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यात्रा संस्मरण

कामाख्या मंदिर1
मायावी कामरूप का रूप
सतीश जायसवाल


कहते हैं कि कामरूप की रूपसियाँ सम्मोहन जानती हैं। पुरुषों को वश में कर लेती हैं। फिर मेढ़ा बनाकर अपने पास रख लेती हैं। इस मेढ़ा का क्या करती होंगी- वध? कामाख्या में बलि प्रथा जीवित है। या फिर अपने एकांत में मेढ़ा को वापस पुरुष बनाकर अभिसार करती होंगी? सुना है, मांडवगढ़ के राजा जम्बे की बेटी तारामती भी ऐसा ही करती थी। उसने अपने पिता के शत्रु, ऊदल को तोता बनाकर अपने महल में छिपा रखा था। रात में तोता को वापस पुरुष बनाती और उसके साथ अभिसार करती थी। लेकिन मांडवगढ़ कामरूप तो नहीं?

कामाख्या के मंदिर में मैंने मेढ़ों के झुण्ड के झुण्ड देखे और कहे सुने को मिलाकर सच में बदलना चाहा कि हो न हो, ये सब के सब किन्हीं न किन्हीं रूपसियों के वशीभूत पुरुष होंगे जो सम्मोहन के प्रभाव से इस समय मेढ़ा बने हुये हैं। लेकिन मुझे वहाँ ऐसी कोई रूपसी दिखाई नहीं दी जो इस सच को प्रमाणित करती।

जहाँ से बंगाल लगता है, वहीं से मन एक तरह की भयासक्त प्रतीक्षा से बँध जाता है। बंगाल का जादू कामरूप के जादू से कहीं, कुछ कम है? उतना रास्ता तो अघटित पार हो गया। असल तो अब शुरू होना है। निर्भय भी हूँ कि कोई क्या बनायेगी मुझे मेढ़ा-वेढ़ा और कहाँ बाँधकर रख लेगी वहाँ? वापस लौटने के लिये, वैसे भी, अपने पास क्या धरा है? यहीं रह लेंगे।

न्यू जलपाईगुड़ी से चाय बागान रेल्वे लाइन पकड़ कर साथ चलने लगते हैं। इससे पहले जिसने चाय बागानों को कैलेण्डर के चित्रों में या फिल्मों में देखा होगा उसे इस बात से क्या लेना देना, हो सकता है कि इनमें कहाँ तक दार्जिलिंग प्रजाति की चाय उग रही है और कहाँ से असम का चाय क्षेत्र शुरू हो रहा है? अधिक से अधिक उसका मन इतना चाह सकता है कि यह दौड़ी भागी जा रही कामरूप एक्सप्रेस किसी चाय बागान के किनारे पहुँच कर ऐसे रुक जाए कि गहरे हरे रंग की इन पत्तियों को एक बार अपने हाथ से छूकर महसूस किया जा सके। कुछ समय और मिल जाए तो पौधों के बीच खिंचे रास्ते की लकीरों पर दौड़ते हुये जाकर उन स्त्रियों के पास तक पहुँच जाएँ, जो झुक कर पत्तियाँ तोड़ रही हैं और अपनी पीठ पर लटकती हुई बाँस की टोकरियों में एक-एक करके जमा करती चली जा रही हैं। हो सकता है कि एक आगंतुक को इस तरह अपने पास आया देखकर उनमें से कोई एक मुस्कराने लगे या फिर सब की सब मिलकर एक साथ हँसने लगें। बस इतने से भरोसा हो जाएगा कि यह दृश्य सचमुच के जीवन का है जो दूर से कितना दृश्य सदृश दिख रहा था?

मैदानी आँखों के लिये चाय बागान, सचमुच, दृश्य का जीवन में रूपांतरण है। कारबी आँगलाँग स्वायत्त परिषद वाले क्षेत्र की तरफ से, जो कि ऊपरी असम है, जोरहाट, शिवसागर, डिब्रूगढ़ होते हुये गुवाहाटी के रास्ते में दृश्य का जीवन में यह रूपांतरण अनंत हो जाता है। यह सारा का सारा रास्ता सड़क का है। बसें चाय बागानों से इतना सटकर चलती हैं कि लगता है जैसे हम सड़क पर नहीं बल्कि चाय बागानों के भीतर से होकर निकल रहे हैं। बस की खिड़की से अपने हाथ बाहर निकाल कर हम गहरे हरे रंग की पत्तियों को छू सकते है। और तो और, चाहे तो, तोड़कर अपनी हथेलियों पर रख भी सकते है। असम के चाय बागानों के बीच से इस तरह गुजरते हुये, मेरा मन, न जाने कैसे छत्तीसगढ़ से पलायन के सौ बरस पुराने हो चुके इतिहास की लीक पकड़ने को आमादा हो उठता है।

असम के पर्वत सौम्य हैं। इनमें, सूर्यस्नान करती हुई, अनावृत स्त्री देह की तरह का आमंत्रण है। लगता है कि इनका स्पर्श भी वैसा ही स्निग्ध होगा। ऐसा लगता है, जैसे कोई इस अनावृत स्त्री देह को आकाशी वस्त्र पहना रहा है। पर्वत रेखा से लेकर क्षितिज तक धान के हरे भरे खेतों का विस्तार है। इनमें बीच बीच में बाँस की दीवारों छप्परों वाले घरों से सजी हुई बस्तियाँ ऐसी दिखती हैं जैसे जमीन से उगी हुई हों। मिट्टी मुरुम से खिंचे हुये रास्तों पर साइकल चलाते हुये लोग इस गाँव से उस गाँव को आना जाना कर रहे है। गाँव के बच्चे रेलगाड़ी को छूने के लिए कैसे दौड़ते हुये हमारी तरफ आ रहे हैं? फिर वहीं रुक जाते हैं और विश्वास अविश्वास के बीच, खड़े हो कर वहीं से अपने हाथ हिलाने लगते हैं कि कोई तो जवाब में अपने हाथ उनकी तरफ बढायेगा।

असम के चाय बगानब्रह्मपुत्र के पुल की घर्राहट सुनने की प्रतीक्षा में शाम पड़ गई। वही, जल्दी गहराने वाली पूर्व की काली घनी शाम, जो बंगाल प्रवेश के साथ हमसे आगे आगे भाग रही है। सामने, बांयी तरफ नीलाचल पर्वत शिखर पर कामाख्या का मंदिर रेल के डिब्बे से साफ दिखाई दे रहा है। मंदिर के शिखर पर रंग बिरंगी रोशनी वाली झालरें पड़ी हुई हैं जिनकी परछाईं ब्रह्मपुत्र की जल सतह पर उपक आई है। माँ के दर्शनों के लिये लोग आँखें मूँदकर और हाथ जोड़कर बायीं तरफ वाले दरवाजे और खिड़कियों पर झुक गये हैं। मुझे डर लगा कि कहीं इन सबके एक साथ झुकने को कामरूप एक्सप्रेस एकाएक न सम्हाल पाये और लोहे के पुल की रुपहली पट्टियों को तोड़ते फोड़ते सीधे ब्रह्मपुत्र के जल में जा पड़े। फिर याद आया कि बचपन के दिनों में प्रयागराज इलाहाबाद जाते थे तब यमुना के पुल की ऐसी ही प्रतीक्षा हुआ करती थी। ऐसे ही रेल के डिब्बे की खिड़कियों के साथ खड़े होकर पूरी ताकत से नदी की तरफ धकेल कर गाड़ी की मजबूती को आजमाया करते थे। हमारे वजन से गाड़ी पुल से नीचे नहीं गिर सकती।

गुवाहाटी से पहले, कामाख्या का अपना रेल्वे स्टेशन है और कामरूप एक्सप्रेस यहाँ ठहरती भी है। लेकिन, बाहर से आने वाले, मेरी तरह के लोग गुवाहाटी ही उतरते हैं। उत्तरप्रदेश सा, पंडों का आतंक यहाँ नहीं है, जो त्रिवेणी आने वाले तीर्थ यात्रियों को यमुना का पुल भी पार नहीं करने देते। नैनी में ही धर दबोचते हैं। यहाँ माँ के द्वार तक रास्ता निर्विघ्न है। इसकी सच्चाई को आजमाने के लिये या स्वंय अपनी भक्ति भावना को परखने के लिये मैंने सामान्य जन की लाइन में लगकर दर्शन का संकल्प जुटाया। फिर एक वयोवृद्ध वनमाली पंडा के व्यवहार ने कुछ प्रभावित किया और कुछ इस विचार ने प्रेरित किया कि पंडा सही, लेकिन इस अपरिचित कामरूप में अपना कोई परिचित तो हो जाएगा? मैंने बात की। वनमाली पंडा ने भरोसा दिलाया- श्रद्धा से जो दे देंगे, उतने में ही मैं पूजा करा दूँगा।’

मैंने स्पष्ट किया कि पूजा पाठ में मेरी कोई दिलचस्पी नहीं। वह तो मेरे मन में है। मैं मात्र दर्शन का इच्छुक हूँ। अब सोचता हूँ कि वह कितनी थोथी अहमन्यता की बात थी? यदि पूजा पाठ मन में है तो फिर, बाहर से, इस दर्शन की इच्छा क्यों? वनमाली पंडा ने कुछ नहीं कहा, मुझे वैसे ही लाइन में छोड़कर कहीं भीड़ में अंतर्धान हो गए। शायद, किसी अन्य यजमान की व्यवस्था में लग गये। फिर, थोड़ी देर बाद वैसे ही अवतरित भी हो गये और बिना कुछ कहे सुने, किसी बच्चे की तरह हाथ पकड़ कर सीधे मंदिर के गर्भ गृह के रास्ते में ले चले।

कामाख्या का मंदिर पर्वत शिखर पर है। गर्भ गृह मंदिर के भूतल में है। वनमाली पंडा को अपना हाथ दिये हुये मैं अंधेरे चक्करदार रास्तों में बस नीचे और नीचे उतरता चला जा रहा हूँ। वयोवृद्ध पंडा ने जहाँ रुकने कहा-रुक गया, जहाँ शीश नवाने कहा-नवा दिया, दीप प्रज्जवलित करने कहा-कर दिया, प्रसाद चढ़ाने कहा-चढ़ा दिया, ध्यान करने कहा-कर दिया। पता नहीं चला, अपने मना कर चुकने के बाद भी मैंने पूजा अर्चना की वे सारी विधियाँ सम्पन्न कीं, जो पंडा ने बताई। फिर, गर्भगृह में पहुँचा कर वनमाली पंडा ने मुझे सीधे देवी के सामने खड़ा कर दिया और धन्य भाव के साथ मुझे बताया -अब आप माँ की योनि का दर्शन कर रहे हैं।

वनमाली पंडा के इस धन्यभाव में मैंने एक आस्थावादी समाज की पराकाष्ठा के दर्शन किये। गुवाहाटी प्राचीन काल का प्राग्ज्योतिषपुर है। कहते हैं कि प्राग्ज्योतिषपुर वेद वर्णित है। किस वेद में यह वर्णन मिलेगा? मुझे नहीं मालूम। प्राग्ज्योतिषपुर से यह गुवाहाटी कब हुआ? यह भी मुझे नहीं मालूम। लेकिन यह एक शक्ति पीठ है। बावन आदि शक्ति पीठों में से एक !

इस आदि शक्तिपीठ में मैंने एक चालाकी चली थी। अब वह रहस्योद्घाटन कर सकता हूँ। मान्यता है कि देवदर्शन के उपरांत उस देवस्थान में थोड़ी देर बैठकर ध्यान किया जाता है। तब प्रस्थान करते हैं। इसका उल्लंघन करने वाले को उस देव द्वार पर पुनः उपस्थित होना पड़ता है। मैंने प्रचलित मान्यता का उल्लंघन किया और वहाँ क्षण भर भी रुके बिना नीलाचल पर्वत शिखर से सीधे नीचे उतर आया। मुझे तो दुबारा आने के लिये एक बहाना चाहिये ही था? अभी तो पूरा असम बाकी है, जहाँ मैं नहीं पहुँचा हूँ।

गुवाहाटी में मैंने अपने लिये अंडी की एक चादर खरीदी। मुझे लगा, खादी ग्रामोद्योग केंद्र की असमिया सेल्स गर्ल ने मुझे कुछ हैरानी के साथ देखा होगा। यहाँ अंडी की चादरें जोड़ी में बुनी जाती हैं। उनके दाम भी जोड़ी में ही बताये जाते हैं। शायद यहाँ ऐसे ही बेचने खरीदने का रिवाज़ हो। लेकिन मैंने इकहरी चादर माँगी। इसी बात पर उसने मुझे कुछ हैरानी के साथ देखा होगा। फिर एक कुशल सेल्सगर्ल की तरह ग्राहक की इच्छा का सम्मान किया और जोड़ी चादर को बीच से काटकर इकहरा बना दिया।

रेशम की दुनिया में असम का मूँगा प्रसिद्ध है। ताँबा मिश्रित सोने के रंग वाला यह रेशमी कपड़ा पूरे विश्व में अकेले असम में ही बनता है। असम के ग्रामांचलों में तो आज भी यह चलन है कि अपने विवाह की तैय्यारियों में व्यस्त वधु-कन्याएँ महीने भर पहले से ही अपने विवाह परिधान के लिये मूँगा और पाट के वस्त्र बुनने लगती हैं। यह, उनके यहाँ होने वाले वैवाहिक अनुष्ठान का एक हिस्सा है। वधु - कन्या के संस्कार युक्त होने का एक प्रमाण भी है। जहाँ मूँगा बुना जाता है, वहाँ जाकर उन लोगों से मिले बात किये बिना अपने मन को समझा पाना मेरे बस की बात नहीं है।

गुवाहाटी सुंदर है। भारत के कुछ गिने चुने सुव्यवस्थित नगरों में इसे गिना जा सकता है। पिछली शताब्दी में यहाँ किसी बहुत बड़े भूकम्प के आने का उल्लेख मिलता है। उसके बाद शायद, पूरे का पूरा नगर धीरे-धीरे नये सिरे से बसाया गया हो। एक व्यापारिक नगर होने के बावजूद इसने स्थानीय पारंपरिक नगर विन्यास को भी सहेज सम्हाल कर रखा है। गुवाहाटी की बीच बसाहट में विशिष्ट असमिया पारंपरिक शिल्प के बाँस के घर भी मिलते हैं। इनके लिये कहा जाता है कि भूकम्प प्रभावित क्षेत्रों के लिये ये उपयुक्त और सुरक्षित होते हैं।

ब्रह्मपुत्र नदीसुंदर गुवाहाटी का सौंदर्य इसलिये भी दर्शनीय है कि इसने अपने नैसर्गिक प्रसार के साथ किसी गैर जरूरी छेड़ छाड़ से अपने को बचाकर रखा है। पेड़, पहाड़, नदी और नगर विन्यास, एक सुंदर लयात्मक विस्तार की तरह लगता है। यह लयात्मक विस्तार दूर तक ब्रह्मपुत्र की संगत करता साथ-साथ चलता है। ब्रह्मपुत्र भारत की उन गिनी चुनी नदियों में से है जिनसे नौ परिवहन होता है और जिन पर नावें चलती हैं। विशाल ब्रह्मपुत्र अभी थिरी हुई है। यहाँ, इसकी लय अभी सम पर है। इसके साथ साथ चलते हुये भूपेन हजारिका के किसी गीत के साथ अपना स्वर मिलाने को मन करता है।

यही ब्रह्मपुत्र बारिश लगते ही कितनी आक्रामक हो उठती है, मानसून की खबरों के साथ यह कितनी कितनी बार यह पढ़ने सुनने देखने नहीं मिलता कि डिब्रूगढ़ का देश के शेष भागों से संपर्क कटा? फिर भी असम के लोगों की इसके प्रति आसक्ति, संभवतया, माँ कामाख्या के प्रति भक्ति की तरह अगाध है। काजीरंगा का विश्वप्रसिद्ध, एक सींग वाला गैंडा तो असम का राजचिन्ह है- बस। बाहर के लोगों को अपनी तरफ लुभाने के लिये। यहाँ के लोगों का कहना है कि ब्रह्मपुत्र को उसके संपूर्ण रूपाकार में देखना हो तो डिब्रूगढ़ में उसका तट विस्तार देखो।

गुवाहाटी के सामने डिब्रूगढ़ एक प्राचीन व्यापारिक नगर दिखता है। यहाँ विश्वविद्यालय भी है। असमिया की प्रतिष्ठित लेखिका श्रीमती तिलोत्तमा मिश्र डिब्रूगढ़ में ही रहती हैं और यहाँ विश्वविद्यालय में अंग्रेजी पढ़ाती हैं। उन्होंने भी यही सुझाया- यहाँ आये हैं तो एक बार ब्रह्मपुत्र का तट विस्तार अवश्य देखें।

डिब्रूगढ़ में हमने, ब्रह्मपुत्र को रात में देखा। कुछ दूर तक नदी का तट दिखाई दिया। फिर उसका आभास रह गया। दूसरा किनारा कहीं नहीं था। एक नदी को इस तरह रात में देखना एक मिथकीय संरचना ही थी। क्या कोई नदी अपने तट के दूसरे किनारे के बिना भी हो सकती है? ब्रह्मपुत्र की आक्रामकता से बचने लिये डिब्रूगढ़ को लगभग उसकी लंबाई के साथ साथ ऊँचे तट बँध से बाँधकर सुरक्षा के उपाय किये गये है। ऊँचे तटबंध पर उससे भी ऊँचे बिजली के खंभे हैं। इन खंभों पर ढ़ेरों ढेर फ्लड लाइट्स लगाई गई हैं ताकि रात में दूर तक दिखता रहे। लेकिन इन फ्लड लाइट्स की रोशनी उधर तक नहीं पहुँच पाती। हमारी तरफ ही ढेर हो जाती है और मिथकीय प्रभाव को और भी घना कर जाती हैं।

श्रीमती तिलोत्तमा मिश्र का कहना है कि पारंपरिक ‘बिहू’ देखना है तो यहीं, ऊपरी असम के किसी ग्रामांचल में जाना चाहिये। लेकिन बिना किसी जान पहचान के ऐसे ही किसी गाँव में चले जायें, आज का असम इतना निरापद नहीं रहा। लगभग यही बात तिनसुकिया के श्री परमानंद बोरा ने कही थी कि ‘बिहू’ का पारंपरिंक रूप तो इस, ऊपरी असम के ही ग्रामांचलों में सुरक्षित है। लेकिन आज का असम इसके लिये उन्होंने अंग्रेजी में ‘हॉट-पॉट’ कहा था। श्री बोरा ओ.एन.जी.सी. (ऑयल एँड नैचरल गैस कार्पोरेशन) में अधिकारी हैं और ‘बिहू’ के लिये अपने घर, तिनसुकिया जा रहे हैं। ट्रेन में आकस्मिक परिचय हो गया और उन्होंने अपने घर आमंत्रित किया -‘तिनसुकिया आइये। वहाँ आप हमारे घर मेहमान होंगे।’

श्री बोरा के साथ उनकी पत्नी हैं जो केवल असमिया जानती हैं। फिर भी हमारी बातों के साथ शामिल हो रही हैं। श्री बोरा ने अपनी पत्नी की बात मुझे अंग्रेजी में बताई। ये कह रही हैं कि आप हमारे घर आ जाइये। हमारा बेटा, उसका नाम प्रांजल है, आपको लेकर गाँव जाएगा जहाँ पारंपरिक ‘बिहू’ होता है।

इस दग्ध असम में एक घर ऐसा भी हो सकता है, जो किसी एकदम अपरिचित यात्री को इतना आत्मीय आमंत्रण दे रहा है ? शीतलता का बोध हुआ। इस समय असम ‘बिहू’ के ज्वर में तप रहा है। कभी सारे रास्ते रोम को कैसे जाते रहे होंगे ? यहाँ पहुँच कर वह समझ में आ रहा है। अभी, यहाँ सारे रास्ते गुवाहाटी को जा रहे हैं। वहाँ ‘बिहू’ की भव्य सजावट होगी, सारी रात जगाने वाले प्रदर्शनों के आयोजन हो रहे होंगे। यहाँ से लोग सज धज कर वहाँ जा रहे हैं। वहाँ पहुँच कर सजावट का हिस्सा हो जाएगे। श्रीमती तिलोत्तमा मिश्र ने बताया -स्टेज का ‘बिहू’ देखना चाहें तो गुवाहाटी जाइये।’

गुवाहाटी से कुल 20 कि.मी. दूर, ब्रह्मपुत्र के दाएँ तट पर बसा सुआलकुसी रेशम का गाँव है। रेशम के इस गाँव का रास्ता नारियल के पेड़ों और धान के खेतों के बीच से होकर निकलता है। यह रास्ता चित्र-खचित है। सुआलकुसी, असम के विश्वप्रसिद्ध‘ मूँगा’ और ‘पाट’ के रेशमी वस्त्रों का सबसे बड़ा बुनकर केन्द्र है। यहाँ घर-घर में ‘मूँगा’ के करघे हैं। पूरे असम और कलकत्ता (अब कोलकाता) की रेशम मण्डियों से निर्यात होने वाला ‘मूँगा’ सुआलकुसी से ही जाता है।

बस में साथ चल रहे एक बिल्कुल अपरिचित व्यक्ति से मैंने पूछा कि क्या वह मुझे किसी ऐसे घर में लेकर चल सकेगा जहाँ ‘ मूँगा’ बुना जाता है। उसने बताया कि यहाँ तो हर घर में करघे हैं। और घर का प्रत्येक व्यक्ति ‘मूँगा’ बुनता है। फिर अरुण डेका नामक इस व्यक्ति ने इन करघों पर बुना गया ताँबा मिश्रित सोने के रंग वाला ‘मूँगा’ और सुंदर काम की हुई साड़ियाँ भी दिखाई। साथ चल रहे डॉ. चंद्रा परेशान हो रहे होंगे कि ‘बिहू’ छोड़कर यह, मैं ‘ मूँगा’ में, कहाँ भटक रहा हूँ? मैंने अरुण से पूछा कि क्या वह मुझे करघे पर काम कर रहे कुछ बुनकर नहीं दिखा सकता जिनके फोटो खींचकर मै अपने साथ ले जा सकूँ?

मूँगा बुनकर करघे के साथअरुण डेका ने बताया कि इसके लिये मैंने गलत दिन चुना है। आज गाँव के सारे लोग ‘बिहू’ उत्सव में शामिल होने के लिये गुवाहाटी गये हुये हैं। तभी, सजे धजे बच्चों का एक दल सामने से निकला जो ‘बिहू’ नाचने के लिये गाँव के घर-घर जा रहा था। ‘मूँगा’ छोड़कर में इस दल के साथ हो लिया। मुझे लगा कि जो मैं ढूँढ़ रहा था वह, पा गया। कहीं मैं खूशी से चिल्ला न पड़ूँ-यूरेका...।

अब यह अरुण डेका के लिये परेशानी की बारी होगी कि ‘मूँगा’ छोड़कर यह, मैं ‘बिहू’ नर्तक दल के पीछे, कहाँ भटकने लगा? अरुण डेका असम जल-परिवहन विभाग में काम करता है। ‘बिहू’ मनाने के लिये वह शहर से अपने गाँव आ रहा है। मेरे कारण उसे अपने घर पहुँचने में देरी हो रही होगी। वहाँ, सबको उसकी प्रतीक्षा होगी। उसे झुँझालाहट भी हो रही होगी। लेकिन, गाँव का आदमी पीछा छुड़ाना भी नहीं जान रहा है? मेरी सनक और मेरे सवालों से थक हार कर अरुण डेका ने मुझे उसके घर चलने को कहा। उसने कहा कि उसकी बेटी हिंदी पढ़ती है। वह मेरी बातों को समझ सकेगी। उसकी बेटी ने हिंदी में एक निबंध भी लिखा है। उस निबंध को पढ़कर मै. समझ जाऊँगा कि ‘बिहू’ क्या है।

यह ‘रोंगाली बिहू’ है जो वैशाख माह के प्रथम दिन से प्रारंभ होता है। यह असम का नव वर्ष पर्व है। इस दिन स्नान ध्यान के उपरांत लोग नये कपड़े पहनते हैं। फिर सप्ताह भर चलने वाला, नृत्य और गीतों का, उत्सव प्रारंभ होता है। यह रंग बिरंगा होता है। इसलिये इसे ‘रोंगाली बिहू’ कहते हैं। एक और ‘बिहू’ माघ माह में होता है। यह नवान्न का ‘बिहू’ होता है। इसमें नवान्न का भोग लगाते हैं। इसलिये इसे भोग बिहू या ‘भोगाली बिहू’ कहते हैं। इसमें लड़की को भगा ले जाने, फिर उससे विवाह की प्रथा प्रचलन में हैं। एक ‘बिहू’ कार्तिक माह में भी होता है। उसे ‘ कोंगाली बिहू’ कहते हैं।

अरुण डेका का पूरा परिवार मेरे पास जुट गया है। मुझे लगा कि निबंध पढ़कर ‘बिहू’ को समझने का प्रयास कर रहा एक अतिथि उनके लिये अचरज पैदा कर रहा होगा, लेकिन अरुण की पत्नी ने सब सहज बना दिया। उसका नाम सानू है। सानू रूपवती है और घर में उसकी ही चलती है। घर में अरुण भी मुझे उस पर आश्रित दिखा। मैंने सानू से पूछा- ‘बिहू में क्या-क्या होता है’।

सानू समझाने लगी- सुबह उठकर नदी में स्नान करते हैं। नये कपड़े पहनते हैं।‘ नाम घर’ में जाकर पूजा करते हैं। गाय की पूजा करते हैं। उसको खिलाते हैं। ‘पीठा’ खाते हैं। फिर घरों मे जाकर ‘बिहू-बिहू...’ पुकारते हैं और नाचते हैं। दान ग्रहण करते हैं।’

असमिया समाज को विकास की ओर ले जाने में अठारहवीं-उन्नीसवीं शताब्दी के कुछ सुधारवादियों का प्रभाव बहुत गहरा रहा है। इनमें शंकरदेव के अनुयाइयों की संख्या बहुत बड़ी है। उनके विचारों को आगे बढ़ाने का संगठित काम माधव देव ने किया और पूरे असम में ‘नाम घर’ की स्थापना की जहाँ शंकरदेव के उपासक सत्संग कर सकें। यहाँ, सुआलकुसी में, भी ‘नाम घर’ है और यह पूरा गाँव शंकरदेव का उपासक है।
ऐसा दिखता है कि बंगाल के श्री चैतन्य की वैष्णवी धारा के सम्मुख असम का तत्कालीन समाज अपने आत्म गौरव से जुड़ी किसी संत परम्परा की तलाश में था। शंकरदेव के उद्भव ने उस समाज को उसके वांछित आत्मगौरव का विश्वास कराया होगा।

विकासशील असम के इतिहास पर आख्यायित, तिलोत्तमा मिश्र के, उपन्यास ‘स्वर्णलता’ में एक रोचक प्रसंग इससे संबंधित है। उच्च शिक्षा के लिये कलकत्ता गये असमिया छात्रों से वहाँ का एक स्थानीय छात्र पूछता है- ‘तुम्हारी तरफ वैष्णव धर्म के प्रचारक कौन गुरू थे?

इसके उत्तर में एक असमिया छात्र कहता है- ‘श्रीमंत शंकरदेव नाम के गुरू ने असम में वैष्णव धर्म का प्रचार किया था।’ यह प्रसंग आगे बहस के लिये भी रास्ता खोलता है कि शंकरदेव ने चैतन्य देव के समान शृंगार रस को कहीं भी प्रधानता नहीं दी है। उन्होंने भक्त को दास का दास माना है, परमभक्त को मुक्तिनिस्पृह कहा है।

इस परिवार में, जहाँ मैं अकस्मात ही अतिथि हूँ, कौन भक्त होगा और कौन परमभक्त, सोचता हूँ तो उलझता हूँ। विमल मित्र का बँगला उपन्यास है-पति परम गुरू। यहाँ वह गुरू न कुछ समझ रहा है, न कुछ समझा पा रहा है। समझना-समझाना जो भी है, वह पत्नी ही कर रही है।

बिहू नर्तकअपनी समझ में सानू, मुझे, हिंदी में ही समझा रही होगी। फिर भी मैं मूढ़मति, समझ नहीं रहा हूँ। इस पर उसने मुझे झुँझलाहट से देखा। तब अरुण ने उसे बताया कि वह तो असमिया में बोले जा रही है। इस पर वह अपने पति पर नाराज़ हो गई- तो फिर तुम क्या कर रहे थे?’
अरुण हँसने लगा- ‘तेरे सामने मेरी क्या चलती है?’
मेरा अनुमान प्रमाणित हो गया कि घर में सानू की ही चलती है। वह फिर बताने लगी - जो ‘बिहू’ के दिन अनिवार्य होता है। ‘तिल पीठा’ खाना जरूरी होता है। जूड़े में सफेद और लाल रंग के पुष्प सजाना जरूरी होता है। जिसे यहाँ कोप्पो फूल कहते हैं। अपनी समझ में इस बार भी वह हिंदी में ही बोल रही होगी और मैं मूढ़मति सो मूढ़मति। समझ ही नहीं रहा हूँ? तब उसकी बिटिया ने, अपनी माँ की असमिया मुझे हिंदी में समझाई, जिसका हिंदी निबंध पढ़कर मैंने ‘बिहू’ की प्रारंभिक समझ पाई। मैंने ‘पीठा’ देखना चाहा कि कैसा होता है, कितने प्रकार का होता है?
- ‘हे देवता। ’ सानू को मेरी बुद्धि पर सचमुच तरस आया-पीठा भी कोई देखने की चीज हुई? मैनें बताया नहीं कि बिहू के दिन तिल पीठा खाना जरूरी होता है।’
- जाओ, जल्दी से स्नान करके आओ। नये कपड़े भी निकाल कर रखे हैं। फिर मेहमान को पीठा परोसो।’ सानू ने अरुण से कहा। मुझे लगा, यह रूपवती गृहिणी ऐसे ही अपने बच्चों को भी अनुशासित करती होगी? उपनिषदों में (संभवतया वृहदारण्य उपनिषद में) एक जगह आता है कि अमुक ऋषि (संभवतया लोमश ऋषि) ने कन्यादान के पश्चात विदा करते हुये अपनी शिष्या को यह आशीर्वाद दिया - जाओ, तुम्हारे दस पुत्र हों और ग्यारहवाँ पुत्र तुम्हारा पति हो। लगता है कि सानू वही ऋषि-कन्या होगी जिसका ग्यारहवाँ पुत्र उसका पति है।

सानू ने मुझे पारंपरिक असमिया बुनावट वाला एक सुंदर सा गमछा दिखाया और बताया कि इसे ‘बिहुआन’ कहते हैं। बहिनें अपने भाइयों को यह ‘बिहुआन’ भेंट करके आशीर्वाद माँगती हैं। इसके बाद ही भाई ‘बिहू’ में शामिल होने के लिये घर से बाहर निकलते हैं। उसने कहा- ‘मैं, आपको यह दूँगी।’
- ‘तभी मैं घर से बाहर निकल सकूँगा। है ना?’ मैंने पूछा। अरुण डेका एक रहस्य अब तक छिपाये हुये था। वह, उसने बता दिया-‘ये भी तो बिहू नाचती थी।’

प्रमाण में उसने घरेलू अल्बम के पन्ने उलट पलट कर वह चित्र भी दिखाया जिसमें बिहू की पारंपरिक सज्जा में सजी धजी, सानू सबसे अलग दिख रही है। आलक्तक रची हथेलियाँ जूड़े में गुँथे हुये कोप्पो फूल पर छाया कर रही हैं। कमर लोच ले रही है। बड़ी बड़ी आँखो में एक दुर्निवार आमंत्रण है।

- तो इसे देखकर तुम मोहित हुये थे?’ मैंने पूछा तो अरुण ने हाँ कहा और सानू ने आखें तरेरीं। फिर हँसने लगी। एक स्निग्ध हँसी। मैंने उस रूपसी ने पूछा ‘बिहू नाच कर मुझे नहीं दिखाओगी?
- ‘हाँ दिखाऊँगी। आप रुकेंगे?’ उसने हाँ कहा और मुझसे पूछा। लेकिन मैं कैसे रुक सकता हूँ? मुझे तो लौटना है। तब बहिन ने विधि विधान पूर्वक मुझे ‘बिहुआन’ भेंट किया और भूमि का स्पर्श करके मुझे प्रणाम किया। ‘बिहू’ के दिन घर आये भाई को विदा देने के लिये कामरूप की वह रूपसी सड़क तक साथ आई। अपने बच्चों के साथ उसका पति उसके पीछे पीछे बँधा चला आ रहा था।

यह सब माया देखकर वह मुझसे कम हैरान नहीं था। ऊपर से मैंने एक नई परेशानी उस पर लाद दी कि मैं फिर आऊँगा। तब मुझे अपनी स्टीमर पर बिठाकर ब्रह्मपुत्र की यात्रा कराना। अब तक मैंने ब्रह्मपुत्र का सौंदर्य दूर से देखा है। अब उसका स्पर्श करना चाहता हूँ। असम, बंगाल और बँगलादेश एक संयुक्त जल संस्कृति से परस्पर आबद्ध हैं। हो सकता है कि ब्रह्मपुत्र के नाविक भी वही भटियाली गीत गाना जानते हों जो उधर हुगली और मेघना के तटों को गुँजाते हैं।

 

६ मई २०१३

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