वरिष्ठ कथाकारों की प्रसिद्ध कहानियों
के स्तंभ गौरवगाथा में मृदुला सिन्हा की कहानी
बेनाम
रिश्ता
चित्राजी निमंत्रण-पत्र के साथ
हाथ से लिखे मनुहार पत्र के हर अक्षर को अपनी नजरों से आँकती
उनमें अंतर्निहित भावों को सहलाने लगीं। कई बार पढ़े पत्र।
सोचा विवाह में इकट्ठे लोग पूछेंगे—मैं कौन हूँ? क्या रिश्ता
है शालिग्रामजी से मेरा? क्या जवाब दूँगी मैं? क्या जवाब देंगे
शालिग्रामजी? दोनों के बीच बने संबंध को मैंने कभी मानस पर
उतारा भी नहीं। नाम देना तो दूर की बात थी। बार-बार फटकारने के
बाद भी वह अनजान, अबोल और बेनाम रिश्ता चित्राजी को
जाना-पहचाना और बेहद आत्मीय लगने लगा था। कभी-कभी उसके बड़े
भोलेपन से भयभीत अवश्य हो जाती थीं और तब उस रिश्ते के नामकरण
के लिए मानो अपने शब्द भंडार में इकट्ठे हजारों शब्दों को
खंगाल जातीं। नहीं मिला था नाम। और जब नाम ही नहीं मिला तो
पुकारें कैसे? सलिए सच तो यही था कि उन्होंने कभी उस रिश्ते को
आवाज नहीं दी। रिश्ते के जन्म और अपनी जिंदगी के रुक जाने के
समय पर भी नहीं। जिंदगी के पुनःचालित होकर उसकी भाग-दौड़ में
भी नहीं।
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