हर वर्ष की तरह इस वर्ष भी
उसका जन्म-दिन था। २३ जनवरी। इस बार भी उसने किसी गरीब को
वस्त्र-दान करने का विचार किया। वह टीन-शैड में लगी
नैपालियों की दुकान पर गया और वहाँ से उसने एक बड़ी-सी
मर्दानी शॉल खरीदी। वह बाहर आया। माता-मंदिर के पास आकर
उसकी आँखें उस शॉल के लिये उपयुक्त पात्र को खोजने लगीं।
तभी उसने एक कोने में खड़े ठण्ड से कुड़कुड़ाते एक अधेड़ को
देखा। उसकी उम्र पचास के आस-पास होगी। लेकिन गरीबी ने उसे
अतिवरिष्ठ श्रेणी के नागरिक की श्रेणी में ला खड़ा किया था।
उसे लगा, इसे ही ये शॉल देनी चाहिए। वह उसके करीब पहुँचा-
‘‘दादा ये लो शॉल, ओढ़ लो इसे। ठण्ड नहीं लगेगी।’’ उसने यह
कहते हुये उसे वह शॉल उढ़ा दी।
वह कुछ बोला नहीं। बस आशीर्वाद के रूप में उसने हाथ उठा
दिये। उसकी आँखों में कृतज्ञता के भाव स्पष्ट लक्षित हो
रहे थे। ये देख उसे मन में गहन संतोष हुआ।
कुछ दिन बाद वह माता-मंदिर से होकर गुजर रहा था। तभी उसकी
दृष्टि उसी व्यक्ति पर पड़ी, जिसे उसने चार दिन पहले शॉल दी
थी।
आज भी उसे वैसे ही ठण्ड से ठिठुरता देख उसे बड़ा आश्चर्य
हुआ। उसने सुन रखा था कि ये लोग नये कपड़ों को बेच कर दारू
पी जाते हैं। ऐसे ही कुछ विचार उसके मन में उठने लगे। तभी
उसने देखा, वह व्यक्ति हाथ जोड़े उसके सामने खड़ा था। वह उसे
देखकर ही उसके पास आया था।
‘‘साहब जी, ....आप सोच रहे होंगे वह शॉल कहाँ गई .....जो
आपने मुझे तीन-चार दिन पहले दी थी।....साहब वो मैं परसों
फुटपाथ पर बैठकर भीख माँग रखा था, तभी मैंने देखा, ....एक
गरीब भिखारिन अपने दुधमुँहे बच्चे को आँचल में छिपाकर ठण्ड
से काँप रही थी। मुझ से देखा नहीं गया और मैंने अपनी वह
शॉल उसे......’’ वह हाथ जोड़े काँपते हुये डरते-डरते मुझसे
कहे जा रहा था।
मैं अपलक कुछ देर तक उसे देखता रहा। उसका अंतिम वाक्य
सुनते ही मेरा हृदय भर आया और मैं उससे बिना कुछ कहे
धीरे-धीरे आगे बढ़ गया।
११ मार्च २०१३ |