पुस्तक-मेला दिल्ली में हाल में
ही लगा। यह एक बड़ा मेला था। जितना बड़ा मेला होता है उतना बड़ा झमेला होता है तथा
उतना ही बड़ा थैला लेकर जाना होता है।
झमेला यूँ कि भई चंद दिनों के लिये ही इसका आयोजन होता है, परंतु लेखक, प्रकाशक,
मुद्रक, पुस्तक-विक्रेता और कभी-कभी पाठक इसकी तैयारी बहुत समय पूर्व से कर लेते
हैं। बड़ा थैला इसलिए जरूरी कि लेखक को ज्यादा पांडुलिपियाँ तैयार करनी पड़ती हैं,
उन्हें रखने के लिए थैला बड़ा ही होना चाहिए। प्रकाशक को ज्यादा पुस्तकें छपवाने के
लिए थैले में भरकर नोट खर्च करने होते हैं तथा बेचने के बाद बड़े थैले में भरने होते
हैं। पुस्तक-विक्रेता को सबसे बड़ा थैला चाहिए। वह पैदल, साइकिल, बस, कार या ट्रक
में अपनी सामर्थ्य के अनुसार बेचने के लिए पुस्तकें भरता है जो थैलों में ही रखी
होती हैं।
क्यूँ न ऐसा करें कि पुस्तक मेले-झमेले, थैले, रेले-पेले, ठेले, धकेले आदि के लिए
झेले गए व्यक्तित्वों से ही बातचीत कर ली जाए? प्रस्तुत है डॉ. हुड़दंगीलाल की
सनसनीखेज साक्षात्कार रिपोर्ट-
सबसे पहले हमने बात की ‘अरुचि प्रकाशन’ के मालिक स्वनामधन्य श्री सुदामा से।
उन्होंने बताया, ‘मैं एक मीडिया दर्जे का प्रकाशक हूँ, मुझे प्रकाशन का सरकारी और
गैर सरकारी सभी तरह का अनुभव है। मैंने बिना छत के शेड में प्रकाशन शुरू किया था,
सीधी धूप पड़ने से बाल सफेद हो रहे थे, अब पक्की छत है बल्कि छत के ऊपर भी एक छत है।
मैंने बाल रँगने शुरू कर दिए हैं, वैसे भी काले धन को निकालने में एक खर्चा बालों
को काला करने का भी है।
मेरे पास बड़े लेखक पांडुलिपियाँ छोड़ते हैं जो बड़े प्रकाशकों द्वारा अस्वीकृत हो
चुकी होती हैं, उनमें प्रायः कबाड़ा ही होता है, मैं छाँट-छाँटकर संपादित कर उनकी
पुस्तकें छाप देता हूँ। ये बड़े लेखक बड़ी खरीद के उपक्रमों में मेम्बर होते हैं,
देशी-विदेशी गोष्ठियों में जाते रहते हैं तथा प्रायः हिंदी विभागों में प्रोफेसर,
रीडर आदि होते हैं, अतः पुस्तकों को खरीद कर देते हैं। और यदि एकाध कोर्स में लग
जाए तो कहना ही क्या, फिर तो मैं भी उनकी विचारणीय पांडुलिपियों पर अग्रिम रायल्टी
दे डालता हूँ, अतः उन्हें और मुझे थैले रखने ही होते हैं। पुस्तक-मेले लगते रहने
चाहिए, क्योंकि इसमें बड़े प्रकाशकों के कर्मचारियों से पता चल जाता है कि किस-किस
लेखक की रिजेक्ट पांडुलिपि उनके पास हैं। मैंने अभी तक चार पुस्तक-मेलों में हिस्सा
लिया और मेरी चारों बेटियों की शादी अच्छी तरह सम्पन्न हो गई।
कुख्यात लेखक वेदप्रकाश ‘बमबोझ’ ने पुस्तक मेले की सार्थकता इन शब्दों में प्रकट
की, ‘मैं भारत का एक महान लेखक हूँ, मेरी पिछली किताब लाखों मे बिकी, मैं रायल्टी
बहुत कम लेता हूँ, बहुत ही कम। इस पुस्तक पर केवल एक रुपया, परंतु मेरी शर्त होती
है कि पुस्तक कम-से-कम एक लाख छपें। इससे अधिक मैं कर भी क्या सकता हूँ? मेरी किताब
‘सर्दीवाला ठंडा’ ने सबको ठंडा कर दिया, तब मुझे पुराना थैला बदलकर और बड़ा व मजबूत
लेना पड़ा।
मैं पुस्तक-मेले के झमेले में नहीं पड़ता हूँ। जिन लेखकों की पुस्तकें बिकतीं नहीं,
वे रोज अपने रिश्तेदारों को लाकर अपने प्रकाशक के स्टाल में ले जाते हैं, उन्हें
अपनी पुस्तकें दिखातें हैं, फोटों खिंचवाते हैं। यही नहीं, अपनी पुस्तक की प्रतियाँ
रिश्तेदारों को दस्तखत करके देते हैं एक लाभ उन्हें जरूर होता है कि उन्हें भी अन्य
लेखक हस्ताक्षरयुक्त अपनी पुस्तकें देते हैं, जिनकों रखने के लिए बड़ा थैला जरूरी
होता है। मैं लिखता हिंदी में हूँ, परंतु अँग्रेजी पुस्तकों के स्टालों में जाता
हूँ, स्टडी करता हूँ। अपनी आगामी पुस्तकों की भावभूमि बनाने में ये अंग्रेजी
साहित्य बहुत काम आता है। फिल्मी कथा-लेखक भी वहीं घूमते हैं। केवल इल्मी लेखक ही
अपनी भाषाओं के स्टाल देखते हैं, अतः पुस्तक मेला लगता रहना चाहिए।’
प्रसिद्ध पुस्तक-विक्रेता जानप्रकाश जी ने जब पुस्तक मेले के बारे में कमेंट करना
चाहा, वे तनिक क्रोध से बोले, ‘आयोजकों ने यह कहकर कि ‘अगली बार से पुस्तक मेले में
पुस्तक-विक्रेताओं को शामिल नहीं करेंगे’ बहुत भूल की है, मैं उन्हें धूल चटा
दूँगा, उनके गले पर साँप की तरह झूल जाऊँगा, शूल की तरह चुभ जाऊँगा। क्या मतलब है
इसका अरे! प्रकाशकों की पुस्तकें बिकवाता कौन है-‘पुस्तक विक्रेता’। पाठक लेखक को
बाद में जानते हैं, पहले पुस्तक-विक्रेता को पहचानते हैं। मैं पिछले पैंतीस साल से
यह काम कर रहा हूँ और जानता हूँ कि कुछ को छोड़कर सारे लेखक और सारे प्रकाशक चोर
हैं। अधिकतर पुस्तक-विक्रेता चोर नहीं हैं-वे डाकू हैं। डाकू सावधान कर माल लेता
है, चोरों की तरह चुपके से चंपत नहीं करता। हम साफ-साफ पाठक और लाइब्रेरियन से कह
देते हैं कि बस इतना कमीशन दे सकते हैं, इससे ज्यादा नहीं। प्रकाशक की तरह कीमत बढ़ा
नहीं सकते।
लेखक क्या चीज हैं, एक ठीक-सी नकल- अकल से किताब लिख ली-अपने को तुलसीदास मानने
लगता है। अरे, तुलसीदास तो रत्नावली के कहने पर वीतरागी हो गया-राम में समा गया और
ये आज के लेखक बनते हैं बड़े, पर हर भीड़ में से रत्नवालियों को नजरों का शिकार बनाते
हैं। एक उपन्यास लिख लिया, बस फिर उसी का नाम बदल, थीम बदल दूसरा बना दिया। ईमानदार
केवल पुस्तक-विक्रेता है, वही पुस्तक और पाठक के बीच की कड़ी है। लेखक हो न हो,
पुस्तक-विक्रेता जरूर होना चाहिए।
मैं कहता हूँ, पुस्तक मेला जरूर हो पर वहाँ पुस्तक विक्रेताओं को तरजीह जरूर दी
जाए। मेरा नारा है ‘थैला हो न हो पर पुस्तक-विक्रेता जरूर हो’।
फिर हमने एक पाठक से भी बात की। हमें लगा कि पाठक के लिए ही तो सब-कुछ है। पाठक के
रूप में हमने बात की झुमरी तलैया से आए हुए श्री सुखधाम शास्त्री से। पुस्तक-मेला
पर उनके विचार इस प्रकार हैं, ‘देखिए हम पाठक हैं, सब कुछ हमारे लिए ही है। सरकार
इतना बड़ा ताम-झाम हमारे लिए ही करती है। हम उद्घाटन समारोह में जाने लगे-हमें रोक
दिया गया क्योंकि इन्वीटेशन नहीं था। वहाँ सब साहबी ठाट-बाट वाले ही थे। हम देख रहे
थे कि वहाँ हमारे प्रिय लेखक थे, अप्रिय राजनेता थे, सरकारी अफसर थे, पर हम न थे-हम
दूर से ही ताक रहे थे। मेले में हमारे साथ भाटापाड़ा के सुखबीर शर्मा भी थे, वे बहुत
खुश थें उन्होंने कभी इतनी भारी संख्या में शहरी युवतियों को नहीं देखा था। मेले के
ठेलों का सही मजा भी सुखबीर ने लूटा-हर खाने वाली चीज का ठेला लगा था सो उन्होंने
खूब खाया। हमने भी खाया, पर हमारे पास इतने पैसे नहीं बचे कि कुछ पुस्तकें भी खरीद
पाते।
दिल्ली आने-जाने के टिकट में खर्च हुए तीन सौ, दिल्ली में आकर ऑटोरिक्शा में खर्च
हुए आठ सौ, एक गेस्ट हाउस में रुके उसके लगे डेढ़ हजार तथा भोजन, चाय आदि के हुए
पाँच सौ, यानी चार हजार डूब गया। कुल पाँच हजार रुपये का तो बजट था। जो लिस्ट
श्रीमती जी ने दी थी, उसकी चीजें तीन हजार की थीं, हम तो आधी भी न खरीद पाए, किताब
कैसे खरीदते। हाँ, सूचीपत्र, पेम्फलेट, कूपन आदि मिलाकर अड़तालीस रुपए की रद्दी तो
हो गई थी, उसके लिए एक बीस रुपए का थैला जरूर खरीदना पड़ा, अब भी अट्ठाइस का प्रॉफिट
था।
एक बात अजीब लगी, हम तो झुमरी तलैया और भाटापाड़ा से आए थे, परंतु जो दाढ़ी वाले
चश्मा लगाए, बहस करते हुए लेखक या लेखकनुमा थे उन्हें ‘किटें’ मिल रही थीं, किटें
यानी फाइलें, पैड, कापी, पेन आदि सभी कुछ सरकारी चीजें असरकारी लोगों के लिए ही
थीं। हमने देखा, हर गोष्ठी में बीस लेखक बहस के लिए होते थे, जिनकी संख्या भोजन
बँटने के समय एक सौ बीस हो जाती थी- हम तो केवल देख रहे थे- भाँप रहे थे। हम तो अब
लेखक बनेंगे या प्रकाशक, पाठक के रूप में जाना ठीक नहीं लगा। पुस्तक-मेला जरूर लगे,
हम जरूर जाएँ पर पाठक के रूप में नहीं-उसकी वहाँ कतई जरूरत नहीं।’ |