एक दिन मैं बारहवीं कक्षा में
गया तो कमरे में शराब की बदबू आई। मैंने एक-एक कर सारे
बच्चों का निरीक्षण किया तो संदीप शराब पिये हुए मिला।
संदीप गाँव के नम्बरदार जगरूप सिंह का इकलौता पोता था।
मैंने उसे कक्षा से बाहर कर दिया और अगले दिन अपने पिता को
बुला लाने की हिदायत दे दी। दो घंटे ही बीते थे कि वह अपने
दादा के साथ फिर हाजिर हो गया।
नम्बरदार जगरूप सिंह ने अभिवादन के बाद पूछा-‘‘मास्टर जी,
संदीप कह रहा था आपने उसे स्कूल से निकाल दिया है और पिता
को बुला लाने को कहा है। इसका पिता तो दिल्ली गया है, मुझे
बताइये क्या बात है।’’
मैंने उन्हें कुर्सी पर बैठने का इशारा करते हुए
कहा-‘‘नम्बरदार साहब, स्कूल में अनुशासन होता है, कुछ
कायदे-कानून होते हैं, जिनका बच्चों को पालन करना होता है,
लेकिन यह स्कूल में शराब पीकर आया है। इससे स्कूल का
अनुशासन तो भंग होता ही है, दूसरे बच्चों पर भी बुरा
प्रभाव पड़ता है। ऐसे में हम इसे स्कूल में नहीं रख सकते।
आप चाहें तो प्रधानाचार्य से मिल लें।’’
नम्बरदार बोले-‘‘मास्टर जी, इसमें इस बच्चे का कम और मेरा
अधिक दोष है। जब यह पैदा हुआ तो मैंने खूब जश्न मनाया। एक
माह तक रोज शराब-कबाब के दौर चले। कुआँ पूजन वाले दिन तो
मुजरे के लिए मैंने तवायफें भी बुलाई, हजारों मुर्गे और
बकरे जान से गए और शराब की तो नदियाँ बहा दी थी मैंने।
मेरे उन बुरे कर्मों के कारण इसे शुरुआती संस्कार ही बुरे
मिले। हो सकता है नशे की हालत में इसे कभी एकाध बूँद पिला
भी दी हो। जब हमारे ही कर्म ऐसे थे तो यह भी सीख गया। मेरी
आपसे विनती है कि इसे स्कूल से मत निकालो। मेरे गुनाहों की
सजा इस बच्चे को मत दो। मैं मानता हूँ मैंने गुनाह किया है
और उसकी सजा भी मुझे मिल रही है। मेरी आँखों के सामने ही
मेरा वंश बर्बादी की ओर बढ़ रहा है और मैं कुछ नहीं कर
सकता। इससे बड़ी सजा और क्या होगी ?’’
इतना कहकर नम्बरदार फफक-फफक कर रो पड़ा।
६ मई २०१३ |