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रियाध के पार दुबई में
मीनाक्षी धन्वंतरि
आकाश के आँचल में सोया
सूरज अभी निकला भी न था कि हम निकल पडे। अपने नीड़ से। अपने
हरे भरे कोने में खिले फूलों को मन ही मन अलविदा कर के मेन
गेट को बन्द किया।
बड़ा बेटा वरूण वाकमैन और कैमरा हाथ में लेकर पिछली सीट पर
बैठा। छोटा बेटा विद्युत अभी भी नींद की खुमारी में था
फिर भी अपनी सभी ज़रूरत की चीज़ों पर उसका ध्यान था। नींद
से बोझिल आँखों में उमंग और उल्लास की लहरें हिलोरें मार
रही थीं।
बच्चों की प्यारी मुस्कान मेरा
मन मोह रही थी। पतिदेव
विजय भी सदा लम्बी ड्राइव के लिए तैयार रहते हैं लेकिन
दुबई की यात्रा का यह पहला अनुभव था। कब शहर से दूर
रेगिस्तान में आ गए पता भी न चला। दूर तक जाती काली लम्बी
सड़क पर बढ़ती कार क्षितिज को छूने की लालसा में भागी चली जा
रही थी। कुछ ही पल में सूरज बिन्दिया सा धरती के माथे पर
चमक उठा और चारों दिशाएँ क्रियाशील हो उठीं।
बार्डर
पर औपचारिकताएँ निभाकर हमने चैन की साँस ली। सोचा अब दुबई
दूर नहीं। दुबई देखने की भूख ने पेट की भूख को मिटा दिया था।
रेगिस्तान पार करके पहुँचे समुन्दर के किनारे किनारे और
आनन्द लेने लगे हरे भरे दृश्यों का। मैं हमेशा सोचती हूँ
कि रेगिस्तान को हरा करके इन्सान ने प्रमाणित कर दिया कि
वह चाहे तो क्या नहीं कर सकता ''चिलचिलाती धूप को भी
चाँदनी देवें बना''
आबूधाबी शहर को पार करते ही दुबई का वैभव बाँहें फैला कर
स्वागत के लिए खड़ा था। ऊँची ऊँची अट्टालिकाएँ गर्व से सिर
उठाए अपने रूप से सबका मन मोह रही थीं। जंतर मंतर की भूल
भुलैया जैसी दुबई की सड़कें हमें घुमा फिरा वापिस एक ही जगह
पहुँचा रही थीं। हवाई
अड्डे के आसपास ही होटल था लेकिन हम वहाँ पहुँच ही नहीं पा
रहे थे।
पेट में चूहे कूदने लगे और हमने करांची रेस्टोरेंट में बैठ
कर गोल गप्पे भेलपूरी और समोसों का स्वाद लेने का निश्चय
किया। नीले आकाश के नीचे खुले में खाने का मज़ा ही अलग आ
रहा था।अपने देश की याद आने लगी और गिनने लगे दिन कि कब
फिर जाना होगा। खोज
पूरी हुई और हमें दुबई इन्टरनेश्नल एयरपोर्ट के पास ही
दुबई ग्रैन्ड होटल मिल गया जहाँ हमारे रहने का प्रबन्ध था। अगले दिन एक नए उल्लास के साथ हम निकले।
वन्डरलैन्ड में पहला दिन झूलते झूलते ही गुज़र गया
लेकिन कुछ नया अनुभव नहीं
हुआ।
हाँ दुबई की लम्बी सुरंगों के दोनों ओर प्रकाश की कतारें
बरबस एक सुंदर सजीली दुल्हन की माँग का आभास करा देती थीं
जिसको अपने कैमरे में कैद करने का मोह हम नहीं छोड़ पाए।
शापिंग सेन्टरों में नया कुछ नहीं था और गोल्ड
बाज़ार तो जाने का कदापि मन नहीं था। मन को बाँधा तो ग्लोबल
विलेज ने जहाँ हम दो बार गए। लगभग चौबीस देशों की
सांस्कृतिक और व्यापारिक प्रर्दशनी एक साथ देख कर हमने
दाँतों तले उँगली दबा ली। सबसे बड़ी आश्चर्यजनक बात यह थी
कि पुलिस के कम से कम प्रबन्ध में सब कुछ शान्ति से चल रहा
था। अलग अलग देशों के लोगों को एक साथ आनन्द लेते देखा तो
मन कह उठा कि दुबई अरब देशों का स्विटज़रलैन्ड है जहाँ
दुनिया के कोने कोने
से लोग घूमने आते हैं और मधुर मीठी यादें लेकर जाते हैं।
दुबई के ग्लोबल विलेज में रात की चहल पहल का एक विहंगम
दृष्य जिसे हमने जायंट व्हील के ऊपर से अपने कैमरे में कैद
किया। दुबई जाकर कुछ खरीददारी न की जाए यह तो सम्भव नहीं
था हमने भी कुछ न कुछ खरीदा और मित्रों के लिए भी कुछ
खरीदा। और भोजन किया। भोजन के बाद हमने
सोचा कि क्यों न खुले आकाश के नीचे बैठ कर चित्रपट पर एक
हिन्दी फिल्म देखी जाए। बच्चों के लिए भी यह एक नया अनुभव
था। कार में बैठ कर या बाहर कालीन कुर्सी पर बैठ कर फिल्म
का आनन्द लिया जा सकता था। ''चोरी चोरी चुपके चुपके'
'फिल्म बच्चों को कम आनन्द दे पाई थी लेकिन
आकाश के नीचे बैठ कर लोगों का खाना पीना और मीठी सी सर्दी
में कम्बलों में दुबक कर बैठना उन्हें अधिक अच्छा लग रहा
था।
अगले दिन रियाद लौटने की तैयारी होने लगी पर मन दुबई में
ही रम गया। होटल के स्विमिंग पूल से बच्चे निकलने का नाम
ही नहीं ले रहे थे। फिर से आने का वादा कर उन्हें कार में
बिठाया किन्तु प्यास अभी भी थी दुबई को सिर्फ चार दिन में
देखना सम्भव नहीं था। घूँघट की ओट से जैसे दुल्हन के रूप
की हल्की सी झलक देख कर लौट जाना वैसे ही हम दुबई के रूप
की हल्की-सी झलक देख कर लौट आए फिर से उसके सौन्दर्य को
देखने की लालसा पाल कर।
१५ मई २००१ |