हिन्दी-पत्रकारिता-के-पुरोधा:-गणेश-शंकर-विद्यार्थी
डॉ. प्रेमचन्द्र गोस्वामी
हिन्दी
पत्रकारिता के क्षेत्र में स्वर्गीय गणेश शंकर विद्यार्थी
ऐसे निर्भीक एवं प्रेरणाप्रद व्यक्तित्व के रूप में उभरे
थे जिन्होंने पत्रकारिता के उच्च आदर्शों एवं नए मानदंडों
की स्थापना की। विद्यार्थी जी का योगदान एक पत्रकारिता के
रूप में तो अद्वितीय था ही, वे एक राष्ट्रीय चरित्र से
ओतप्रोत स्वतंत्रता सेनानी भी थे, जिन्होंने अपनी लेखनी से
युवा पीढ़ी के अनेक पत्रकारों को स्वतंत्र पत्रकारिता के
लिए प्रेरित किया था।
गणेश शंकर विद्यार्थी की शिक्षा हालाँकि एन्ट्रेंस तक ही
हुई थी किन्तु उनका भाषा ज्ञान, देश-विदेश में घट रही
घटनाओं के प्रति जागरूकता तथा लेखन संबंधी अनुभव अद्वितीय
था। तत्कालीन राष्ट्रीय चेतना तथा भारतीय स्वतंत्रता
संग्राम की दिशा का अध्ययन करके उन्होंने पत्रकारिता के
क्षेत्र में प्रवेश करने का निश्चय किया। अपने पिता
जयनारायण जी की प्रेरणा से गणेश शंकर विद्यार्थी ने हिन्दी
के ’कर्मयोगी‘ तथा ’हितवाणी‘ और उर्दू के ’स्वराज्य‘ नामक
तत्कालीन लोकप्रिय पत्रों में लेख लिखे। आपका प्रथम लेख
हिन्दी पत्रकारिता के पुरोधा आचार्य पराड़कर जी ने अपने
पत्र ’हितवार्ता‘ में इस सदी के प्रथम दशक में प्रकाशित
किया था।
कोई इक्कीस वर्ष की उम्र में आचार्य महावीर प्रसाद
द्विवेदी के संरक्षण में गणेश शंकर विद्यार्थी ने
पत्रकारिता का विधिवत प्रशिक्षण लेना प्रारम्भ किया, जब
उनकी नियुक्ति ’सरस्वती‘ पत्रिका के सम्पादकीय विभाग में
हुई। ’सरस्वती‘ में रहकर उन्होंने द्विवेदी जी से
पत्रकारिता के अनेक गुर सीखे।
पत्रकारिता के क्षेत्र में उनकी रूचि तथा लेखनगति को देखकर
पत्रकार सुन्दरलाल ने अपने पत्र ’भविष्य‘ में तथा पं.
मदनमोहन मालवीय ने ’अभ्युदय‘ में उन्हें लिखने के लिए
आमंत्रित किया। विद्यार्थी जी ने इन पत्रों में भी अपनी
लेखनी का कमाल दिखाया।
गणेश शंकर विद्यार्थी एक कर्मयोगी पत्रकार थे। पराड़कर जी
की प्रेरणा से उन्होंने तत्कालीन हिन्दी के विकास में भी
भारी योगदान किया था। उन्होंने अनेक नए शब्दों तथा
मुहावरों का प्रयोग करके तत्कालीन हिन्दी को समर्थ बनाया।
कानपुर से प्रकाशित होने वाले पत्र ’प्रताप‘ के माध्यम से
गणेश शंकर विद्यार्थी के व्यक्तित्व में और अधिक निखार आना
शुरू हुआ और वे एक जागरूक, समर्थ तथा जुझारू पत्रकार के
रूप में प्रसिद्ध हुए। ’प्रताप‘ पहले साप्ताहिक था, किन्तु
समयान्तर से वह पत्र दैनिक हो गया। सन १९२० में उन्हें इस
पत्र का प्रधान सम्पादक नियुक्त किया गया।
’प्रताप‘ के अंकों में विचारोत्तेजक सम्पादकीय लिखकर तथा
स्वतंत्रता के प्रति अपना दृष्टिकोण प्रस्तुत करते हुए
उन्होंने एक प्रकार से जागरूक देशभक्तों में संगठनात्मक
शक्ति का संचार किया था। अतः अनेक युवा देशभक्त उनसे दिशा
निर्देश लेने तथा प्रेरणा प्राप्त करने के लिए ’प्रताप‘
कार्यालय में आया करते थे। दैनिक ’प्रताप‘ का कार्यालय उन
दिनों एक प्रकार से आजादी पर मर मिटने की तमन्ना रखने वाले
नवयुवकों का प्रेरक प्रशिक्षण केन्द्र बन गया था।
अंग्रेज सरकार विद्यार्थी जी की देशभक्तिपूर्ण विचारधारा
और संगठन-प्रेरणा से निरन्तर आतंकित रही थी। अनेक माध्यमों
से उन्हें प्रलोभन देने और डराने-धमकाने की कोशिश भी
तत्कालीन सरकार ने की, किन्तु वे निर्भीक और अपने
सिद्धान्त पर अडिग रहने वाले अद्भुत पत्रकार थे, जो कभी
अपने पथ से विचलित नहीं हुए।
पंडित बालकृष्ण शर्मा ’नवीन‘ ने, जो अपने समय के
सुप्रसिद्ध कवि एवं पत्रकार थे, ’आजकल‘ के मार्च १९५५ के
अंक में लिखा है- ’गणेश शंकर विद्यार्थी की यह विशेषता थी
कि वे नवयुवकों को परखना, उन्हें आश्रय देना व
अनुप्रमाणितकरना खुब जानते थे। उनके जीवन को सँवारना
उन्हें आता था। उनका चरित्र अद्भुत था। वे कभी किसी
प्रलोभन के सामने नहीं डिगे।
’नवीन‘ जी गणेश शंकर विद्यार्थी के निकट के मित्र एवं
सहयोगी थे। उन्होंने इसी लेख में आगे लिखा है--सन् १९१३ से
लेकर १९३० तक इस देश में ऐसा कोई राष्ट्रीय आन्दोलन नहीं
हुआ, जिसमें विद्यार्थी जी ने सक्रिय रूप से भाग लेकर उसका
प्रचार-प्रसार न किया हो।
पं. माखनलाल चतुर्वेदी जैसे सुप्रसिद्ध साहित्यकारों एवं
पं. बाबूराव विष्णु पराड़कर जैसे समर्थ पत्रकारों से
विद्यार्थी जी की अत्यंत घनिष्ठता थी। अतः ये उनसे निरन्तर
प्रेरणा लेते रहते थे। कहते हैं कि देशभक्त क्रांतिकारी
युवक भगतसिंह भी ’प्रताप‘ कार्यालय में आकर विद्यार्थी जी
से प्रेरणा प्राप्त करते थे।
गणेश शंकर विद्यार्थी हिन्दी पत्रकारिता के शुरूआती दौर के
प्रमुख पत्रकार थे, जो पत्रकारों की स्वतंत्रता, समाचार
पत्रों की स्वाधीनता तथा समाचार पत्रों के संगठन के लिए
सदैव जूझते रहते थे। वे चाहते थे कि विश्व के अन्य स्वाधीन
देशों की भांति भारत में भी स्वतंत्र पत्रकारिता की नींव
पड़े और समाचार पत्रों के संगठन खुलकर अपनी आवाज जनता तथा
सरकार तक पहुंचा सकें। अतः पत्रकारों के हित में कहीं भी
कोई सम्मेलन होता तो वे उसमें अवश्य ही भागीदारी करते थे।
तत्कालीन पत्रकार भी विद्यार्थी की योग्यता एवं प्रतिभा को
पहचानते थे। अतः गोरखपुर में सम्पन्न हुए साहित्य सम्मेलन
की अध्यक्षता के लिए उन्हें आमंत्रित किया गया। वहां
उन्होंने तत्कालीन हिन्दी समाचार पत्रों की अनेक समस्याओं
के हल करने व्यावहारिक सुझाव दिए, जिन्हें मानकर वे आगे
बढ़े।
हमारे देश में जब अंग्रेजों का दमनचक्र चल रहा था तब तक
गणेश शंकर विद्यार्थी ने कांग्रेस की सदस्यता भी ले ली थी।
अब उनका दायित्व दोहरा था। एक तो जागरूक पत्रकार के रूप
में तथा दूसरे कांग्रेस के नेता के रूप में। एक ओर अंग्रेज
भारतीय जनता पर अत्याचार कर रहे थे, तो दूसरी ओर
विद्यार्थी जी जैसे पत्रकार उनके अत्याचारों का अपनी
प्रखर लेखनी के जरिये कड़ा विरोध कर रहे थे। रायबरेली जिले
के किसानों पर अंग्रेजों ने गोलीबारी की, उसकी प्रतिक्रिया
स्वरूप लेख लिखने पर गणेश शंकर विद्यार्थी को सन् १९२० में
पहली बार जेल जाना पड़ा। उन्होंने बाद में भी एक स्वतंत्रता
सेनानी के रूप में जेल यात्राएँ कीं।
स्वतंत्रता संग्राम में एक पत्रकार के रूप में अपनी भूमिका
पर वे अक्सर पराड़कर जी से पत्रों के माध्यम से
विचार-विमर्श करते रहते थे। पराड़कर जी उन्हें जो परामर्श
देते थे, वे उसे सहर्ष स्वीकार करते थे। उन दिनों जब
अंग्रजों ने ’प्रताप‘ को बन्द करवाने की धमकी दी, तो उन
दोनों के मध्य पर्याप्त पत्राचार हुआ। पराड़कर जी उन्हें
सदैव योग्य सलाह देते थे। गणेश शंकर विद्यार्थी अपनी
निर्भीक पत्रकारिता और आदर्श व्यक्तित्व के कारण सदैव
मान-सम्मान के पात्र बने रहे। सन् १९३० के सत्याग्रह में
वे उत्तर प्रदेश के प्रथम ’डिक्टेटर‘ नियुक्त हुए।
सत्र १९२६ से १९३० तक वे उत्तर प्रदेश विधान सभा के सदस्य
रहे। वहां उन्होंने देश की जनता की भावना को अंग्रेज सरकार
के समक्ष रखा।
कांग्रेसी कार्यकर्ता और नेता होने के नाते वे महात्मा
गांधी की सीख पर चलने वाले थे। अतः वे यह भी चाहते थे कि
देश में साम्प्रदायिक एकता एवं सद्भाव बना रहे। इस हेतु वे
सदैव प्रयत्नशील रहते थे। किन्तु अन्धी साम्प्रदायिकता कब
किसी महान व्यक्ति को पहचानती है। २५ मार्च, १९२९ को कुछ
मदान्ध सम्प्रदायवादियों ने उनकी हत्या कर दी। गणेश शंकर
विद्यार्थी शहीद हो गए, किन्तु उनके आदर्श जीवन की प्रेरणा
युगों तक हमारा मार्गदर्शन करती रहेगी।
२९ अप्रैल २०१३
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