इस सप्ताह- |
अनुभूति में-
डॉ.
अजय पाठक, करीम पठान अनमोल, दिलीप लोकरे, पूर्णिमा वर्मन, और
समीर लाल की रचनाएँ। |
- घर परिवार में |
रसोईघर में- होली आ रही है और उसकी तैयारी में शुचि ने
भेजे हैं चाट के विविध व्यंजन। इस शृंखला में
प्रस्तुत है- मसूर
कवाब। |
रूप-पुराना-रंग
नया-
शौक से खरीदी गई सुंदर चीजें पुरानी हो जाने पर
फिर से सहेजें रूप बदलकर-
कद्दूकस में पेंसिलें। |
सुनो कहानी- छोटे
बच्चों के लिये विशेष रूप से लिखी गई छोटी
कहानियों के साप्ताहिक स्तंभ में इस बार प्रस्तुत है कहानी-
कागज के हवाई जहाज। |
- रचना और मनोरंजन में |
नवगीत की पाठशाला में-
कार्यशाला- २६ का विषय है रंग। रचनाओं
का प्रकाशन प्रारंभ हो गया है। रचनाएँ अभी भी भेजी जा सकती
हैं।
|
साहित्य समाचार में- देश-विदेश से साहित्यिक-सांस्कृतिक
समाचारों, सूचनाओं, घोषणाओं, गोष्ठियों आदि के विषय में जानने के लिये
यहाँ देखें |
लोकप्रिय कहानियों के अंतर्गत-
प्रस्तुत है पुराने अंकों
से १६ जून २००२ को प्रकाशित
गोविन्द झा की मैथिली कहानी का हिन्दी रूपांतर
गाड़ी पर नाव।
|
वर्ग पहेली-१२५
गोपालकृष्ण-भट्ट-आकुल
और रश्मि आशीष के सहयोग से
|
सप्ताह
का कार्टून-
कीर्तीश
की कूची से |
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साहित्य
एवं
संस्कृति
में-
|
समकालीन कहानियों में भारत से
राहुल यादव की
कहानी-
टेलीविजन
जब
तक मैं अपने गाँव में रहता था तब तक तो मैंने टीवी का नाम सुना
ही नहीं था। मुझे पता भी नहीं था कि टीवी नाम की कोई चीज भी
होती है। फिर पापा की नौकरी लगने पर हम सभी लोग फतेहपुर आ गए।
वहाँ पर भी मैंने पहली बार टीवी कब देखा कुछ याद नहीं। मैं तब
शायद छह या सात साल का था और दूसरी कक्षा में पढता था। रविवार
का दिन था और हम सभी भाई बहन घर पर ही थे। तभी पापा एक आदमी के
साथ आये। उस आदमी के हाथ में एक बड़ा सा डब्बा था। डब्बे पर
टीवी का एक चित्र बना हुआ था। अब मुझे याद तो नहीं लेकिन टीवी
का चित्र देख कर हम खुश ही हुए होंगे। ख़ैर डब्बे से टीवी को
निकाला गया और लगा दिया गया। टीवी बहुत बड़ा नहीं था, जहाँ तक
मुझे याद है २१ इंच का था। टीवी काले रंग का था और नीचे की तरफ
एक स्पीकर था जिसे आप स्पीकर के लिए बने छोटे छोटे छेदों से
पहचान सकते थे। उसके बगल में नीचे की तरफ ही एक ढक्कन लगा था,
जिसे खोलने पर टीवी को कण्ट्रोल करने वाली चार घुन्डियाँ लगी
थी।
...
आगे-
*
शरद तैलंग का व्यंग्य
रेल की रेलमपेल
*
शशांक दुबे की पड़ताल
हिन्दी
सिनेमा में लोक संगीत
*
दिनेश मौर्य का आलेख
उत्तर आधुनिकता का कबीर मश्जो
*
पुनर्पाठ में कला और कलाकार के अंतर्गत
जहाँगीर सबावाला
से परिचय |
अभिव्यक्ति समूह
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पिछले
सप्ताह- |
१
दुर्गेश गुप्त राज की लघुकथा
वस्त्रदान
*
व्यक्तित्व में कुमुद शर्मा का आलेख
हिन्दी के उन्नायक
स्वामी दयानंद सरस्वती
*
अशोक उदयवाल से स्वाद और
स्वास्थ्य में पालक के पौष्टिक गुण
*
पुनर्पाठ में दीपिका जोशी के साथ पर्यटन में
रोमांचक-जंगलों-का-सफर-और-सैर-दक्षिण-अफ्रीका-की
*
समकालीन कहानियों में यू.एस.ए. से
अनिल प्रभा कुमार की कहानी-
मैं रमा नहीं
अपॉर्टमेंट
का नम्बर ठीक था। मुझे घंटी का बटन नहीं दिखाई दिया। धीरे से
दरवाज़ा थपथपाया, हालांकि दरवाज़ा सिर्फ़ उढ़का हुआ था, बन्द नहीं।
"कम इन" एक खरखरी सी मर्दानी आवाज़ ने जवाब दिया।
दरवाज़ा खोलते ही - एकदम सामने वह लेटे थे, अस्पताल नुमा बिस्तर
पर। पलंग सिरहाने से ऊँचा किया हुआ था। झकाझक सफ़ेद
कुर्ता-पाजामा पहने, चेहरे पर दो-तीन दिन पुरानी दाढ़ी और उम्र
शायद साठ के आस-पास। नाक पर नलियाँ लगी हुईं। उनके दायीं ओर
रैस्पीरेटर था।
उनकी बड़ी -बड़ी आँखें मुझ पर टिक गईं। पल भर में मैं काफ़ी कुछ
समझ गई । उनके बारे में बहुत कुछ सुना हुआ था। मैने शिष्टता से
हाथ जोड़ दिये। उन्होंने सिर हिलाकर मेरा अभिवादन स्वीकार किया।
आँखें फिर भी मुझे घूरती रहीं।
"जी, रमा बहन हैं? मैंने उन्हें रोटी बनाने का ऑर्डर दिया था।"
वे सहज हुए। आँखें बायीं ओर घूमीं। ...
आगे- |
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