नवगीत परिसंवाद-२०१२ में
पढ़ा गया शोध-पत्र
गीत के विकास में बिहार का योगदान
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नचिकेता
कविता अगर मनुष्यता की
मातृभाषा है तो गीत मानवीय संवेदना का अर्थसंपृक्त
शब्द संगीत। गीत की रचना का सम्बन्ध हर हाल में लोकमन
की गति से होता है। इसलिए गीत में लोकमन के सुख-दुख,
उत्सव-आनन्द, हँसी-खुशी, अवसाद-उल्लास, आशा-आकांक्षा,
उत्साह-उमंग, जय-पराजय, जीवन-संषर्ष और मुक्ति-संघर्ष
की सच्ची अभिव्यक्ति होती है। स्वतंत्रता-आन्दोलन के
बाद के जन-आन्दोलनों के विकास में गीत-रचना ने
क्रान्तिकारी भूमिका निभाई है और इस दौरान गीत का
गुणात्मक विकास हुआ है। जाहिर है कि जन-आन्दोलन में
जनता के मन की या कहिए कि लोकमन की एक विशेष गति की
अभिव्यक्ति होती है। अच्छे गीत उस गति को अभिव्यक्त
करते हैं और उसे शक्ति भी देते हैं। कहने का तात्पर्य
है कि जन-आन्दोलनों में गीत पैदा होते हैं और
जन-आन्दोलनों को गति और शक्ति देने में सार्थक भूमिका
निभाते हैं।
नामवर सिंह के अनुसार जिस साहित्य में काव्योत्कर्ष के
मानदण्ड प्रबन्ध-काव्य के आधार पर बने हों और जहाँ
प्रबंध-काव्य को ही व्यापक जीवन के प्रतिबिम्ब के रूप
में स्वीकार किया गया हो, उसकी कविता का इतिहास
मुख्यतः प्रगीत मुक्तकों का है। यही नहीं बल्कि गीतों
ने जन-मानस को बदलने में क्रान्तिकारी भूमिका अदा की
है। आगे वह मानते हैं कि यदि विद्यापति को हिन्दी का
पहला कवि मान लिया जाय तो हिन्दी कविता का उदय ही गीत
से हुआ, जिसका विकास आगे चलकर संतों और भक्तों की वाणी
में हुआ। गीतों के साथ हिन्दी कविता का उदय कोई
सामान्य घटना नहीं, बल्कि एक नयी प्रगीतात्मकता,
लिरिसिज्म के विस्फोट का ऐतिहासिक क्षण है, जिसके
धमाके से मध्य-युगीन भारतीय समाज की रूढ़ि-जर्जर
दीवारें हिल उठीं, साथ ही जिसकी माधुरी सामान्य जन के
लिए संजीवनी सिद्ध हुई। कहने की आवश्यकता नहीं है कि
हिन्दी कविता का उदय बिहार की पयस्विनी धरती पर ही हुआ
है।
विद्यापति के मधुर गीतों के साथ जिस हिन्दी कविता की
विकास-यात्रा आगे बढ़ी है उसमें कई समयसापेक्ष,
युगसापेक्ष और समाजसापेक्ष पड़ाव आये हैं तथा हर पड़ाव
पर बिहार के गीत-रचनाकारों ने प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष
रूप से अपनी दमदार मौजूदगी दर्ज की है। भारतेन्दु युग
या महावीर प्रसाद द्विवेदी अथवा मैथिलीशरण गुप्त का
काल यानी हर काल में गीत-रचना अपनी माधुरी और
ऊर्जा-विस्फोट से सामाजिक चेतना में क्रान्तिकारी
परिवर्तन लाने के लिए संघर्ष करती रही है। मोहन लाल
महतो वियोगी के वार्णिक छन्द में लिखे गीतों ने अपनी
अलग पहचान बनाई है।
आधुनिक हिन्दी गीत-रचना को असली चेहरा और पहचान
छायावाद के दौर में ही हासिल हुआ है। गीत के लिहाज से
इस काल के वृहद् चतुष्टय-निराला, जयशंकर प्रसाद,
सुमित्रानन्दन पंत और महादेवी वर्मा के बाद अगर पाचवाँ
नाम लेना होगा तो, निस्संदेह वह नाम आचार्य जानकी
वल्लभ शास्त्री का ही होगा। हालाँकि जानकीवल्ल्भ
शास्त्री के साहित्य जगत में पदार्पण के समय तक
छायावाद दम तोड़ने लग गया था और उत्तर छायावादी दौर के
अलमस्त गीतकार-चतुष्टय--हरिवंश राय बच्चन, नरेन्द्र
शर्मा, रामधरी सिंह दिनकर, रामेश्वर शुक्ल अंचल-के
अलावा माखनलाल चतुर्वेदी, भगवती चरण वर्मा, गोपाल सिंह
नेपाली, केदारनाथ मिश्र प्रभात, आरसी प्रसाद सिंह और
थोड़ा बाद के नीरज के गीतों ने गीत-रचना के क्षेत्र में
आयी गुणात्मक तब्दीली का संकेत देना शुरू कर दिया था।
आचार्य जानकीवल्लभ शास्त्री की रचनात्मक मनोभूमि
छायावाद के अधिक करीब और उत्तर छायावाद से थोड़ा भिन्न
दृष्टिगोचर होती थी। संभवतः इन्हीं कारणों से आचार्य
जानकी वल्लभ शास्त्री को अपने समकालीन अन्य गीतकारों
की अपेक्षा उचित और अपेक्षित मान्यता नहीं मिली और न
ही आलोचकों ने इनके गीतों की गहराई से आज तक संजीदा
पड़ताल ही की। कुमारेन्द्र पारसनाथ सिंह का अति गंभीर
निष्कर्ष है कि छायावाद काल के जो रचनाकार गीत-रचना के
क्षेत्र में अपनी विशिष्ट पहचान बनाकर चलने में समर्थ
हुए और आज भी रचना-कर्म से जुड़े चल रहे हैं, उनमें
नरेन्द्र शर्मा और जानकीवल्लभ शास्त्री का नाम पहले
आता है। ये दोनों ही विशुद्ध भारतीयता के रंग में भी
शास्त्रीयता की जमीन पर खड़े हैं और प्रगतिशील चेतना से
लैस होने के बावजूद न तो प्रगतिवाद की सीमा में आते
हैं, न ही जनवाद की बल्कि इनका बिलकुल अलग ही आधार है।
जहाँ नरेन्द्र शर्मा ने चलचित्र, आकाशवाणी और दूरदर्शन
से जुड़े रहकर भी सृजन की दुर्निवार भूख की बदौलत
गीत-रचना के सम्मुख कुछ उत्कृष्टतम उदाहरण प्रस्तुत
किये हैं वहीं एकान्त साधना में लीन जानकीवल्लभ
शास्त्री ने गीतों की मुखर अमरता को एक नया मिथक
प्रदान किया है। शास्त्री के गीतों की जमीन पर अंत तक
स्वर और सुर की लयात्मक एकता का प्रश्न है। वे निराला
की कला-चेतना के अर्थपूर्ण विकास-क्रम के अंतिम और
संभवतः अन्यतम बिन्दु हैं। हिन्दी गीत का इतिहास इन
दोनों के अवदान को रेखांकित किये बगैर अधूरा ही रह
जायेगा।
आचार्य जानकी वल्लभ शास्त्री के समकालीन गीतकारों में
रामधारी सिंह दिनकर, केदारनाथ मिश्र प्रभात, गोपाल
सिंह नेपाली, श्याम नन्दन किशोर, आरसी प्रसाद सिंह,
रामगोपाल शर्मा रुद्र, कलक्टर सिंह केशरी, जनार्दन
प्रसाद झा ‘द्विज’, रामदयाल पाण्डेय, हंसकुमार तिवारी,
अवधभूषण मिश्र, गुलाब खण्डेलवाल, विंध्यवासिनी दत्त
त्रिपाठी, जितेन्द्र कुमार प्रभृति का नाम प्रमुखता से
शुमार किया जा सकता है। गीतों की वैचारिक अंतर्वस्तु
और प्रभावी अंतर्वस्तु, बनावट और बुनावट एवं
अभिव्यक्ति-भंगिमा के धरातल पर इन सभी गीत कारों में
काफी भिन्नताएँ हैं। रामधारीसिंह दिनकर मूलतः
राष्ट्रीय चेतना के ओजस्वी कवि के रूप में जाने जाते
है। इन्होंने कुछ अच्छे गीत भी लिखे हैं, जिनमें उत्तर
छायावादी उल्लास, उमंग तथा मस्ती का स्वर छलछलाता हुआ
दिखलाई देता है। रामविलास शर्मा को निराला के बाद
दिनकर की काव्यभाषा में ही सबसे ज्यादा मेघ-मंद्र स्वर
सुनाई देता है।
राष्ट्रीय चेतना के
लिहाज से गोपाल सिंह नेपाली दिनकर के बाद दूसरे
महत्वपूर्ण गीतकार हैं, बल्कि एक सफल गीतकार के रूप
में नेपाली दिनकर से अधिक उल्लेखनीय हैं। गोपाल सिेह
नेपाली के गीतों का फलक और परिदृश्य तथा अनुभूति की
संरचना दिनकर के गीतों की तुलना में अत्यधिक व्यापक और
गहरा है। राष्ट्रीय चेतना के अलावा नेपाली के गीतों
में प्रेम, प्रकृति और सौन्दर्य के अनगिनत बेल-बूटे
कढ़े हैं, जिनकी चमक आज भी मद्धिम नहीं पड़ी है। दिनकर
और नेपाली दोनों के गीतों में तत्कालीन राजसत्ता और
वर्ग-विभाजन पर आधारित समाज-व्यवस्था के अंतर्विरोधों,
शोषण, दमन और उत्पीड़न के खिलाफ तीव्र प्रतिरोध का स्वर
है। दिनकर जहाँ मुनादी के स्वर में घोषित करते हैं कि
हटो व्योम के मेघ पंथ से स्वर्ग लूटने हम आते हैं/
दूध-दूध ओ वत्स! तुम्हारा दूध खोजने हम जाते हैं, तो
नेपाली का मेघ-मंद्र उद्घोष था कि जब-जब जनता पर दुख
की बदली छाई है/ तब-तब हमने विप्लव-बिजली चमकाई है/
मानवता का परिहास बदलने वाले हैं/ हम तो कवि हैं,
इतिहास बदलने वाले हैं। श्याम नन्दन किशोर के गीतों का
रचना-परिदृश्य नेपाली जितना व्यापक और विस्तृत नहीं
हैं, लेकिन उनमें जवानी की मस्ती कूट-कूटकर भरी हुई
है-जवानी जिनके-जिनके पास/ जमाना उनका-उनका दास।
सर्वविदित है कि भक्ति-आन्दोलन के बाद हिन्दी कविता
व्यापक जन-सामान्य और श्रमजीवी वर्ग से प्रगतिवादी दौर
में पहली बार मुखातिब हुई अथवा व्यापक जन-आन्दोलन के
साथ गहरे स्तर पर जुड़ी। इस दौर की गीत-रचनाएँ
संघर्षशील जन-साधरण में काफी लोकप्रिय हुईं और व्यापक
जन-आन्दोलन एवं जन-संघर्षों को संगठित, उत्प्रेरित और
गतिशील करने में कामयाब भी। इस काल के कई गीत केवल
व्यापक जन-जीवन में लोकप्रिय ही नहीं हुए, जन-कंठों
में रचे-बसे और बेहद कारगर और पुरअसर नारे बन गये। इस
लिहाज से नागार्जुन, लालधुआँ, रमाकांत द्विवेदी
‘रमता’, कन्हैया बिहारी शरण, मथुरा प्रसाद ‘नवीन’ आदि
के गीत भी व्यापक जन-संवेदना के अनिवार्य अंग बन गये।
जयप्रकाश आन्दोलन के दौरान सत्यनारायण, गोपीवल्लभ
सहाय, परेश सिन्हा, बाबूलाल मधुकर आदि के गीतों ने
बहुत ही सकारात्मक भूमिका निभाई है।
स्वातंत्रयोत्तर हिन्दी
गीत के विकास में बिहार के गीतकारों का योगदान अन्यतम
है, बल्कि अविस्मरणीय और अद्वितीय कहें तो भी
अत्युक्ति नहीं होगी। स्वतंत्रता-प्राप्ति के बाद
भारतीय समाज में आधुनिकीकरण की प्रक्रिया की अत्यन्त
ही तीव्र गति से शुरूआत हुई, जिससे भारतीय जनजीवन की
सामाजिक चेतना में गुणात्मक तब्दीली आई एवं इस
परिवर्तित सामाजिक चेतना को अभिव्यक्त करने वाली
कला-संस्कृति के विभिन्न रूपों की वैचारिक और प्रभावी
अंतर्वस्तुओं में भी परिवर्तन के लक्षण परिलक्षित होने
लगे तथा इस परिवर्तित युगबोध और रचना-दृष्टि को
नये-नये नामों से पहचानने, परखने और पारिभाषित करने का
प्रयत्न किया जाने लगा। निराला के गीतों में आये बदलाव
के साथ ही तत्कालीन मदन वात्स्यायन, राजेन्द्र प्रसाद
सिंह, राजेन्द्र किशोर, श्यामसुन्दर घोष, रामनरेश पाठक
आदि गीत कारों के गीतों की वैचारिक और प्रभावी
अंतर्वस्तु भी बदलने लगी थी। इस बदलाव को पहली बार
राजेन्द्र प्रसाद सिंह द्वारा ‘नवगीत’ संज्ञा से
अभिहित कर पहचानने और परखने के पाँच-सूत्री
जीवन-दर्शन, आत्मनिष्ठा, व्यक्तित्वबोध, प्रीतितत्व और
कवि-सम्मेलन के मंचों और गंभीर साहित्य-चर्चाओं में
समान रूप से ख्याति हासिल हुई है। नवगीत से अपनी
गीत-यात्रा की शुरूआत करने वाली शान्ति सुमन को जनगीत
के पुरस्कर्ता गीतकार होने का गौरव प्राप्त है। ‘ओ
प्रतीक्षित’, ‘परछाई टूटती’, ‘मौसम हुआ कबीर’, ‘धूप
रँगे दिन’ जैसे उनके लगभग एक दर्जन नवगीत और जनगीतों
के संग्रह प्रकाशित हैं।
उनके गीतों की बनावट और
बुनावट की कलात्मकता पर विचार करते हुए मैनेजर पाण्डेय
इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि शान्ति सुमन के गीतों
का महत्व उनके विशिष्ट रचाव में है। लगता है कि लोकगीत
की आत्मा नई देह पा गई है या कि नई चेतना लोकगीत की
काया में समा गई है और शिवकुमार मिश्र मानते हैं कि
उनके गीतों से होकर गुजरना जनधर्मी अनुभव-संवेदनों की
एक बहुरंगी, बहुआयामी, बेहद समृद्ध दुनिया से होकर
गुजरना है, साधारण में असाधारण के, हाशिए की जिन्दगी
जीते हुए छोटे लोगों के जीवन-सन्दर्भों में महाकाव्य
के वृत्तान्त पढ़ना है। स्वानुभूति, सर्जनात्मक कल्पना
तथा गहरी मानवी चिन्ता के एकात्म से उपजे ये गीत अपने
कथ्य में जितने पारदर्शी हैं, उसके निहितार्थों में
उतने ही सारगर्भित भी। नचिकेता के शब्दों में शान्ति
सुमन के ये गीत, वास्तव में गुलाब की पंखुड़ियों पर
लिखी अग्नि-शलाका हैं, शबनम की लिपि में लिखी क्रान्ति
की कारिका हैं, और, हिन्दी जनगीत-रचना के क्षेत्र में
शान्ति सुमन, शायद पहली स्त्री-गीतकार हैं,जिनकी
रचनाएँ गीतबद्ध संघर्षशील जन-संघर्षों में जुझारू
मेहनतकश अवाम के द्वारा गाए गए हैं। मुझे यह मानने में
कोई संकोच नहीं है कि शान्ति सुमन का गीतकार हिन्दी
में महादेवी वर्मा के बाद का सबसे बड़ा स्त्री-गीतकार
है और पुरुष-गीतकारों में भी अग्रणी।
दूसरा महत्वपूर्ण नाम
सत्यनारायण का है। सत्यनारायण के गीतों का समसामयिक
जीवन-दर्शन, गहरा राजनीतिक बोध और अर्थ-गौरव उन्हें
समकालीन हिन्दी गीत-रचनाकारों की प्रथम पंक्ति में
शामिल कर देते हैं। सत्यनारायण के गीतों की भाषिक
सहजता और अनुभूति की संरचना की पारदर्शिता ऊपरी सतह से
देखने पर अकलात्मक लग सकती है, परन्तु तह में उतरते ही
उनके गीतों के अनेक अर्थानुषंग किसी भी सहृदय व्यक्ति
को अभिभूत कर देते हैं। उनके छोटे-छोटे चरण वाले छन्द
गौरैये की तरह फुदकते दृष्टिगोचर होते हैं। उनके गीतों
की वैविध्यभरी वस्तुगत दुनिया के अंतरंग साक्षात्कार
के मद्देनजर ही अवधेश नारायण मिश्र इस निष्कर्ष पर
पहुँचते हैं कि सत्यनारायण का गीत-सौन्दर्य नवगीत की
चारित्रिक विशिष्टता का मानक है। जीवन के बहुआयामी
तनावों, आतंकों, आदर्शहीन मूल्यों, अन्यायों एवं
विसंगतियों को लयमयी भाषा देकर नवगीतकार ने जिस
सौन्दर्य-दर्शन का विकास किया है उसमें कुरूपता,
असुन्दरता और खुरदुरापन को अधिक स्थान प्राप्त हुआ है।
सत्यनारायण के गीतों की अस्मिता भाषा की आन्तरिक
ऊर्जा, बिम्बों की रागदीप्त विविधता, लयों का आवर्तक
संयोजन, शब्दों का युगबोधी संस्कार और अनुभूति की
मौलिकता से निर्मित होती है और इन्हीं कारणों से उनके
नवगीत कविता की वरेण्यता हासिल करते हैं तथा समस्त
युग-सर्जना के प्रतिनिधि स्वर बन जाते हैं।
अपनी रागदीप्त विविधता
और अनुभूति की मौलिकता से कविता की वरेण्यता हासिल
करने वाले और समस्त युग-सर्जना के प्रतिनिध स्वर
सत्यनारायण अपने श्रेष्ठ समकालीन नवगीतकारों में सबसे
कम गीत लिखने वालों में भी संभवतः अपना दूसरा
प्रतिद्वन्द्वी नहीं रखते। लगभग पचपन वर्षों से नवगीत
के रचना-संसार को समृद्ध करने में क्रियाशील रहने के
बावजूद इनके अब तक ‘टूटते जल-बिम्ब’, ‘तुम ना नहीं कर
सकते’, ‘सभासद हँस रहा है’ और ‘सुनें प्रजाजन’ नामक
चार गीत-संग्रह ही प्रकाशित हैं। इसका यह मतलब हरगिज
नहीं है कि कम लिखने के कारण सत्यनारायण के गीतकार का
कद छोटा हो जाता है। पूजा के लिए ट्रकों में भरकर फूल
नहीं लाये जाते, वहाँ तो दो-चार टटके फूल ही काफी होते
हैं। यह विशेष रूप से उल्लेखनीय है कि सत्यनारायण के
परवर्ती गीतों की प्रखर सामाजिक चेतना और गहरा रानीतिक
बोध तथा जन-सरोकार उन्हें अनायास ही अन्य समकालीन
नवगीतकारों से बहुत ऊँचा उठा देता है।
शान्ति सुमन और सत्यनारायण के अलावा बुद्धिनाथ मिश्र,
हृदयेश्वर, यशोधरा राठौर और उदय शंकर सिंह उदय का नाम
राष्ट्रीय फलक पर दूर से ही दिखाई दे जाता है।
बुद्धिनाथ मिश्र के दो, ‘जाल फेंक रे मछेरे’ तथा
‘शिखरणी’, यशोधरा राठौर के तीन, ‘उस गली के मोड़ पर’,
‘जैसे धूप हँसती है’ एवं ‘भरेंगे परवाज के पैगाम
अक्षर’ और उदय शंकर सिंह उदय के दो ‘धूप में चलते हुए’
और ‘गीत फिर परचम हुए’ तथा हृदयेश्वर के तीन ‘आँगन के
इच-बीच’, ‘बस्ते में भूगोल’ और ‘यह देती धूप’ अब तक
प्रकाशित हो चुके हैं। इनके गीतों में आज के अत्यंत ही
संश्लिष्ट जीवन के अन्तर्विरोधों, विसंगतियों और
विद्रूपताओं की जटिल अनुभूतियों की समग्रता में
अभिव्यक्ति मिली है। बुद्धिनाथ मिश्र के गीतों में
व्यक्त सघन लोक-चेतना उनके गीतों में नई चमक पैदा कर
देती है।
समकालीन हिन्दी गीत का मुकम्मल चेहरा हिन्दी-परिवार की
अन्य भाषाओं, मसलन मैथिली, मगही, भोजपुरी, अंगिका,
बज्जिका आदि की गीत-रचनाओं की संजीदा और आत्मीय
अंतर्यात्रा किये बगैर नहीं उभर सकता है। इस लिहाज से
रवीन्द्रनाथ ठाकुर, धीरेन्द्र धीर, मार्कण्डेय
प्रवासी, शान्ति सुमन, बुद्धिनाथ मिश्र, सियाराम शरत,
चन्द्रमणि, बच्चा ठाकुर, मायानंद मिश्र, महेन्द्र,
अजित आजाद, विभूति आनन्द, स्वयंप्रभा झा, सुरेश दुबे
सरस, जयराम सिंह, जयप्रकाश सिंह, राजेन्द्र कुमार
यौद्धेय, घमंडी राम, बाबूलाल मधुकर, मिथिलेश, जयराम
देवसपुरिया, हरेन्द्र विद्यार्थी, पाण्डेय कपिल,
जगन्नाथ, रामनाथ पाठक प्रणयी, वेदनन्दन, चन्द्रप्रकाश
माया , विजेन्द्र अनिल, परमेश्वर दुबे शाहाबादी, गंगा
प्रसाद अरुण, रामेश्वर सिन्हा पियूष, पी. चन्द्र
विनोद, रामजीवन सिंह ‘जीवन’, परमानन्द पाण्डेय,
परमेश्वरी सिंह अनपढ़, अमरेन्द्र, आभा पूर्वे, नरेश
पाण्डेय चकोर आदि के गीतों के रचना-कौशल, काव्य-कला और
अर्थ-गौरव की जाँच-पड़ताल होनी चाहिए। |