| गर्मियाँ 
					पूरे शबाब पर हैं। आखिर क्यों न हों, मई का महिना जो ठहरा। ऐसे 
					में भी सूर्य देव अपना रौद्र रूप हम सबको ना दिखा पाएँ तो फिर 
					लोग उन्हें देवताओं की श्रेणी से ही हटा दें। ऐसे दिनों में 
					पिछले महीने तमाम ऊनी कपड़ों के बावजूद हम सर्दी से ठिठुरते 
					रहे। हमारा पहला पड़ाव गंगतोक था। 
 सिलीगुड़ी से ३० किलोमीटर दूर निकलते ही सड़क के दोनों ओर का 
					परिदृश्य बदलने लगता है, पहले आती है हरे भरे वृक्षों की 
					कतारें खत्म होने लगती हैं और ऊपर की चढ़ाई शुरू हो जाती है। 
					सिलीगुड़ी से निकलते ही तिस्ता हमारे साथ हो ली। तिस्ता की हरी 
					भरी घाटी और घुमावदार रास्तों में चलते–चलते शाम हो गई और नदी 
					के किनारे थोड़ी देर के लिए हम टहलने निकले। नीचे नदी की हल्की 
					धारा थी तो दूर पहाड़ पर छोटे–छोटे घरों से निकलती उजले धुएँ की 
					लकीर।
 
 गंगतोक से अभी भी हम ६० किलोमीटर की दूरी पर थे। करीब ७ .३० 
					बजे ऊँचाई पर बसे शहर की जगमगाहट दूर से दिखने लगी। गंगतोक 
					पहुँचते ही हमने होटल में अपना सामान रखा। दिन भर की घुमावदार 
					यात्रा ने पेट में हलचल मचा रखी थी। सो अपनी क्षुधा शांत करने 
					के लिए करीब ९ बजे मुख्य बाज़ार की ओर निकले। पर ये क्या एम .जी 
					.रोड पर तो पूरी तरह सन्नाटा छाया हुआ था। दुकानें तो बंद थीं 
					ही, कोई रेस्तरां भी खुला नहीं दिख रहा था! पेट में उछल रहे 
					चूहों ने इत्ती जल्दी सो जाने वाले इस शहर को मन ही मन लानत 
					भेजी। मुझे मसूरी की याद आई जहाँ रात १० बजे के बाद भी बाज़ार 
					में अच्छी खासी रौनक हुआ करती थी। खैर भगवान ने सुन ली और हमें 
					एक बंगाली भोजनालय खुला मिला। भोजन यहाँ अन्य पर्वतीय स्थलों 
					की तुलना में सस्ता था।
 
 वह अनोखा स्वागत
  सुबह 
					हुई और निकल पड़े कैमरे को ले कर। होटल के ठीक बाहर जैसे ही सड़क 
					पर कदम रखा सामने का दृश्य ऐसा था मानो कंचनजंघा की चोटियाँ 
					बाहें खोल हमारा स्वागत कर रही हों। सुबह का गंगतोक शाम से भी 
					ज़्यादा प्यारा था। पहाड़ों की सबसे बड़ी खासियत यही है कि यहाँ 
					मौसम बदलते देर नहीं लगती। सुबह की कंचनजंघा १० बजे तक तक 
					बादलों में विलुप्त हो चुकी थी। कुछ ही देर बाद हम गंगतोक के 
					ताशी विउ प्वाइंट (समुद्र तल से ५५०० फुट) 
					पर थे। यहाँ से दो मुख्य रास्ते कटते हैं। एक पूरब की तरफ जो 
					नाथू ला जाता है और दूसरा उत्तर में सिक्किम की ओर, जिधर हमें 
					जाना था। 
 हमने उत्तरी सिक्किम राजमार्ग की राह पकड़ी। बाप रे एक ओर खाई 
					तो दूसरी ओर भू–स्खलन से जगह–जगह कटी–फटी सड़कें! बस एक चट्टान 
					खिसकाने की देरी है कि सारी यात्रा का बेड़ा गर्क! और अगर इंद्र 
					का कोप हो तो ऐसी बारिश करा दें कि चट्टान आगे खिसक भी रही हो 
					तो भी गाड़ी की विंडस्क्रीन पर कुछ ना दिखाई दे! खैर हम लोग कबी 
					और फेनसांग तक सड़क के हालात देख मन ही मन राम–राम जपते गए!
					फेनसांग के पास एक जलप्रपात मिला। यहाँ से मंगन तक का 
					मार्ग सुगम था। इन रास्तों की विशेषता ये है कि एक पहाड़ से 
					दूसरे पहाड़ जाने के लिए पहले आपको एकदम नीचे उतरना पड़ेगा और 
					फिर चढ़ाई चढ़नी पड़ेगी।
 
 मंगन पहुँचते पहुँचते ये प्रक्रिया हमने कई बार दोहराई। ऐसे 
					में तिस्ता कभी बिलकुल करीब आ जाती तो कभी पहाड़ के शिखर से एक 
					खूबसूरत लकीर की तरह बहती दिखती। शाम के ४:३० बजे तक हम 
					चुंगथांग में थे। लाचेन और लाचुंग की तरफ से आती जल संधियाँ 
					यहीं मिलकर तिस्ता को जन्म देती हैं। थोड़ा विश्राम करने के लिए 
					हम सब गाड़ी से नीचे उतरे। चुंगथांग की हसीन वादियों और चाय की 
					चुस्कियों के साथ सफ़र की थकान जाती रही। शाम ढलने लगी थी और 
					मौसम का मिजाज़ भी कुछ बदलता–सा दिख रहा था।
 
 हम शीघ्र ही लाचेन के लिए निकल पड़े जो हमारा अगला रात्रि पड़ाव 
					था। लाचेन तक के रास्ते में रिहाइशी इलाके कम ही दिखे। रास्ता 
					सुनसान था, बीच–बीच में एक–आध गाड़ियों की आवाजाही हमें ये 
					विश्वास दिला जाती थी कि सही मार्ग पर ही जा रहे हैं। लाचेन के 
					करीब १० कि .मी .पहले मौसम बदल चुका था। घाटी पूरी तरह गाढ़ी 
					सफेद धुंध की गिरफ्त में थी और वाहन की खिड़की से आती हल्की 
					फुहारें मन को शीतल कर रहीं थीं। ६ बजने से कुछ समय पहले हम 
					लगभग ९,००० फुट ऊँचाई पर स्थित इस गाँव में प्रवेश कर चुके थे। 
					पर हम तो मन ही मन रोमांचित हो रहे थे उस अगली सुबह के इंतज़ार 
					में जो शायद हमें उस नीले आकाश के और पास ले जा सके। लाचेन की 
					वह रात हमने एक छोटे से लॉज में गुज़ारी।
 
 दुर्गम रास्ते
 
 
  लाचेन 
					से आगे का रास्ता फिर थोड़ा पथरीला था। सड़क कटी–कटी सी थीं। 
					कहीं–कहीं पहाड़ के ऊपरी हिस्से में भू–स्खलन होने की वजह से 
					उसके ठीक नीचे के जंगल बिलकुल साफ़ हो गए थे। आगे की आबादी ना 
					के बराबर थी। बीच–बीच में याकों का समूह ज़रूर दृष्टिगोचर हो 
					जाता था। चढ़ाई के साथ–साथ पहाड़ों पर आक्सीजन कम होती जाती है। 
					१४,००० फीट की ऊँचाई पर बसे थांगू में रुकना था, ताकि हम कम 
					आक्सीज़न वाले वातावरण में अभ्यस्त हो सकें। चौड़ी पत्ती वाले 
					पेड़ों की जगह अब नुकीली पत्ती वाले पेड़ो ने ले ली थी। पर ये 
					क्या? थांगू पहुँचते–पहुँचते तो ये भी गायब होने लगे थे। रह गए 
					थे, तो बस छोटे–छोटे झाड़ीनुमा पौधे। 
 थांगू तक धूप नदारद थी। बादल के पुलिंदे अपनी मन मर्जी से इधर 
					उधर तैर रहे थे। पर पहाड़ों के सफ़र में धूप के साथ नीला आकाश भी 
					साथ हो तो क्या कहने! पहले तो कुछ देर धूप–छांव का खेल चलता 
					रहा। पर आख़िरकार हमारी यह ख्वाहिश नीली छतरी वाले ने जल्द ही 
					पूरी की। नीला आसमान, नंगे पहाड़ और बर्फ आच्छादित चोटियाँ 
					मिलकर ऐसा मंज़र प्रस्तुत कर रहे थे जैसे हम किसी दूसरी ही 
					दुनिया में हों। १५,००० फीट की ऊँचाई पर हमें विक्टोरिया पठारी 
					बटालियन का चेक पोस्ट मिला। दूर–दूर तक ना कोई परिंदा दिखाई 
					पड़ता था और ना कोई वनस्पति! सच पूछिए तो इस बर्फीले पठारी 
					रेगिस्तान में कुछ हो–हवा जाए तो सेना ही एकमात्र सहारा थी। 
					थोड़ी दूर और बढ़े तो अचानक एक बर्फीला पहाड़ हमारे सामने आ गया! 
					गुनगुनी धूप, गहरा नीला गगन और इतने पास इस पहाड़ को देख के 
					गाड़ी से बाहर निकलने की इच्छा मन में कुलबुलाने लगी। पर उस 
					इच्छा को फलीभूत करने पर हमारी जो हालत हुई उसकी एक अलग कहानी 
					है। वैसे भी हम गुरूडांगमार के बेहद करीब थे! यही तो था इस 
					यात्रा का पहला लक्ष्य!
 
 गुरूडांगमार झील
 दरअसल 
					गुरूडांगमार एक झील का नाम है जो समुद्र तल से करीब १७,३०० फुट 
					पर है। ज़िंदगी में कितनी ही बार ऐसा होता है कि जो सामने 
					स्पष्ट दिखता है उसका असली रंग पास जा के पता चलता है। अब इतनी 
					बढ़िया धूप, स्वच्छ नीले आकाश को देख किसका मन बाहर विचरण करने 
					को नहीं करता! सो निकल पड़े हम सब गाड़ी के बाहर। पर ये क्या 
					बाहर प्रकृति का एक सेनापति तांडव मचा रहा था, सबके कदम बाहर 
					पड़ते ही लड़खड़ा गए, बच्चे रोने लगे, कैमरे को गले में लटकाकर 
					मैं दस्ताने और मफलर लाने दौड़ा। जी हाँ, ये कहर वो मदमस्त हवा 
					बरसा रही थी जिसकी तीव्रता को १६००० फीट की ठंड, पैनी धार 
					प्रदान कर रही थी। हवा का ये घमंड जायज़ भी था। दूर–दूर तक उस 
					पठारी समतल मैदान पर उसे चुनौती देने वाला कोई नहीं था, फिर वो 
					अपने इस खुले साम्राज्य में भला क्यों ना इतराए। 
 
  खैर 
					जल्दी–जल्दी हम सब ने कुछ तसवीरें खिंचवाई। इसके बाद नीचे 
					उतरने की जुर्रत किसी ने नहीं की और हम गुरूडांगमार पहुँच कर 
					ही अपनी सीट से खिसके। धार्मिक रूप से ये झील बौद्ध और सिख 
					अनुयायियों के लिए बेहद मायने रखती है। कहते हैं कि गुरूनानक 
					के चरण कमल इस झील पर पड़े थे जब वे तिब्बत की यात्रा पर थे। यह 
					भी कहा जाता है कि उनके जल स्पर्श की वजह से झील का वह हिस्सा 
					जाड़े में भी नहीं जमता। गनीमत थी कि १७,३०० फीट की ऊँचाई पर 
					हवा तेज़ नहीं थी। झील तक पहुँच तो गए थे पर इतनी चढ़ाई बहुतों 
					के सर में दर्द पैदा करने के लिए काफी थी। मन ही मन इस बात का 
					उत्साह भी था कि सकुशल इस ऊँचाई पर पहुँच गए। झील का दृश्य 
					बेहद मनमोहक था। दूर–दूर तक फैला नीला जल और पाश्र्व में बर्फ 
					से लदी हुई श्वेत चोटियाँ गाहे–बगाहे आते जाते बादलों के झुंड 
					से गुफ्तगू करती दिखाई पड़ रहीं थीं। दूर कोने में झील का एक 
					हिस्सा जमा दिख रहा था। नज़दीक से देखने की इच्छा हुई, तो चल 
					पड़े नीचे की ओर। बर्फ की परत वहाँ ज़्यादा मोटी नहीं थी। हमने 
					देखा कि एक ओर की बर्फ तो पिघल कर टूटती जा रही है! झील के 
					दूसरी ओर सुनहरे पत्थरों के पीछे गहरा नीला आकाश एक और खूबसूरत 
					परिदृश्य उपस्थित कर रहा था। 
 वापसी की यात्रा लंबी थी इसलिए झील के किनारे दो घंटे बिताने 
					के बाद हम वापस चल पडे.। नीचे उतरे थे तो ऊपर भी चढ़ना था पर इस 
					बार ऊपर की ओर रखा हर कदम ज़्यादा ही भारी महसूस हो रहा था। 
					सीढ़ी चढ़ तो गए पर तुरंत फिर गाड़ी तक जाने की हिम्मत नहीं हुई। 
					कुछ देर विश्राम के बाद सुस्त कदमों से गाड़ी तक पहुँचे तो 
					अचानक याद आया कि एक दवा खानी तो भूल ही गए हैं। पानी के घूंट 
					के साथ हाथ और पैर और फिर शरीर की ताकत जाती सी लगी। कुछ ही 
					पलों में मैं सीट पर औंधे मुंह लेटा था। शरीर में आक्सीजन की 
					कमी कब हो जाए इसका ज़रा भी पूर्वाभास नहीं होता। खैर मेरी ये 
					अवस्था सिर्फ २ मिनटों तक रही और फिर सब सामान्य हो गया।
 
 वापसी में हमें चोपटा घाटी होते हुए लाचुंग तक जाना था। सुबह 
					से ७० कि.मी. की यात्रा कर ही चुके थे। अब १२० कि .मी .की 
					दुर्गम यात्रा के बारे में सोचकर ही मन में थकावट हो रही थी। 
					इस पूरी यात्रा में दोपहर के बाद शायद ही कहीं धूप के दर्शन 
					हुए थे। हवा ने फिर ज़ोर पकड़ लिया था। सामने दिख रहे एक पर्वत 
					पर बारिश के बादलों ने अपना डेरा जमा लिया था।
 
 चोपटा और चुंगथांग
 
 
  हम 
					थांगू के पास चोपटा घाटी में थोड़ी देर के लिए रुके। दो विशाल 
					पर्वतों के बीच की इस घाटी में एक पतली नदी बहती है जो जाड़ों 
					के दिनों में पूरी जम जाती है। लाचेन पहुँचते–पहुँचते बारिश 
					शुरू हो चुकी थी। जैसे–जैसे रोशनी कम हो रही थी वर्षा उतना ही 
					प्रचंड रूप धारण करती जा रही थी। गज़ब का नज़ारा था... 
 थोड़ी–थोड़ी दूर पर उफनते जलप्रपात, गाड़ी की विंड स्क्रीन से 
					टकराती बारिश की मोटी–मोटी बूँदे, सड़क की काली लकीर के अगल बगल 
					चहलकदमी करते बादल और मन मोहती हरियाली ...सफ़र के कुछ अदभुत 
					दृश्यों में से ये भी एक था। करीब ६ बजे तक हम चुंगथांग पहुँच 
					चुके थे। यही से लाचुंग के लिए रास्ता कटता है।
 
 चुंगथांग से लाचुंग का सफ़र डरे सहमे बीता। पूरे रास्ते चढ़ाई ही 
					चढ़ाई थी। एक ओर बढ़ता हुआ अँधेरा तो दूसरी ओर बारिश की वजह से 
					पैदा हुई सफेद धुंध! इन परिस्थितियों में भी हमारा कुशल चालक 
					६०–७० कि.मी. प्रति घंटे की रफ्तार से अपनी महिंद्रा हाँक रहा 
					था। रास्ते का हर एक यू–टर्न हमारे हृदय की धुकधुकी बढ़ाता जा 
					रहा था। निगाहें मील के हर पत्थर पर अटकती थीं, आतुरता से इस 
					बात की प्रतीक्षा करते हुए कि कब लाचुंग के नाम के साथ शून्य 
					की संख्या दिख जाए। ७:३० बजे लाचुंग पहुँच कर हमने चैन की साँस 
					ली। बाहर होती मूसलाधार बारिश अगले दिन के हमारे कार्यक्रम पर 
					कुठाराघात करती प्रतीत हो रही थी। थकान इतनी ज़्यादा थी कि 
					चुपचाप रजाई के अंदर दुबक लिए।
 
 लाचुंग की वह सुबह अनोखी थी। दूर–दूर तक बारिश का नामोनिशान 
					नहीं था। गहरे नीचे आकाश के नीचे लाचुंग का पहाड़ अपना सीना 
					ताने खड़ा था। पहाड़ के बीचों–बीच पतले झरने की सफेद लकीर, 
					चट्टानों के इस विशाल जाल के सामने बौनी प्रतीत हो रही थी। पर 
					असली नज़ारा तो दूसरी ओर था। पर्वतों और सूरज के बीच की ऐसी 
					आँखमिचौनी मैंने पहले कभी नहीं देखी थी। पहाड़ के ठीक सामने का 
					हिस्सा जिधर हमारा होटल था अभी भी अंधकार में डूबा था। दूर 
					दूसरे शिखर के पास एक छोटा सा पेड़ किरणों की प्रतीक्षा में 
					अपनी बाहें फैलाए खड़ा था। उधर बादलों की चादर को खिसकाकर सूर्य 
					किरणें अपना मार्ग प्रशस्त कर रहीं थीं। थोड़ी ही देर में ये 
					किरणें कंचनजंघा की बर्फ से लदी चोटियों को यों प्रकाशमान करने 
					लगीं मानो भगवान ने पहाड़ के उस छोर पर बड़ी सी सर्चलाइट जला रखी 
					हो। शायद वर्षों तक यह दृश्य मेरे स्मृतिपटल पर अंकित रहे। 
					अपने सफ़र के इस यादगार लमहे को मैं अपने कैमरे में कैद कर सका 
					ये मेरी खुशकिस्मती है। कंचनजंघा को कंचनजंघा क्यों कहते हैं 
					यह इस फ़ोटो को देख कर ही जाना जा सकता है। 
					(फोटो बिलकुल नीचे)
 
 यूमथांग घाटी
 
 
  अगला 
					पड़ाव यूमथांग घाटी था। ये घाटी लॉचुंग से करीब २५ कि .मी .दूर 
					है और यहाँ के लोग इसे फूलों की घाटी के नाम से भी बुलाते हैं। 
					दरअसल यह घाटी रोडोडेन्ड्रोन्स की २४ अलग–अलग प्रजातियों के 
					लिए मशहूर है। सुबह की धूप का आनंद लेते हुए हम यूमथांग की ओर 
					चल पड़े। सारा रास्ता बैंगनी रंग के इन छोटे–छोटे फूलों से अटा 
					पड़ा था। करीब डेढ़ घंटे के सफ़र के बाद हम यूमथांग में थे। 
					रास्ते में ही हमें रोडोडेन्ड्रोन्स के जंगल दिखने शुरू हो गए 
					थे। मार्च अप्रैल से इनके पौधों में कलियाँ लगने लगती हैं। पर 
					पूरी तरह से ये खिलते हैं मई के महीने में, जब पूरी घाटी इनके 
					लाल और गुलाबी रंगों से रंग जाती है। 
 चूँकि यह घाटी १२,००० फीट की ऊँचाई पर स्थित है यहाँ 
					गुरूडांगमार की तरह हरियाली की कोई कमी नहीं थी। कमी थी तो बस 
					आसमान की उस नीली छत की जो सुबह में दिखने के बाद यहाँ पहुँचते 
					ही गायब हो गई थी। घाटी के बीच पत्थरों पे उछलती कूदती नदी बह 
					रही थी। जाड़े में ये पत्थर बर्फ के अंदर दब जाते हैं। इन गोल 
					मटोल पत्थरों के ढेर के साथ–साथ हम सब काफ़ी देर तक चलते रहे। 
					किसी ने कहा रात में बारिश हुई है तो साथ में बर्फ़ भी गिरी 
					होगी। फिर क्या था नदी का पाट छोड़ हम किनारे पर दिख रहे 
					वृक्षों की झुरमुटों की ओर चल पड़े। पेड़ों के बीच हमें बर्फ 
					गिरी दिख ही गई। पास में ही सल्फर युक्त पानी का सोता था पर 
					वहाँ तक पहुँचने के लिए इस पहाड़ी नदी यानि यहाँ की भाषा में 
					कहें तो लाचुंग चू को पार करना था। वहीं से इस ठुमकती चू को 
					कैमरे से छू लिया। गर्म पानी का स्पर्श कर हम वापस लाचुंग लौट 
					चले।
 
 भोजन के बाद वापस गंगतोक की राह पकड़नी थी। गंगतोक के रास्ते 
					में तिस्ता घाटी की अंतिम झलक पाने के लिए हम गाड़ी से उतरे। 
					काफी ऊँचाई से ली गई इस तसवीर में घुमावदार रास्तों के जाल के 
					साथ नीचे बहती हुई तिस्ता को आप देख सकते हैं। तिस्ता से ये इस 
					सफ़र की आखिरी मुलाकात तो नहीं पर उसकी अंतिम तसवीर ये ज़रूर थी। 
					सांझ ढलते–ढलते हम गंगतोक में कदम रख चुके थे।अपना अगला दिन 
					नाम था सिक्किम के सबसे लोकप्रिय पड़ाव के लिए जहाँ प्रकृति 
					अपने एक अलग रूप में हमारी प्रतीक्षा कर रही थी।
 
 छान्गू झील, नाथू ला और बाबा मंदिर
 
 
  अगली 
					सुबह पता चला कि भारी बारिश और चट्टानों के खिसकने की वजह से 
					नाथू–ला का रास्ता बंद हो गया है। मन ही मन मायूस हुए कि इतने 
					पास आकर भी भारत–चीन सीमा को देखने से वंचित रह जाएँगे पर 
					बारिश ने जहाँ नाथू–ला जाने में बाधा उत्पन्न कर दी थी तो वहीं 
					ये भी सुनिश्चित कर दिया था कि हमें सिक्किम की बर्फीली 
					वादियाँ के पहली बार दर्शन हो ही जाएँगे। इसी खुशी को मन में 
					संजोए हुए हम छान्गू (या त्सेंग अब इसका उच्चारण मेरे वश के 
					बाहर है, वैसे भूतिया भाषा में त्सेंग का मतलब झील का उदगम 
					स्थल है) की ओर चल पड़े। ३७८० मीटर यानि करीब १२००० फीट की 
					ऊँचाई पर स्थित छान्गू झील गंगतोक से मात्र ४० कि .मी .की दूरी 
					पर है। 
 गंगतोक से निकलते ही हरे 
					भरे देवदार के जंगलों ने हमारा स्वागत किया। हर बार की तरह धूप 
					में वही निखार था। कम दूरी का एक मतलब ये भी था की रास्ते भर 
					ज़बरदस्त चढ़ाई थी। ३० कि.मी. पार करने के बाद रास्ते के दोनों 
					ओर बर्फ के ढेर दिखने लगे। मैदानों में रहने वाले हम जैसे 
					लोगों के लिए बर्फ की चादर में लिपटे इन पर्वतों को इतने करीब 
					से देख पाना अपने आप में एक सुखद अनुभूति थी पर ये तो अभी 
					शुरुआत थी। छान्गू झील के पास हमें आगे की बर्फ का मुकाबला 
					करने के लिए घुटनों तक लंबे जूतों और दस्तानों से लैस होना 
					पड़ा। दरअसल हमें बाबा हरभजन सिंह मंदिर तक जाना था जो कि 
					नाथू–ला और जेलेप–ला के बीच स्थित है। ये मंदिर २३ वीं पंजाब 
					रेजीमेंट के एक जवान की याद में बनाया है जो डयूटी के दौरान 
					इन्हीं वादियों में गुम हो गया था। बाबा मंदिर की भी अपनी एक 
					रोचक कहानी है जिसकी चर्चा हाल–फिलहाल में हमारे मीडिया ने भी 
					की थी। छान्गू से १० कि .मी .दूर हम नाथू ला के इस प्रवेश 
					द्वार की बगल से गुज़रे।
 
 हमारे गाइड ने इशारा किया की सामने के पहाड़ के उस ओर चीन का 
					इलाका है। मन ही मन कल्पना की कि रेड आर्मी कैसी दिखती होगी 
					वैसे भी इसके सिवाय कोई चारा भी तो ना था। थोड़ी ही देर में हम 
					बाबा मंदिर के पास थे। सैलानियों की ज़बरदस्त भीड़ वहाँ पहले से 
					ही मौजूद थी। मंदिर के चारों ओर श्वेत रंग में डूबी बर्फ ही 
					बर्फ थी। उफ्फ क्या रंग था प्रकृति का, ज़मीं पर बर्फ की दूधिया 
					चादर और ऊपर आकाश की अदभुत नीलिमा, बस जी अपने आप को इसमें। 
					विलीन कर देने को चाहता था। इन अनमोल लमहों को कैमरे में कैद 
					कर बर्फ के बिलकुल करीब जा पहुँचे।
 
 
  हमने घंटे भर जी भर के बर्फ पर उछल कूद मचाई। ऊँचाई तक गिरते 
					पड़ते चढ़े और फिर फिसले। अब फिसलने से बर्फ भी पिघली। कपड़ो की 
					कई तहों के अंदर होने की वजह से हम इस बात से अनजान बने रहे कि 
					पिघलती बर्फ धीरे–धीरे अंदर रास्ता बना रही है। जैसे ही इस 
					बर्फ ने कपड़ों की अंतिम तह को पार किया, हमें वस्तुस्थिति का 
					ज्ञान हुआ और हम वापस अपनी गाड़ी की ओर लपके। कुछ देर तक हमारी 
					क्या हालत रही वो आप समझ ही गए होंगे। खैर वापसी में भोजन के 
					लिए छान्गू में पुनः रुके। भोजन में यहाँ के लोकप्रिय आहार 
					मोमो का स्वाद चखा। भोजन कर के बाहर निकले तो देखा कि ये 
					सुसज्जित याक अपने साथ तसवीर लेने के लिए पलकें बिछाए हमारी 
					प्रतीक्षा कर रहा था। अब हमें भी इस याक का दिल दुखाना अच्छा 
					नहीं लगा सो खड़े हो गए गलबहियाँ कर। नतीजा आपके सामने है। अगला 
					दिन गंगतोक में बिताया हमारा आखरी दिन था। 
 सिक्किम 
					प्रवास के आखिरी दिन हमारे पास दिन के ३ बजे तक ही घूमने का 
					वक्त था। तो सबने सोचा क्यों ना गंगतोक में ही चहलकदमी की जाए। 
					सुबह जलपान करने के बाद सीधे जा पहुँचे फूलों की प्रदर्शनी 
					देखने। वहाँ पता चला कि इतने छोटे से राज्य में भी ऑर्किड की 
					५०० से ज़्यादा प्रजातियाँ पाई जाती हैं जिसमें से कई तो बेहद 
					दुर्लभ किस्म ही हैं। इन फूलों की एक झलक हमें चकित करने के 
					लिए काफी थी। भांति–भांति के रंग और रूप लिए इन फूलों से नज़रें 
					हटाने को जी नहीं चाहता था। ऐसा खूबसूरत रंग संयोजन विधाता के 
					अलावा भला कौन कर सकता है।
 
 फूलों की दीर्घा से निकल हमने रोपवे की राह पकड़ी। ऊँचाई से 
					दिखते गंगतोक की खूबसूरती और बढ़ गई थी। हरे भरे पहाड़ सीढ़ीनुमा 
					खेत सर्पाकार सड़कें और उन पर चलती चौकोर पीले डिब्बों जैसी 
					दिखती टैक्सियाँ। रोपवे से आगे बढ़े तो सिक्किम विधानसभा भी नज़र 
					आई। रोपवे से उतरने के बाद बौद्ध स्तूप की ओर जाना था। स्तूप 
					की चढ़ाई चढ़ते चढ़ते हम पसीने से नहा गए। इस स्तूप के चारों ओर 
					१०८ पूजा चक्र हैं जिन्हे बौद्ध भक्त मंत्रोच्चार के साथ 
					घुमाते हैं।
 
 
  वापसी का सफ़र ३ की बजाय ४ बजे शुरू हुआ। गंगतोक से सिलीगुड़ी का 
					सफ़र चार घंटे मे पूरा होता है। इस बार हमारा ड्राइवर बातूनी 
					ज़्यादा था और घाघ भी। टाटा सूमो में सिक्किम में १० से ज़्यादा 
					लोगों को बैठाने की इजाजत नहीं है पर ये जनाब १२ लोगों को उस 
					में बैठाने पर आमादा थे। खैर हमारे सतत विरोध की वजह से ये 
					संख्या १२ से ज़्यादा नहीं बढ़ पाई। सिक्किम में कायदा कानून 
					चलता है और लोग बनाए गए नियमों का सम्मान करते हैं पर जैसे ही 
					सिक्किम की सीमा खत्म होती है कायदे–कानून धरे के धरे रह जाते 
					हैं। बंगाल आते ही ड्राइवर की खुशी देखते ही बनती थी। पहले तो 
					सवारियों की संख्या १० से १२ की और फिर एक जगह रोक कर सूमो के 
					ऊपर लोगों को बैठाने लगा पर इस बार सब यात्रियों ने मिलकर ऐसी 
					झाड़ पिलाई की वो मन मार के चुप हो गया। 
 उत्तरी बंगाल में घुसते ही चाँद निकल आया था। पहाड़ियों के बीच 
					से छन कर आती उसकी रोशनी तिस्ता नदी को प्रकाशमान कर रही थी। 
					वैसे भी रात में होने वाली बारिश की वजह से चाँद हमसे लाचेन और 
					लाचुंग दोनों जगह नज़रों से ओझल ही रहा था, जिसका मुझे बेहद 
					मलाल था। शायद यही वजह थी कि चाँदनी रात की इस खूबसूरती को देख 
					मन में एतबार साजिद की ये पंक्तियाँ याद आ रही थीं–
 वहाँ घर में कौन है मुंतज़िर कि हो फिक्र दर सवार की
 बड़ी मुख्तसर सी ये रात है, इसे चाँदनी में गुज़ार दो
 कोई बात करनी है चाँद से, किसी शाखसार की ओट में
 मुझे रास्ते में यहीं कहीं किसी कुंज–ए–गुल में उतार दो
 
 चंद दिनों की मधुर स्मृतियों को लिए हमारा समूह वापस लौट रहा 
					था कुछ अविस्मरणीय छवियों के साथ। उनमें एक छवि इस बच्चे की भी 
					थी जिसे हमने चुन्गथांग में खेलते देखा था! सिक्किम के सफ़र का 
					पटाक्षेप करने से पहले तहे दिल से सलाम हमारे ट्रेवेल एजेन्ट 
					प्रधान को जिसने बंदगोभी की सब्जी खिला–खिला कर ना केवल 
					१५,००० फीट पर भी हमारे खून में गर्मी बनाए रखी बल्कि रास्ते 
					भर अपने हँसोड़ स्वभाव से माहौल को भी हल्का–फुल्का बनाए रखा।
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