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                    बाजीगर कभी भी आ जाता था। उसके 
					आने से पहले उसके आगे-आगे उसके विज्ञापन नहीं आते थे। जब भी 
					आता था- जीता-जागता। बाँस के कई-कई मोटे डंडों को रस्सी में 
					लपेटे, कसकर हाथों में थामे। पीठ पर बोरी से बने कई छोटे-बड़े 
					झोले उठाए। उन झोलों में कुछ छोटे-बड़े मटक रखे होते। पीछे-पीछे 
					उसकी लड़की चलती आती। लड़की के कंधे पर झूलती रस्सी उसके पेट और 
					पीठ को घेरती हुई छोटे-से ढोलक को कसकर पकड़े रहती। चलते समय 
					उसके घुटने लटकते हुए ढोलक को बार-बार ऊपर की ओर सम्हाले रहते।
 वे अक्सर कस्बे के चौक में आते। ‘पापी पेट का सवाल है’ की 
					घोषणा और ढोलक की थाप से प्रोग्राम शुरू होता। मजमा जुटता। 
					ज़मीन में गाड़े गए और आपस में मजबूती से बँधे बाँसों के उपरी 
					हिस्सों के बीच एक मज़बूत रस्सा झूलने लगता। बाज़ीगर की दोनों 
					पिंडलियों पर फूली हुई नसों की नीली गाँठें थीं। उसके पैर अनगढ़ 
					और बदसूरत थे। पर हम उसके पैर नहीं देखते थे, उसकी श्रम-साधना, 
					कला-साधना देखते थे। उसे कई जादू नहीं आते थे। कड़ी मेहनत करके, 
					खतरा मोल लेकर रोजी-रोटी चलाने के अलावा और कोई जादू वह नहीं 
					जानता था। हम लोग एकटक उसका वह जादू देखते। वह मजबूत रस्से पर 
					चलता- पहले खाली हाथ, खाली सिर और फिर एक-एक करके कई छोटे-बड़े 
					मटके उसे घेर लेते। दोनों हाथों में एक-एक मटका, फिर सिर पर एक 
					मटका। फिर दो, फिर तीन... मटके बढ़ते जाते। हमारा अचरज भी बढ़ता 
					जाता। धुक-धुक करते अचरज से हम खेल देखते। साहनी अंकल की बेटी 
					नेहा आशंकाओं से भरकर थरथर काँपने लगती और डरकर अपनी आँखें बंद 
					करती। खेल खत्म होने पर जब हम लोग तालियाँ बजाते, तब जाकर वह 
					ठीक से अपनी आँखें खोलती। फिर हम घर जाकर माँ से जिद करके पैसे 
					लेते और लोगों से घिरी ज़मीन पर बिछी बोरी पर रखी काँसे की 
					पुरानी, मैली-सी थाली में पैसे डालते, आशीर्वाद पाते। हम खुश 
					होते।
 
 हम उन्हें धुर अपने बचपन से देखते आ रहे थे। बची हुई स्मृति के 
					आदि-बिंदु पर बाज़ीगर और उसकी लड़की मौजूद होते। उस आदि-बिंदु पर 
					लड़की की माँ कभी होती, कभी नहीं। तनी हुई रस्सी पर से गिरकर जब 
					उसकी गर्दन टूटी, तब हम बहुत ही छोटे थे। माँ बताती हैं कि उस 
					घटना के बाद तीन-चार महीने तक बाज़ीगर नहीं आया। जब वह आया, तब 
					उसके साथ उसकी घरवाली नहीं आई, उसकी छोटी-सी बेटी आई। घरवाली 
					उसके बाद कभी नहीं आई, उसकी बेटी हमेशा आई। हम बाज़ीगर और उसकी 
					बेटी को न जाने कितने हज़ार सालों से देखते आ रहे थे।
 
 उनका आना हमें वैसा ही लगता जैसा कि बारिश और धूप का आना। वे 
					हवा की तरह चलते आते और उनके लिए लोगों की जिन्दगी में हमेशा 
					एक जगह बनी रहती। उनका आना वैसा ही था जैसा कि हर सुबह दूध 
					वाले का, अखबार वाले का, रेडियो की ख़बरों का, या शनिवार को 
					इस्त्री वाले धोबी का आना। बाज़ीगर का आना इन सबके आने जितना ही 
					ज़रूरी होता था। तब तक थैलियों में बंद ‘पोलीपैक’ दूध से हम 
					परिचित नहीं थे, घरों में टेलीविजन और वॉशिंग मशीनें नहीं आई 
					थीं, कंप्यूटर के बारे में या ऐसी किसी चीज़ के हो सकने की 
					संभावना के बारे में तब हम सोच भी नहीं सकते थे।
 तब हमारा कस्बा छोटा और पिछड़ा हुआ था। चौक के एक ओर बहुत 
					पुराने खंडहरों का अच्छा-खासा फैलाव था। हम उधर नहीं जाते थे, 
					क्योंकि खंडहरों में भूत रहते थे। हम सब जानते थे कि वहाँ भूत 
					रहते हैं। चाँदनी रातों में कभी-कभी लंबे सफ़ेद दाढ़ी वाला 
					लंबा-तगड़ा मुसलमान फ़कीर खंडहरों की छत पर मँडराता दिखता था। 
					अनेक औरतों ने उसे देखा था। माँ ने कभी नहीं देखा था, पर माँ 
					विश्वास करती थीं कि वह वहाँ मँडराता है। माँ हमें उधर जाने से 
					बरजती थीं। कुछ साल बाद बड़े होने पर जब हम खेलते-खेलते वहाँ 
					जाने लगे, तब मैंने देखा कि खंडहरों की सिर्फ दीवारें बची हैं, 
					छत तो है ही नहीं।... बचपन के दौरान वह लंबी सफेद दाढ़ी वाला 
					लंबा-तगड़ा फ़कीर अनहुई छतों पर मँडराता रहा होगा। जिन औरतों ने 
					उसे ‘सचमुच’ खंडहरों की छत पर मँडराते देखा था, वे अब ज़िन्दा 
					नहीं हैं।
 
 हम थोड़े और बड़े हुए तो काफ़ी-सारे खंडहर साफ कर दिए गए। चौक का 
					विस्तार दूर तक खुल गया। मुहल्ले की घुटन कुछ कम हो गई। हमारा 
					डर काफी हद तक घट गया। पूरा कस्बा जैसे अचानक किसी पुराने जंग 
					खाए ‘शिप’ के बंद केबिन से उसके खुले ‘टैरेस’ पर निकल आया हो- 
					जहाँ तक नजर जाती है, लहराता उमड़ता निर्बाध समुद्र है।
 
 उसके बाद हर साल एक न एक नई कॉलोनी लहर की तरफ उठती और दूर तक 
					चली जाती। सरकार एक आवास-योजना बनाकर प्लॉटों का आवंटन करती तो 
					प्रॉपर्टी डीलर इस बीच कई कॉलोनियाँ काट चुके होते। अमरूदों के 
					कई बाग हर साल उजड़ने लगे। खेतों में फसलों की जगह चारदीवारियाँ 
					उगाई जाने लगी। ट्यूबवेलों के बिजली कनेक्शन बिजली चोरी का 
					साधन बनने लगे और एक छोटी-सी नहर नए ‘वाटर-वर्क्स’ में बिला 
					गई।
 
 तीसेक किलोमीटर दूर स्थित जिला मुख्यालय को इस राज्य की नई 
					राजधानी बनाए जाने की खबर जब बीच-बीच में उड़ती तो हमारे कस्बे 
					में जमीन के रेट अचानक फिर उछलते....उछलते जाते। जमीन को लेकर 
					मारा-मारी मच जाती। प्रॉपर्टी डीलर एक-एक प्लॉट पर कई...कई बार 
					कमाते। हमारा कस्बा जिला मुख्यालय की ओर लपकता जा रहा था।
 
 इस नए शहर-यानी पुराने कस्बे के उत्तरी किनारे पर एक किला था, 
					जो अब बीच में आ गया था। लोग दिन में भी किले में जाने से डरने 
					लगे थे, क्योंकि वहाँ छीना-झपटी और कत्ल की कई वारदातें हो 
					चुकी थीं। फिरोजशाह तुगलक की खुदवाई हुई जो नहर कभी कस्बे की 
					सीमा होती थी, वह कभी की सूख और टूट चुकी थी। आँखों तक का पानी 
					सूख रहा था और सभी सीमाएँ टूटती जा रही थीं। भौंचक्क करने वाला 
					वक्त हमारे सामने था और हम बड़े होते जा रहे थे।
 
 जब हम छोटे थे, तब नहर में पानी बहता था। नहर के उस पार देहात 
					शुरू हो जाता था। उधर खेत थे, अमरूदों के बाग थे, भोलापन था। 
					सहज विश्वास दोनों तरफ था। दुर्घटनाएँ बहुत कम होती थीं। वे कम 
					होती थीं, इसलिए लोगों की स्मृति में लंबे समय तक बनी रहती 
					थीं। पुलिस बहुत कम होती थी, डाकू भी कम होते थे। जो होते थे, 
					वे लूटते थे, कत्ल नहीं करते थे। अनेक डाकू किंवदिंतियों की 
					तरह लगातार जिंदा रहते थे। अमीरों को लूटकर गरीबों की मदद करने 
					की झूठी-सच्ची अफवाहें डाकुओं को प्रायः ‘नायक’ की हैसियत बख्श 
					देती थीं।
 
 किले में एक कुआँ हुआ करता था। कुएँ की मुंडेर के पत्थर पर 
					पृथ्वीराज चौहान के उछलते घोड़े की नाल का पुराना निशान था। 
					एकाध गोरा पर्यटक कभी-कभी किला देखने आ जाता था। एक बार एक 
					अंग्रेज हमारे फोटो खींचकर ले गया था। चार-पाँच बच्चों के झुंड 
					में मैं भी खड़ा था। हमने गलत स्पैलिंग के साथ रोमन अक्षरों में 
					गर्वसहित, अपना पता लिखकर अंग्रेज को दिया था और करीब छह-सात 
					महीने बीतने के बाद हमारे फोटो लिए एक लिफाफा हजारों मील दूर 
					से उड़कर आया था। माँ ने डाकिये का मुँह मीठा करवाया था। हमारी 
					जिंदगी में कई दिनों तक फोटो की पैदा हुई उत्तेजना बनी रही थी। 
					घटनाएँ कम होती थीं इसलिए उनके प्रभाव गहरे होते थे, स्मृति भी 
					गहरी होती थी।
 
 एक बार हम एक अंग्रेज पर्यटकों के दल के पीछे-पीछे चलते चौक तक 
					आए तो आगे मजमा लगा दिया। तब चौक के पास खंडहर साफ किए जा रहे 
					थे। अंग्रेजों की उपस्थिति से और ज्यादा भीड़ जुट आई थी। आसपास 
					के कुछ दुकानदार भी जा जुटे। सामने बाजीगर रस्सी पर चल रहा था। 
					अपनी धुकधुकी को काबू में रखने की कोशिश करते हम खेल देख रहे 
					थे। अंग्रेज फोटो खींच रहे थे। मैं उन्हें भी देख रहा था। मेरा 
					ध्यान कैमरे पर था। बाजीगर का ध्यान कैमरे पर न होकर रस्सी, 
					मटकों और संतुलन बनाए रखने पर था। उस दिन हम माँ से पैसे 
					माँगने नहीं गए, वहीं खड़े अंग्रेजों को देखते रहे। बेहद गोरी, 
					गोल, नंगी पिंडलियों वाली एक अंग्रेजन ने दस रुपये का एक नोट 
					बाजीगर की लड़की को दिया था। लड़की की आँखें कैमरे के फ्लैश की 
					तरह चमकी थीं। उस दिन मेरे मन में अंग्रेजन की गोरी, गोल, 
					खूबसूरत पिंडलियों और बाजीगर की अनगढ़ गाँठदार बदसूरत पिंडलियों 
					के बीच एक अनायास तुलना उभरी थी। शहर (कस्बे ?) के साथ-साथ मैं 
					भी बदलना-बढ़ना शुरू हो गया था, इस बात का अहसास मुझे उसी दिन 
					हुआ।
 
 धीरे-धीरे चौक की सरहदों पर चारों तरफ चमचमाती दुकानें उग आई 
					थीं। वे गहरी और ऊँची थीं। नीचे बेसमेंट थे, ऊपर कई-कई मंजिलें 
					थीं। चौक के जिस कोने पर ‘अपनी धर्मपत्नी अंगूरी देवी की 
					स्मृति में सेठ रुलिया राम द्वारा बनवाई गई धर्मार्थ प्याऊ’ 
					हुआ करती थी, वहाँ नई-नई बनी दुकानों में अब बिस्लेरी, हिमालय, 
					गंगा और चश्मेशाही आदि ब्रांडों का बोतलबंद ‘मिनरल वॉटर’ बिकने 
					लगा था। चौक को घेरते जा रहे इस आधुनिक मार्केट में एक दिन 
					‘मैक डॉनल्ड’ खुला और ‘उद्घाटन’ वाले दिन ‘फ्री सॉफ्टी’ लेने 
					के लिए आधी रात तक लोगों की लाइन लगी रही। अब भी वहाँ अक्सर 
					लाइन लगी रहती है, पर अब ‘सॉफ्टी’ फ्री नहीं मिलती। लोग पैसे 
					देकर खरीदते हैं। पर लाइन अब भी ऐसे लगी रहती है, जैसे वहाँ सब 
					कुछ ‘फ्री’ मिल रहा हो।
 
 जिन बातों पर विश्वास नहीं आता था, वे भी अब घटित होने लगी थी। 
					डाकू और कातिल किले के बाहर आकर शहर भर में वारदातें करने लगे 
					थे। पुलिस अब बहुत बढ़ गई थी, वारदातें भी बहुत बढ़ गई थीं। फिर 
					एक दिन खबर उमड़ी कि ‘भगीरथ मोहल्ला’ उठाया जाएगा और उसकी जगह 
					एक ‘फाइव स्टार’ होटल बनेगा। फिर एक दिन भगीरथ मोहल्ला सचमुच 
					उठ गया, लोगों को अच्छी-खासी रकम देकर उनके पुश्तैनी मकान खरीद 
					लिए गए थे। भगीरथ मोहल्ले को बुलडोजरों से ‘साफ’ किए जाने के 
					बाद अचानक उसके पीछे की पुरानी झील में पानी कम और गंदगी 
					ज्यादा थी। मोहल्ले को समतल किए जाने से सड़ती हुई झील की बदबू 
					चौक तक आने लगी।
 
 जिन्होंने मोहल्ला साफ और समतल करवाया था, उन्होंने ही झील को 
					साफ और गहरा करवाया। ‘म्युनिसिपैलिटी’ ने एक प्रस्ताव पास करके 
					औने-पौने में वह पुरानी झील बेच दी। जब तक ‘फाइव-स्टार’ होटल 
					बनकर तैयार हुआ, तब तक होटल से लगी झील के चारों तरफ ऊँची 
					पटरियाँ बन गई थीं, हरे-भरे पेड़ उग आए थे। पटरियों पर बिछी लाल 
					बजरी, चारों तरफ उगे पेड़ों की हरियाली और साफ पानी की नीलिमा 
					ने पूरे माहौल को रंग-बिरंगा बना दिया था। नीले जल से लबालब 
					झील अपनी जगह चली गई थी और भगीरथ मोहल्ले की जगह ‘फाइव-स्टार’ 
					होटल आ गया था। वह मोहल्ला अब इस शहर में तो कहीं भी नहीं था। 
					हाँ, पुराने कस्बे के सनातन बूढ़ों की स्मृति में वह जरूर बचा 
					हुआ था....।
 
 फाइव स्टार होटल और झील के उद्घाटन के अवसर पर स्थानीय अखबारों 
					में इनके प्रशंसापूर्ण परिशिष्ट प्रकाशित किए गए। शहर को 
					अन्तर्राष्ट्रीय स्तर के ऐतिहासिक एवं आधुनिक पर्यटन केन्द्र 
					बनाए जाने की योजनाओं और संभावनाओं पर उल्लासजनक रिपोर्टें कई 
					दिनों तक हवाओं में फड़फड़ाती-गूँजती रहीं। झील में ‘बोटिंग’ की 
					भी व्यवस्था की गई थी। शुरू में झील परिसर में जाने के लिए 
					टिकट नहीं खरीदना पड़ता था, केवल बोटिंग के लिए पैसे देने पड़ते 
					थे। बाद में झील परिसर में घुसने के लिए टिकट खरीदना अनिवार्य 
					कर दिया गया। अब अपने शहर की पुरानी झील के किनारे घूमने के 
					लिए लोगों को पैसे देने पड़ते थे और ये पैसे सरकार के खाते में 
					नहीं जाते थे क्योंकि म्युनिसिपैलिटी ने झील बेच दी थी। यह 
					डिस्इन्वैस्टमेंट का दौर था।
 
 झील बेचे जाने पर शहर ने शोर नहीं मचाया था। पर जब नहर का पानी 
					खेतों में भेजे जाने की बजाय सीधा झील में पहुँचाया गया तो 
					आसपास के देहाती इलाकों ने लट्ठ उठा लिए। जब भी नहर का पानी 
					झील की ओर रुख करता, किसान भुनभुना उठते। साझे दुःख के 
					प्लेटफॉर्म पर यह भुनभुनाहट संगठित हुई तो आसपास के देहात में 
					किसानों का आंदोलन शुरू हो गया। दिल्ली वाली सड़क पर दो दिन 
					ट्रैफिक जाम रहा। किसानों ने पेड़ों की बड़ी-बड़ी शाखाएँ काटकर 
					जगह-जगह ‘हाई वे’ पर डाल दी थीं। पूरे जिले की पुलिस फोर्स इस 
					आंदोलन के खिलाफ झोंक दी गई। गोलियाँ चलीं। कई मरे। आखिरकार 
					समझौता हुआ कि मरने वालों के परिवारों को सरकार एक-एक लाख 
					रुपये देगी, गिरफ्तार किए गए आंदोलनकारियों को छोड़ दिया जाएगा 
					तथा शेष बातें बातचीत द्वारा शांतिपूर्ण ढंग से निपटाई जाएँगी।
 
 इस बीच मैं स्कूल की पढ़ाई पूरी करके कॉलेज में आ गया था। हमारे 
					शहर के बाहर पूरब में एक नया कॉलेज खुल गया था, पर मैंने वहाँ 
					एडमिशन लेने की बजाय पास के बड़े शहर में स्थित कॉलेज में 
					एडमिशन लिया। पड़ोस के साहनी अंकल की बेटी नेहा साहनी हमारे ही 
					शहर के ‘तुलसी देवी मेमोरियल कन्या महाविद्यालय’ में जाने लगी। 
					कन्या महाविद्यालय का भवन और वातावरण दोनों बहुत भिंचे-भिंचे 
					थे। लड़कियाँ खुलकर साँस लेने के लिए तरसतीं। अनेक लड़के बाहर 
					मँडराते दिखते। कभी हमारे इस शहर-यानी पुराने कस्बे के लोग और 
					मोहल्ले गाँवों जैसे होते थे। पड़ोसियों की बहन-बेटियों को अपनी 
					बहन-बेटियों जैसा समझने की पुरानी परम्परा को आमतौर पर निभाया 
					जाता था, यानी उसे सरेआम नहीं तोड़ा जाता था। पर अब दूसरी अनेक 
					चीजों और परम्पराओं की तरह यह परम्परा भी टूटती जा रही थी। टी. 
					वी. और फिल्मों के दृश्य तथा साथ के लड़के मुझे उकसाते और मैं 
					नेहा साहनी को दबोच लेने की बात सोचता।...
 
 अब घर-घर टी.वी. सैट आ गए थे। वॉशिंग मशीनें थीं। ‘पॉलीपैक’ 
					दूध किसी भी वक्त, किसी भी नुक्कड़ से मिल जाता था। धोबी, 
					दूधिया, रेडियो-समाचार आदि के लिए जीवन में जगह लगातार कम होती 
					जा रही थी। मेजबान और मेहमान बनने का समय अब लोगों के पास नहीं 
					था। टी.वी. उनका अधिकतर समय कुतरने लगा था।
 
 फैलते हए इस शहर में कई ‘इंटरनेट कैफे’ खुल गए थे। ज्यादातर 
					विद्यार्थी और बेरोजगार लोग ‘कम्प्यूटर’ से अपना भविष्य बनाने 
					को ललकते थे। किसी लड़के ने मुझे बताया कि नेहा साहनी भी आजकल 
					‘इंटरनेट कैफे’ जाती है, शाम को छह से सात। मैंने भी कम्प्यूटर 
					में ज्यादा दिलचस्पी लेनी शुरू कर दी। मैं भी इंटरनेट कैफै 
					जाने लगा। छह से सात के बीच ‘हाउस फुल’ था, मैं सात से आठ बजे 
					के बीच जाने लगा। हम आपस में शरमाते थे। बचे-खुचे कस्बाईपन के 
					कारण हम बोलते भी बहुत कम थे। नेहा का बड़ा भाई अमेरिका में है, 
					वह उसे ‘ई-मेल’ भेजा करती थी। मैं एक दिन सात बजे से कुछ पहले 
					‘इंटरनेट कैफे’ पहुँच गया और मैंने जासूसी ढंग से कम्प्यूटर 
					स्क्रीन को घूर कर नेहा का ‘ई-मेल पता’ नोट कर लिया। अगले दिन 
					मैंने अपना एक नया ‘ई-मेल पता’ बनाकर बड़े कमीने तरीके से उसे 
					एक संदेश भेज दिया-‘आई लव यू। गैस हू?’ सारी कस्बाई परम्पराओं 
					को तोड़ने का अवसर मैंने इस तरह उसकी ओर उछाल दिया था कि मैं 
					अंधेरे में सुरक्षित था। एक हफ्ते तक कोई उत्तर नहीं मिला तो 
					मैं मन ही मन कई तरह की योजनाएँ बनाने लगा। मेरा घटियापन जब 
					बेशरमी की सारी हदें लाँघने की तैयारी में था, तब दसवें या 
					ग्यारहवें दिन मुझे अपने ‘ई-मेल’ में उसका उत्तर मिला, सवाल के 
					रूप में-‘हू आर यू ? व्हेअर डू यू लिव ?’
 
 मैं ‘बुलेटप्रूफ’ से बाहर आने की हिम्मत नहीं जुटा पाया। मैंने 
					सोचा, साहनी अंकल एस.एच.ओ. रिटायर हैं, पुलिस में उनका अभी भी 
					इतना रसूख तो होगा कि मुझ जैसे बदमाशों के चूतड़ लाल करवा दें। 
					मैंने सोच-समझकर उकसाऊ-सा उत्तर दिया-‘आई लिव इन योर हार्ट। 
					गैस हू?’
 
 फिर यह सिलसिला चल निकला। ई-मेल हमारी दिनचर्या का हिस्सा हो 
					गया। यह सब अब मुझे एक मजेदार खेल जैसा लगने लगा।
 मैंने टाइप किया और भेज दिया- ‘आई लव यू। डोंट यू लव मी ?’
 ‘आई डोंट लव यू, बिकॉज आई डोंट नो यू’ - उत्तर मिला।
 आगे सिलसिला चलता रहा।
 -‘डू यू लव सम वन?’
 -‘यस, आइ डू।’
 -‘हू इज ही ?’
 -‘आई वोंट टैल। आई कांट टैल।’
 -‘आई’ अम डाइंग टु लिसन फ्रॉम यू।’
 -‘आई हैव नो वर्ड्स टु एक्सप्रेस।’
 -‘बट यू हैव फीलिंग्स।’
 -‘येस, आइ डू।’
 -‘गिव सम हिंट प्लीज।’
 -‘यू इनिशिएट टु गिव सम हिंट, प्लीज !’
 -ओ. के.। यू प्लीज जॉयन मैकडॉनल्ड सोफ्टी क्यू बिटवीन सेवन टु 
					सेवन फिफ्टीन, डे आफ्टर टुमारो।’
 -‘ओ.के., एग्रीड।’- जैसे ही मैंने उसका भेजा यह संदेश पढ़ा, 
					मेरी छाती धुकधुक करने लगी। कहीं ऐसा न हो कि नेहा अपने घर 
					वालें को पूरी ‘इंटरनेट-ई-मेल-स्टोरी’ बता दे और बीच चौक में 
					मेरी धुनाई हो जाए। घर पहुँचने पर पिताजी भी मेरी ठुकाई जरूर 
					करेंगे। अपने ही डर और कमीनेपन ने उस रात मुझे सोने नहीं दिया। 
					पर अगले दिन दोपहर तक मेरे कुछ अनुभवी सहपाठियों ने मुझे 
					‘बोल्ड’ बना दिया था। अगली शाम मैं ‘शहीद’ होने को पूरी तरह 
					तैयार हो गया था। मैं ठीक सात बजे चौक के उस कोने पर था, जहाँ 
					से मैं ‘मैकडॉनल्ड’ की सीढियाँ देख सकता था। ‘इंटरनेट-कैफे’ भी 
					पहली मंजिल पर होने के कारण वहाँ से दिखाई पड़ रहा था। नेहा 
					दिखी। मेरी छाती फिर धुकधुक करने लगी। मैं फिरौती की रकम लेने 
					आए अपहरणकर्ता की तरह बेहद डरा हुआ था। नेहा अकेली थी। वह दूर 
					तक अकेली दिखी। मैंने ‘बुलेटप्रूफ’ उतारकर मैदान में उतर आने 
					का हौसला दिखाया। नेहा चौकन्नी-सी मैकडॉनल्ड की सीढ़ियाँ चढ़कर 
					उस काउंटर के सामने लगी लाइन में जा खड़ी हुई, जिस पर सात-सात 
					रुपये वाली सॉफ्टियाँ मिल रही थीं। वह बेचैन थी। कभी आगे की 
					तरफ झाँक रही थी, कभी पीछे की तरफ। मैंने जल्दी-जल्दी चौक पार 
					किया और मैकडॉनल्ड की सीढ़ियाँ चढ़ गया। सीधा उसके सामने जाकर 
					‘हैलो’ बोला। उसने भी ‘हैलो’ बोला। मैंने कहा कि तुम लाइन से 
					बाहर आ जाओ, दोनों के लिए सॉफ्टी मैं लेता हूँ। वह लाइन से 
					बाहर हो गई।
 
 ....साथ-साथ चौक की तरफ बढ़ते हुए हमने ‘सॉफ्टी’ खाई। बात नहीं 
					हुई।
 ‘तुम अब इंटरनेट कैफे जाओ। साढ़े सात होने वाले हैं। मुझे घर 
					जाना है। सी.यू।’- उसने कहा और वह सचमुच चली गई। वह बहुत जल्दी 
					में थी, मैं बहुत हक्का-बक्का था।
 उसने ‘ई-मेल’ के बारे में कुछ नहीं पूछा। क्या वह पहले से 
					जानती थी कि मैं ही उसे ‘ई-मेल’ से ‘प्रेम-पाती’ भेजता था ?
 अगले दिन हम ‘कैफे’ के बाहर ही दो मिनट के लिए मिले। उसने 
					बताया कि अगले हफ्ते तक उसके घर नया कम्प्यूटर और ‘इंटरनेट 
					मॉडम’ आ जाएगा। फिर हर शाम वह यहाँ नहीं आएगी।
 
 मैंने महसूस किया कि नेहा सुंदर नहीं है। सचमुच वह मुझे सुंदर 
					नहीं लगी। न ही उसे जीत लेने की उत्तेजना या खुशी महसूस हुई । 
					रात को मुझे सपना आया कि मैं आमों के बाग में हूँ। भूख लगी हुई 
					है। एक पेड़ पर लगे एक वृहदाकार रसीले आम पर जैसे ही मेरी नजर 
					जाती है, वह टूटकर नीचे मेरी झोली में आ गिरता है। मैं अपनी 
					झोली पकड़े खड़ा हूँ। आम इतना बोझिल लग रहा है कि उसे फेंककर भाग 
					जाने को मन कर रहा है। आम के इस तरह अचानक टूटकर मेरी झोली में 
					आ गिरने से मेरी भूख भी जाती रही....। बस, फिर मुझे जाग आ गई। 
					जाग आने पर मैं देर तक अपने कमरे की दीवार पर लगी ऐश्वर्या राय 
					की तस्वीर देखता रहा।
 
 अगले हफ्ते हम लोग चार-पाँच बार मिल पाए, वह भी पाँच-पाँच, 
					दस-दस मिनट के लिए। आँखों के सामने होने पर वह मुझे सुंदर नहीं 
					दिखती थी। मैंने यह भी ‘नोट’ किया कि उसके ऊपरी होंठ के ऊपर 
					वाले हिस्से पर छोटे-छोटे बाल हैं। पर जब वह नजरों से ओझल रहती 
					तो मैं उसके बारे में सोचता। तब वह मुझे सुंदर दिखती। ऐश्वर्या 
					राय जैसी सुंदर दिखती। तब उसकी मूंछों के रोयें गायब होते, 
					आँखें हल्की नीली और बड़ी-बड़ी होतीं। रंग साँवला नहीं, बल्कि 
					बेहद साफ और गोरा होता। जब भी वह सामने नहीं होती, वह मुझे 
					किसी ग्रीक देवी जैसी दिखती। पर जब सामने होती तो बदसूरत 
					दिखती। उसके सामने खड़ा मैं सोचता कि लेजर मशीन से मूंछों के 
					बाल हमेशा-हमेशा के लिए साफ करवा ले तो भी यह सुंदर नहीं 
					लगेगी।
 
 उसी हफ्ते, लगभग अचानक, पूरा शहर ‘लेजर शो’ के विज्ञापनों से 
					पट गया था। हमारे इस शहर-यानी पुराने कस्बे- के लिए यह एकदम नई 
					चीज थी। हमने इसे नहीं देखा था। सुना भी पहली बार था। ‘लेजर 
					शो। के पोस्टरों को करीब-करीब हर मोहल्ले-कॉलोनी-सेक्टर-बिहार 
					की मुख्य दीवारों पर देखा जा सकता था। फिर शहर के ‘केबल 
					टी.वी.’ पर, लोकल ‘दैनिकों’ में, जीपों-लाउडस्पीकरों पर लेजर 
					शो के विज्ञापन आने लगे। विज्ञापनों ने चारों तरफ हवाओं में 
					सनसनी-सी भर दी थी।
 
 पूरा शहर ‘लेजर शो’ की चर्चा में उलझ गया। ‘लेजर शो’-मशीन से 
					पैदा की गई तेज किरण-रेखाओं के सहारे एक रंगीन दुनिया रचने 
					वाला जादुई शो....‘है भी’ और ‘नहीं भी’ का एक अद्भुत संगम।....
 
 नेहा के घर कम्प्यूटर आ गया था। इंटरनेट कनैक्शन भी ले लिया 
					गया था। उसने मुझे ‘ई-मेल’ से बताया। क्रिसमस की छुट्टियाँ 
					शुरू हो गईं तो मैं ने उसे संदेश भेजा-‘डोंट फॉरगेट टु एन्जॉय 
					सनी वैदर ऑन कमिंग संडे नून. आई विल बी ऑन माई रूफ।’
 
 उसने ‘ई-मेल’ से स्वीकृति भेजी-‘ओ.के.।’
 पर संडे को इतनी धुंध पड़ी कि धूप दिखी ही नहीं। देर तक छत पर 
					ठिठुरने के अलावा कुछ भी हाथ नहीं आया। धूप सेंकने के बहाने वह 
					छत पर नहीं आ सकी। मुझे बहुत गुस्सा आया। मौसम पर नहीं, नेहा 
					पर गुस्सा आया।
 
 मुझे पक्का लगने लगा कि जिसे मैं संदेश भेजता हूँ, वह नेहा 
					साहनी नहीं है। वह कहीं कोई और है। मुझे टी.वी. विज्ञापनों में 
					आने वाली सुंदर-सुंदर मॉडल मेरे ‘ई-मेल’ का उत्तर देती दिखतीं। 
					सुंदर-सुंदर मॉडल! मेरे इतनी पास ! मुझसे कितनी दूर। जो ‘है 
					भी’ और ‘नहीं भी।’
 
 मुझे याद आने लगा कि नेहा बचपन में बीमार-सी रहती थी उसे 
					प्रायः जुकाम तो रहता ही था। छींके बहुत मारती थी। एक बार उसे 
					दस्त और उल्टियों का दौरा पड़ा था तो मेरे पापा उसे और उसकी माँ 
					को अपने स्कूटर पर बैठाकर अस्पताल ले गए थे। तब तक इस शहर में 
					प्राइवेट नर्सिंग होमों की बाढ़ नहीं आई थी। साहनी अंकल तब 
					दूसरे शहर में चौकी-इंचार्ज थे। उनके परिवार को हमारे परिवार 
					का बहुत सहारा था। एक बार बाजीगर की जगह मोहल्ले में एक सँपेरा 
					आया था। बीन के आगे नाचते साँप को अचानक उसने हाथ मारकर एक तरफ 
					फेंक दिया था। हम सब बहुत डर गए थे और इस नेहा का पेशाब निकल 
					गया था।
 
 यह नहीं हो सकती। मैं इसे संदेश या प्रेम-पत्र नहीं भेज सकता। 
					वह कहीं कोई और है। ऐश्वर्या राय जैसी....या उससे भी सुंदर, 
					बहुत ही दिव्य....कोई और....।
 
 कोई और- जिसे बचपन में जुकाम नहीं रहता था, जिसे कभी 
					उल्टी-दस्त नहीं हुए, जिसका साँप से डरकर पेशाब नहीं निकला...। 
					कहीं और, कोई और...दिव्य ! भव्य !!
 
 ‘लेजर शो’ की शाम पास आती जा रही थी। क्रिसमस का त्यौहार बीत 
					गया था। नई सदी का एक और नया साल ढोल बजाता, नाचता-गाता आँखों 
					में चमक लिए पास आ रहा था। इस पुराने कस्बे का नया सम्पन्न 
					तबका कुछ सालों से नए साल का जश्न मनाने लगा था।
 
 मैंने ‘इंटरनेट-कैफे’ में ‘ई-मेल’ भेजने-देखने की बजाय सनसनाती 
					उत्तेजना के शाश्वत उपादानों पर समय बिताना शुरू कर दिया था। 
					मेरे सहपाठियों के बताए कुछ ‘प्राइवेट’ व ‘गुप्त’ स्वभाव वाले 
					‘बेवसाइटों’ को एन्जॉय करते-करते एक दिन मैंने ‘ई-मेल’ को चैक 
					किया। मैंने सोचा था कि नेहा के कई संदेश आए मिलेंगे, पर सब 
					खाली था। एक तो उस दिन छत पर नहीं और ऊपर से ‘सॉरी’ तक नहीं 
					बोला। अपने आपको समझती क्या है? हूर की परी? मैं गुस्से से 
					भरता चला गया। तेरे जैसी सौ देखी हैं मैंने।... मैंने ‘कम्पोज’ 
					क्लिक करके फटाफट टाइप करना शुरू किया- आई डोंट लव यू। आई 
					थिंक, आई लव सम वन एल्स। टाइप करके मैंने उसे यह ‘अंतिम संदेश’ 
					ई-मेल कर दिया।
 
 लेजर शो की शाम आन पहुँची। बाजीगर उस दिन भी पहले की ही तरह 
					अचानक और जीता जागता आया था। उसके विज्ञापन आगे-आगे चलते नहीं 
					आए थे। उसकी लड़की अब बड़ी हो चुकी थी, पर अब भी उसने अपनी देह 
					पर ढोल टांगा हुआ था। दोनों स्तनों के बीच से गुजरती ढोलक की 
					रस्सी ने उसके उभारों को और ज्यादा स्पष्ट कर दिया था। वह नेहा 
					से ज्यादा सुंदर थी, पर दिव्य नहीं थी। लंबे-चौड़े चौक पर बहुत 
					भीड़ हो गई थी। सारा शहर उमड़ पड़ा था। होटल की पार्किंग पहले ही 
					‘फुल’ हो चुकी थी, दुकानों के बाहर कारें ही कारें खड़ी थीं। 
					रिक्शॉ, ऑटो, टैम्पो, जीपें सवारियों को उतार-उतार कर जा रहे 
					थे। आसपास का देहात भी शहर के चौक की तरफ उमड़ा आ रहा था। चौक 
					के पूरे मैदान पर लोग ही लोग नजर आ रहे थे। कुछ दूर तक ढोलक की 
					थाप और पापी पेट के सवाल की गूँज सुनाई पड़ी तो कुछ लोग मजमा 
					लगाकर घेरे में खड़े हो गए। भीड़ ‘लेजर शो’ देखने आई हुई थी। 
					लोगों की समझ नहीं आ रहा था कि किस तरफ मुँह करके खड़े हों। 
					‘स्टेज’ किस तरफ है ? पूरब की तरफ, पश्चिम की तरफ या बाजार की 
					तरफ ? पर बाजार तो चारों तरफ हें
 
 स्टेज अदृश्य थी। लाउड-स्पीकरों पर घोषणा की जा रही थी कि शुरू 
					होने में थोड़ी ही देर बाकी है। हर कोई सोच-सोचकर परेशान हो रहा 
					था कि जो शुरू होना है, वह क्या है, कहाँ है, कैसा है। कैसे 
					होगा ? कैसा होगा ?
 
 सर्दी बढ़ती जा रही थी, फिर भी मैकडॉनल्ड के सॉफ्टी काउंटर पर 
					लगी लाइन इतनी लंबी थी....इतनी लंबी थी कि खत्म होने में ही 
					नहीं आ रही थी।
 
 उधर छोटे से घेरे के बीच ढोलक की थाप पड़ी और बाँस गड़ गए। ‘पापी 
					पेट का सवाल’उठा और रस्सियाँ तन गईं, मटके बोरियों में से निकल 
					आए। चारों तरफ लगा मजमा आधी आँख से बाजीगर की गतिविधियाँ देख 
					रहा था और बाकी ड़ेढ़ आँख ‘लेजर शो’ की जादुई संभावना पर टिकी 
					थी।
 
 कुछ देर बाद बाजीगर रस्सी पर टहल रहा था। अपनी मेहनत के बल पर 
					वह हम लोगों की तुलना में काफी ऊँचा उठा हुआ था और संतुलन साधे 
					चल रहा था। कम खुराक और ज्यादा मेहनत के संगम से बाजीगर की 
					पिंडलियों पर बनी पुरानी नीली गांठें अब और भी ज्यादा फूल गई 
					थीं। पहले से ज्यादा बदसूरत हो गई थी। मैं उन गाँठों को देखकर 
					दूसरी तरफ देखने लगा।
 
 वह खाली हाथ, खाली सिर था और जमीन से लगभग छह फुट की ऊँचाई पर 
					तनी हुई रस्सी परपैर रख-रखकर चल रहा था। लड़की ढोलक बजा रही थी। 
					ढोलक की थाप और बाजीगर की चाल एक लय में बँधी हुई थी। लड़की ने 
					उसे मटके पकड़ाने शुरू किए। वह हर बार नए-नए पकड़े मटकों के साथ 
					रस्सी पर टहलता, करतब दिखा रहा था। लोग बार-बार पीछे मुड़-मुड़कर 
					या चारों तरफ देख रहे थे कि ऐसा न हो कि ‘लेजर शो’ शुरू हो जाए 
					और उन्हें पता ही न चले....
 
 सूरज डूबने वाला था और सूरज डूबने के क्षण से ‘लेजर शो’ की 
					शुरुआत होनी थी। लोग उत्सुक और परेशान-से थे। वे सूरज डूबने का 
					इन्तजार कर रहे थे क्योंकि वे लेजर शो देखना चाहते थे। बाजीगर 
					के जीते-जागते खेल में उनकी रुचि बड़ी तदर्थ किस्म की थी- जब तक 
					लेजर शो शुरू हो, तब तक यही सही... उनकी साँस लेजर शो पर टिकी 
					हुई हो जैसे।
 
 लोग भौंचक्क थे कि उन्होंने तालियाँ नहीं बजाईं, पर चारों तरफ 
					अचानक तालियों की गड़गड़ाहट गूँज उठी थी। ढोलक की थाप कुछ क्षणों 
					के लिए भटक गई। बाजीगर ने मुश्किल से अपना संतुलन सँभाला। 
					तालियाँ धरती पर नहीं बज रही थीं, वे तो आसमान में कही बज रही 
					थीं। लोग बाजीगर के चारों ओर खड़े थे, पर वे बाजीगर को नहीं देख 
					रहे थे। वे हक्के-वक्के थे। वे चारों तरफ देख रहे थे, यानी 
					कहीं भी नहीं देख रहे थे।
 
 बाजीगर पाँच मटकों के साथ रस्सी पर चल रहा था- दो हाथों में, 
					तीन सर पर। काम जैसे दुगना हो और चिन्ताएँ तिगुनी। वह संतुलन 
					साधे तमाम खतरे मोल लेता हुआ उस तनी हुई रस्सी पर चल रहा था। 
					यह वही क्षण था, जिसमें बचपन में हम अपनी धुकधुकी पर काबू नहीं 
					रख पाते थे। नेहा तो थरथर काँपने लगती थी और डर से अपनी आँखें 
					बंद कर लेती थी, जैसे आँखें बन्द करने से ही बाजीगर की (या हम 
					सबकी) सुरक्षा सुनिश्चित हो पाती हो !
 
 आज नेहा नहीं थी-न बचपन में, न मैकडॉनल्ड के सॉफ्टी काउंटर की 
					लाइन में, न अपने घर की छत पर, धूप में, न इंटरनेट कैफे में, न 
					‘ई-मेल’ में, न मेरे दिल-दिमाग में, न मेरी दुनिया में। वह 
					नहीं थी क्योंकि वह सुंदर नहीं थी। सूरज डूब रहा था। उल्टी 
					गिनती चल रही थी। लेजर शो शुरू होने वाला था।
 
 फिर से तालियों की वही आसमान गुंजाती गड़गड़ाहट। लोग तालियाँ 
					नहीं बजा रहे थे, वे तो उत्सुक और भौचक्क चारों तरफ देख रहे 
					थे। अदृश्य मशीनें तालियों की भारी गड़गड़ाहट आसमान से धरती पर 
					फेंक रही थीं। तभी फाइव स्टार होटल की छत से कहीं से एक लंबा 
					चमकीला शहतीर उठा तेज संगीत घुमड़ा....
 
 वह चमकीला शहतीर, रोशनी के हीरों से बना दिव्य शहतीर, घूमता 
					हुआ, बाजीगरी करता-सा नीचे की तरफ आने लगा...
  और 
					पाँच मटकों और पापी पेट का बोझ उठाकर रस्सी पर चलते उस बदसूरत 
					बाजीगर से आ टकराया.....और टकराकर सहजता से आगे निकल गया। उसी 
					क्षण हजारों साल पुराना संतुलन बिगड़ा, बाजीगर औंधे मुँह जमीन 
					पर आ गिरा। मटके और सिर, सब कुछ ठीकरे-ठीकरे हो गया। 
 लोगों ने यह सब नहीं देखा। उनकी नजरें तो अंधा कर डालने वाले, 
					आसमान बेधते उस जगमगाते शहतीर पर थीं...।
 ‘लेजर शो’ शुरू हो चुका था....।
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