ग पहेली-१४२
गोपालकृष्ण-भट्ट-आकुल
और रश्मि आशीष के सहयोग से
|
सप्ताह
का कार्टून-
कीर्तीश
की कूची से |
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साहित्य
एवं
संस्कृति
में-
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समकालीन कहानियों में पोलैंड से
हरजेन्द्र चौधरी की कहानी
लेजर शो
बाजीगर कभी
भी आ जाता था। उसके आने से पहले उसके आगे-आगे उसके विज्ञापन
नहीं आते थे। जब भी आता था- जीता-जागता। बाँस के कई-कई मोटे
डंडों को रस्सी में लपेटे, कसकर हाथों में थामे। पीठ पर बोरी
से बने कई छोटे-बड़े झोले उठाए। उन झोलों में कुछ छोटे-बड़े मटके
रखे होते। पीछे-पीछे उसकी लड़की चलती आती। लड़की के कंधे पर
झूलती रस्सी उसके पेट और पीठ को घेरती हुई छोटे-से ढोलक को
कसकर पकड़े रहती। चलते समय उसके घुटने लटकते हुए ढोलक को
बार-बार ऊपर की ओर सम्हाले रहते। वे
अक्सर कस्बे के चौक में आते। ‘पापी पेट का सवाल है’ की घोषणा
और ढोलक की थाप से प्रोग्राम शुरू होता। मजमा जुटता। ज़मीन में
गाड़े गए और आपस में मजबूती से बँधे बाँसों के उपरी हिस्सों के
बीच एक मज़बूत रस्सा झूलने लगता। बाज़ीगर की दोनों पिंडलियों पर
फूली हुई नसों की नीली गाँठें थीं। उसके पैर अनगढ़ और बदसूरत
थे। पर हम उसके पैर नहीं देखते थे, उसकी श्रम-साधना, कला-साधना
देखते थे। उसे कई जादू नहीं आते थे। कड़ी मेहनत करके, खतरा मोल
लेकर रोजी-रोटी चलाने के अलावा
...आगे-
*
निशा तोमर की लघुकथा
पिता का आशीर्वाद
*
दर्शन लाल से विज्ञान वार्ता
चला आ रहा है चाँद से भी उज्जवल धूमकेतु
*
पर्व परिचय में
त्रिपुरा की खर्ची पूजा
*
पुनर्पाठ में- कलाकार
रसिक रावल से परिचय |
अभिव्यक्ति समूह
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पिछले
सप्ताह- |
१
हरीश नवल का व्यंग्य
पुस्तक (झ)मेला
*
डॉ रमेश मयंक का रचना प्रसंग
राजस्थान की गीत
यात्रा निरंतर
*
अशोक उदयवाल से स्वास्थ्य चर्चा
तरावट तरबूज की
*
पुनर्पाठ में मनीष कुमार के साथ
सिक्किम के सफर पर
*
समकालीन कहानियों में भारत से
डॉ. कुसुम अंसल की कहानी
मेज पर जमी
धूल
उसने फिर से मेज के शीशे की ओर देखा। उसके ‘ऐंगल’ से अभी भी
शीशे पर मिट्टी जमी दिखाई दे रही थी। सीधी खड़ी होकर रधिया दो
बार पोंछ गई थी उसे, पर फिर भी जैसे एक ही गति से घूमते उसके
हाथ बीच की धूल के धब्बों को साफ नहीं कर सके। मन में आया एक
बार उसे बुलाकर डाँटे, पर फिर स्वयं ही उठकर ‘डस्टर’ ले आया और
झुक कर खास ऐंगल से जमी उस मिट्टी को पोंछ दिया। फिर झुक कर
देखा तो उस शीशे पर एक परछाई मुखरित हो उठी।
‘’पम्मी आंटी.....” वह पलट कर खड़ा हो गया।
“हैलो आंटी!”
“हैलो सनी....” और वे पापा के कमरे की ओर बढ़ गईं। फिर ‘सनी’
कहा उन्होंने...? जिस प्यार की चाशनी में लपेट कर वह सनी शब्द
उसके मन में उतारती है वह चाशनी कड़वाहट बनकर उसके गले में अड़
जाती थी। कितने ही साल हो गए थे वह पम्मी आंटी को इस घर में
आते-जाते देख रहा था. माँ तब जीवित थीं और वह नौ या दस साल का
था।...आगे-
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