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कहानियाँ

समकालीन हिंदी कहानियों के स्तंभ में इस सप्ताह प्रस्तुत है
यू.एस.ए. से अनिल प्रभा कुमार की कहानी मैं रमा नहीं


अपॉर्टमेंट का नम्बर ठीक था। मुझे घंटी का बटन नहीं दिखाई दिया। धीरे से दरवाज़ा थपथपाया, हालाँकि दरवाज़ा सिर्फ़ उढ़का हुआ था, बन्द नहीं।
"कम इन" एक खरखरी सी मर्दानी आवाज़ ने जवाब दिया।

दरवाज़ा खोलते ही- एकदम सामने वह लेटे थे, अस्पताल नुमा बिस्तर पर। पलंग सिरहाने से ऊँचा किया हुआ था। झकाझक सफ़ेद कुर्ता-पाजामा पहने, चेहरे पर दो-तीन दिन पुरानी दाढ़ी और उम्र शायद साठ के आस-पास। नाक पर नलियाँ लगी हुईं। उनके दायीं ओर रैस्पीरेटर था।

उनकी बड़ी -बड़ी आँखें मुझ पर टिक गईं। पल भर में मैं काफ़ी कुछ समझ गई। उनके बारे में बहुत कुछ सुना हुआ था। मैंने शिष्टता से हाथ जोड़ दिये। उन्होंने सिर हिलाकर मेरा अभिवादन स्वीकार किया। आँखें फिर भी मुझे घूरती रहीं।
"जी, रमा बहन हैं? मैंने उन्हें रोटी बनाने का ऑर्डर दिया था।"
वे सहज हुए। आँखें बायीं ओर घूमीं।
एक खिलती-मुस्कराती महिला आटे से सने हाथ लिए बाहर निकलीं।

"आप ने ही "वेन" से फ़ोन किया था न?"
"जी, आप रमा बहन हैं?"
"हाँ मैं ही हूँ।" उन्होंने ऐसे आत्मीयता से मुस्कुरा कर परिचय दिया जैसे बहुत अरसे से जानती हों।
"सॉरी, बस पाँच- दस मिनट और लगेंगे। तब तक आप बैठिए।" कह कर वह वापिस मुड़ गईं।
मैं यों ही खड़ी रही। बैठने की कोई जगह दिखी नहीं।

एक लम्बा सा कमरा। जिसका एक छोर था उनका अपाहिज पति और दूसरा छोर था उनका किचन। शायद वह इन्हीं दोनों छोरों के बीच घूमती रही होंगी - हँसती, रोती, बोलती हुईं या खामोश। कोने में लटके मनीप्लांट की शाखाओं को सुतली से बाँध कर, कमरे की छत के अन्दर एक चँदोवा सा तना था। घर के अन्दर बाहर की हरियाली को मनाकर ले आने की एक कमज़ोर सी कोशिश। कमरे के बीच में एक बड़ा सा टेलीविज़न था। मुझे लगा जैसे यह लगातार चलता रहता होगा। उनकी आँखें टेलीविज़न स्क्रीन को पकड़े हुईं थीं। शरीर हिलने डुलने में असमर्थ था पर उनका मन शायद इसी के सहारे से उड़ान भरता होगा। उनकी आँखों के सामने ही दीवार पर एक जोड़े का सुन्दर सा चित्र था। मैंने ध्यान से देखा, औरत की शक्ल पोस्टरों में लगी देवियों से मिलती जुलती थी और बड़ी - बड़ी आँखों वाले पुरुष की...? मैंने पलट कर देखा - संशय हुआ कि कहीं इन्हीं का चित्र न हो।

"लीजिए आपके पचास परांठे।" वह हाथ में बड़ा सा पैकेट उठाए बाहर आईं।
"कितने हुए?"
उन्होंने दाम बताए। मैंने गिनकर उन्हें कीमत पकड़ा दी।
"यह फ़ोटो...?" मैंने जानबूझ कर प्रश्न पूरा नहीं किया।
"ओह!" उनके चेहेरे पर कोमलता तिर आई।
"यह तो बहुत पुरानी है। हमारे अमरीका आने से भी पहले की। भारत में खिंचवाई थी। अब तो हमें भारत गए भी सत्ताईस बरस हो गए।" उनकी आवाज़ धँस गई। वह अभी भी उस फ़ोटो को देख रहीं थीं जिस में वह सीता की तरह लगती थीं।
"अच्छा, थैंक्यू।" कह कर मैं उनके गले लग गई। उन्होंने भी मुझे बड़ी आत्मीयता से गले लगा लिया।
"बेन, आते रहना। मेरे लिए कुछ भी काम हो तो। मैं कुछ भी किसी भी तरह का खाना बना सकती हूँ।
"ज़रूर" कह कर मैं लौटी। उनके पति शायद सो गए थे। मेरे नमस्कार को उठे हाथ अधबीच ही गिर गए।

ख़रीददारी करके घर लौटी। सामान वापिस रखने-धरने में ही थक गई। रमा बहन मन पर धरना देकर बैठी थीं। एक थी तस्वीर में मुस्कुराती सुन्दरी और दूसरी थी वह औरत जिससे मैं आज मिलकर आई हूँ। चित्र वाली औरत की छाया भर- प्रौढ़ छाया। गुजराती शैली की साड़ी की जगह पर ढीली सी पैंट, टी-शर्ट, कस कर बाँधे बालों में सफ़ेद फूलों की जगह थी बालों की बेरहम सफ़ेदी। थका पस्त चेहरा, फिर भी मुस्कुरातीं तो उनके सफ़ेद सुन्दर दाँतों की कौंध सोचने को विवश कर देती कि यह औरत मुस्कुरा कैसे लेती है?

फ़ोन बजने से ध्यान बँटा। दीपा थी।
"आपसे उस दिन स्टॉफ़ पार्टी में मिलकर बहुत अच्छा लगा था।"
"हाँ, हाँ मुझे भी बहुत अच्छा लगा।" मैंने औपचारिकता निभाई। पर इस वक्त मैं प्रोफ़ेसर का चोला उतार कर गृहणी के भेष में आ चुकी थी। बाहरी-भीतरी दोनों तरह से।
"मैं आपसे मिलना चाहती हूँ, आप इस वक्त क्या कर रही हैं?"
मैं चौंकी। इस वक्त बिल्कुल किसी से मिलने के मूड में नहीं थी।
"अ, अsss" मेरे गले से कुछ हकलाई सी आवाज़ निकली।
"मेरा मन इस वक्त बहुत परेशान है। नहीं तो मैं यों ऐसे आप को नहीं कहती।" उसकी आवाज़ में बेचारगी थी।
मैं झेंप गई। "नहीं - नहीं ज़रूर आओ। बात यह है कि मैं अभी-अभी बाहर से लौटी हूँ और घर बिल्कुल बिखरा हुआ है।"
"आप ऐसा कुछ मत सोचें। मैं बस आधे घंटे में आपके यहाँ पहुँच जाऊँगी।"
"आप मुझे ’दीपा’ कह कर बुला सकती हैं।" पहले परिचय में उसने यही कहा था।

मेरे ही देश की एक और लड़की, हमारे ही विभाग में आई है- मैं अतिरिक्त गर्मजोशी से मिली। उसके चेहरे की ठंडी परत पर एक छोटी सी गर्म दरार तक न पड़ी। आज अचानक मेरे घर, मेरे सामने आकर बैठ गई। उसका चेहरा देख कर मुझे लगा कि जैसे उसने न मुस्कराने की कोई क़सम निभाने के लिए अपने जबड़े कस कर बन्द किए हुए हैं। हो सकता है कोई खास बात हो जो वह मुझसे कहना चाहती है। उसकी पलकें तेज़ी से ऊपर-नीचे गिरती रहीं। कभी-कभी होठॊं को तर करने के लिए वह उन पर जीभ फेर लेती थी।
"चाय बनाऊँ?" माहौल को सहज बनाने के लिए मैंने पूछा।
उसने हामी में सिर हिलाया।
मुझे ध्यान आया, उसने बताया था कि वह इस शहर में नई-नई आई है और किसी के घर में एक कमरा लेकर रह रही है।

"लंच कब खाया था?" मैंने बिना किसी सन्दर्भ के पूछा।
"ऊँउउउऊँ, वह सोचने लगी। फिर बोली "नहीं खाया"।
मैंने एक बड़ा सा सैंडविच बनाकर चाय के साथ उसके आगे रख दिया। वह जल्दी-जल्दी खाने लगी।
"आपने चटनी, प्याज़ और हरी-मिर्च भी डाल दी है न तो बहुत करारा बना है।"
मैं एक और बनाने के लिए उठी तो उसने मना नहीं किया।

मैं उसे खाते हुए देखती रही। उसका चेहरा सुन्दर और असुन्दर की सीमा-रेखा पर पड़ता था। कस कर पॉनीटेल की हुई थी। बड़ी-बड़ी आँखों के बावजूद उसमें कस्बाई परिपक्वता की झलक थी। उस दिन जब खुले बालों के साथ फ़ैशनेबल धूप का चश्मा और हल्की सी लिप-ग्लॉस लगाए थी तो आकर्षक महिला लग रही थी। यह तो स्पष्ट था कि वह उमर में मुझसे छोटी थी, पर कितनी मैं जान नहीं पाई।
खाना खाकर वह थोड़ी सहज हुई।
"आपके पति कब घर आते हैं?
"इस हफ़्ते वह काम से बाहर रहेंगे।"
लगा जैसे वह बात कहने से पहले शब्दों को तोल रही हो।
"मुझे आपसे एक बात कहनी थी", कह कर उसने मुझे देखा।
मैं पूरी तरह से सुन रही थी।
"मैं यहाँ किसी को भी नहीं जानती। पता नहीं क्यों लगा कि मैं आप पर भरोसा कर सकती हूँ।"
मैंने मुस्कुरा कर उसे आश्वासन दिया।
"शायद आपको मालूम होगा कि मैं टोरोन्टो में रहती हूँ। यहाँ युनिवर्सिटी में पढ़ाने के लिए हर सोमवार सुबह पहुँचती हूँ और गुरुवार शाम की फ़्लाइट लेकर वापिस चली जाती हूँ।"
मतलब चार रातें कैनेडा में और तीन रातें अमरीका में। आदतन मैंने हिसाब लगाया।
"क्यों करती हो ऐसा?"
"मेरा बॉय-फ़्रेंड है वहाँ। उसके लिए सफ़र कर पाना इतना आसान नहीं। मेरी नौकरी में ज़्यादा लचीलापन है।"
"तुम्हारे माता-पिता भी वहीं हैं क्या?"
"नहीं, वे भारत में हैं।"
मैं चुप कर गई। कुछ समझ नहीं पाई।
"मेरा और अर्जुन का फ़्लैट है टोरोन्टो में। हमने बहुत प्यार से उसे सजाया है। न्यू-जर्सी तो मैं सिर्फ़ नौकरी करने के लिए रह रही हूँ। यहाँ घर बसाने का कोई इरादा नहीं।"
मैं सुन रही थी।

"ख़ैर, असल बात जो मैं आपसे कहना चाहती थी वह यह कि...," वह रुकी, दाँतों से होठों को दबाया और मुँह दूसरी ओर कर लिया।
"आज सुबह मेरी उपकुलपति, विभागाध्यक्ष और यूनियन के प्रतिनिधि के साथ बैठक हुई थी और मैं सस्पेंड कर दी गई हूँ।"
मैं बिल्कुल स्थिर, अविचलित बैठी रही- बिना किसी मनोभाव के। मुझे अपने संयम पर गर्व हुआ।
मैं अपने को तैयार कर रही थी कि मैं इसे तोलूँगी नहीं। मेरे मूल्य सिर्फ़ मेरे लिए हैं, किसी और को उनसे नहीं आँकूँगी।
"आप पूछेंगी भी नहीं कि क्यों?" लगा वह रो देगी।
"क्यों?" मैंने उसकी बात उसी को पकड़ा दी।
"क्योंकि मैं एक ऑन-लाइन कोर्स पढ़ा रही थी। बीस दिसम्बर तक उसके अंक रजिस्ट्रार के दफ़्तर तक भेजने थे। मैं भूल गई। उससे काफ़ी हंगामा मचा।"
"बात तो गम्भीर है। छात्रों के भविष्य का सवाल है। उन्हें नए सत्र में दाखिला नहीं मिल सकता।"
"पर मुझे किसी ने याद भी तो नहीं दिलवाया। यों बात-बात पर रिमाइन्डर भेजते रहते हैं।" वह दफ़्तर वालों की ग़लती बता रही थी।
"कितनी देर की?"
"असल में मैं यहाँ थी ही नहीं। दिसम्बर की छुट्टियों में भारत चली गई थी। मेरे पापा बीमार थे।"
"इतनी सी बात पर तो सस्पेंड नहीं किया जा सकता।" मैं उसकी तरफ़ थी।
"नहीं, केस तो कुछ और ही है।" कह कर वह अपने हाथों की ओर देखने लगी।
आज मेरी भी परीक्षा थी कि मैं दूसरों के जीवन-मूल्यों के प्रति कितनी तटस्थ रह पाती हूँ।

मैं उसकी ओर देखती रही और वह मेरे चेहर से ज़रा दाएँ या बाएँ देख कर बात करती रही, आँख बचाती हुई।
"बताने पर पता नहीं आप मेरे बारे में क्या सोचेंगी?"
"कुछ भी नहीं।" मैंने सच कहा ।
"मैं असल में कॉलेज बन्द होने से पहले ही निकल गई थी।"
मेरे माथे पर शायद कोई सलवट प्रश्न-चिन्ह की तरह उभरी होगी।
"मेरा मतलब, मैंने कॉलेज वालों से कहा कि मुझे एक वार्ता में भाग लेने के लिए लंदन की अकादमी ने आमंत्रित किया है तो मुझे जल्दी जाने की इजाज़त मिल गई । आधे रास्ते तक तो गई ही थी, फिर उसके बाद मैं भारत चली गई।"
"मैं समझी नहीं, तो इसमें ग़लत क्या बात हुई?"
"असल में पापा बहुत बीमार थे। मुझे सत्र के बीच में छुट्टी मिल नहीं सकती थी। यही एक तरीक़ा था यहाँ से निकलने का।"
"क़ानूनी तौर से तो कुछ ग़लत नहीं किया?" मुझे घबराहट सी होने लगी।
"ग़लत तो बहुत कुछ हो गया। मैं कॉन्फ़्रेन्स में अर्जुन के साथ पहुँची थी, पर अन्दर नहीं गई। वहाँ एक मेरे सीनियर कलीग भी थे जिन्होंने मुझे देख लिया। उन्हीं ने यहाँ आकर, मेरे वहाँ बुलाए जाने की प्रामाणिकता पर प्रश्न उठा दिया। छात्रों के अंक न जमा किए जाने की वजह से बात बहुत बिगड़ गई है।"
"तो?"
"मैं वहाँ अपना पेपर पढ़ने के लिए आमंत्रित ही नहीं थी। बल्कि मैंने ही लन्दन वालों को लिखा था कि क्या मैं भी वहाँ उपस्थित हो सकती हूँ? उन्होंने स्वीकृति दे दी।"

असल में मैं ख़ुद सोच रही थी कि दीपा इतनी प्रतिष्ठित कब से हो गई कि इसे अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर आमंत्रित किया गया होगा। पर सिर्फ़ इतना ही पूछा - "तो यह सब सच नहीं था? "
"नहीं"। वह होंठ दबाए छत की ओर देखने लगी।
बहुत से विचार एक दूसरे को ठेलते मेरे मन में आए पर मैंने अपने से वादा किया था कि मैं उसे तोलूँगी नहीं। रमा बहन का चेहरा फिर आँखों के सामने तिर आया। ज़िन्दगी में बहुत सी बातें न चाहते होते हुए भी तो हो जाती हैं। ज़िन्दगी खींचने के लिए उन्हें लाँघना तो होता ही है। हम दोनों के बीच थी बात की खामोशी। विचारों का तूफान शायद हमें अपने-अपने दायरे में घसीट कर पस्त कर रहा था। समझ नहीं पा रही थी कि मुझे इस वक्त क्या कहना चाहिए?
"मैं इस वक्त आपसे एक मदद माँगने आई हूँ। आप चाहें तो न भी कर सकती हैं। आखिर आप मुझे जानती ही कितना हैं?"
अब तक मैं ने थोड़ी सी दुनियादारी सीख ली है। इसलिए सोच कर कहा- "तुम कहो। अगर कर सकी तो ज़रूर कर दूँगी।"
"मैं आपके यहाँ दो-चार दिन रुक सकती हूँ? मैंने अगर कल कमरा खाली नहीं किया तो मुझे पूरे महीने का किराया देना पड़ेगा। मुझे अभी कुछ काम समेटने के लिए वक्त चाहिए।" उसने मुझे कातरता से देखा।
"अर्जुन को सब बताया?"
"हाँ, वह मेरे साथ है। जो भी होगा हम इकट्ठे ही झेलेंगे।"
अगले दिन सुबह दीपा का फ़ोन आया कि उसने किराए का कमरा खाली कर दिया है। बैंक का अभी कुछ काम बाकी है। अगर मुझे कुछ हिचक हो तो वह होटल में भी रह सकती है।
"नहीं-नहीं चली आओ।" मार्च में एक हफ़्ते की छुट्टी होती है। मै घर पर ही थी, अकेली। सोचा, साथ हो जाएगा।
शाम को वह आई, खुले बाल और धूप का चश्मा लगाए हुए। आज वह ज़रा सा मुस्कुरायी।
"अर्जुन कहता है कि जो हुआ, अच्छा हुआ। अब हम लोग ज़्यादा वक्त साथ बिता पाएँगे।"
"कब से जानती हो उसे?" मैंने पूछ ही लिया।
"बहुत सालों से, मेरे भाई का दोस्त था।" वह अनमनी सी हो गई।
"एक बात पूछूँ? अगर तुम्हें मेरा यह प्रश्न ज़्यादा व्यक्तिगत ही न लगे। तुम अर्जुन से विवाह क्यों नहीं कर लेतीं? बाकी सब कुछ तो वैसा ही है।"
"विवाह करने से प्रेम के सारे आयाम बदल जाते हैं।" उसने इस तरह से कहा जैसे उसे पक्का मालूम हो।
"अगर प्यार करने वाला साथी हो तो ज़िन्दगी और भी ख़ूबसूरत हो सकती है।" मैंने उसे सकारात्मक दिशा दिखाने की कोशिश की।
"तब भी नहीं होती।" उसने दृढ़ता के साथ कहा।

कहीं कुछ फाँस सी चुभी। मेरी सोच के पर्दे के पीछे रमा बहन झिलमिला गईं। विवाह के बाद उनके क्या आयाम बदले होंगे? मेरी सहेलियाँ अक्सर उनके बारे में बातें करती थीं। शादी के तीन साल बाद एक छोटी सी बच्ची को लेकर वे दोनों एक स्वर्ग की तलाश में अमरीका आए थे। इंजीनियर पति को शुरु के संघर्ष के दिनों में रात की शिफ़्ट में नौकरी मिली। देर गए रात को लौटते हुए, किसी ने नशे की ज़रूरत को पूरा करने के लिए पिस्तौल तान कर जेबें खाली करवा लीं। फिर जाते वक्त पीछे से गोली भी दाग़ दी। गोली रीढ़ की हड्डी में अटक गई। अपाहिज हो गए वे। रमा बहन ने लोगों के लिए रोटियाँ बेलनी शुरु कर दीं। बच्चों की बेबी-सिटिंग, कपड़े सिलने, जो-जो वह कर सकती थीं। पति को कभी रैस्पीरेटर लगता, कभी हट जाता- वह सेवारत थीं। अचेत पड़े पति को देखती तो बस देखती रह जातीं।
"बस, यह ज़िन्दा रहें, सुहाग है मेरा।" वह अक़्सर यही कहतीं। जो भी सुनता, उनके प्रति एक करुणा मिली श्रद्धा से भर जाता।
"आजकल के ज़माने में ऐसी औरत? कौन मानेगा कि अब भी सीता और सावित्री जैसी औरतें हो सकती हैं?" मुझे खोया हुआ देख, दीपा अपना बैग और सूटकेस उठाकर ले आई।
"वैसे मेरे लिए तकलीफ़ करने की ज़रूरत नहीं। मैं नीचे सोफ़े पर भी सो सकती हूँ।"
"नहीं-नहीं, ऊपर का कमरा खाली है, तुम वहीं आराम से रहो।"
मैं कमरा दिखाने के लिए धीरे से उठी। वह फ़ुर्ती से एक बारगी में ही सब कुछ उठा कर सीढ़ियाँ चढ़ गई। सामान रख कर खिड़की के बाहर झाँका। चुपचाप देखती रही।

"मेरे पास भी ऐसा ही घर था।" उसने जैसे अपने आप से कहा।
"भारत में?"
"नहीं, यहीं टैक्सास में"।
मुझे कुछ समझ नहीं आया। यह तो कह रही थी कि कैनेडा में रहती है। माँ-बाप भारत में है। अभी-अभी नौकरी लगी थी फिर यह घर कहाँ से आ गया?
कुछ पूछना अधिकार की सीमा लाँघने जैसा लगा।
"चलो थोड़ा आराम कर लो। मेरी छुट्टियाँ हैं, रात को कुछ हल्का सा बना दूँगी।"
मैं नीचे आ गई। आवाज़ों से ज़ाहिर था कि वह लम्बे फ़ोन वार्तालापों में व्यस्त थी।
काफ़ी वक्त के बाद वह नीचे उतरी तो मैंने मेज़ पर खाना लगा दिया।
परांठे का कौर तोड़ते ही बोली- "आपने बनाए हैं?"
"नहीं, रमा बहन ने।" मैंने सफाई दी।

"एक है औरत जो पिछले सत्ताईस सालों से बीमार पति की सेवा-शुश्रुषा कर रही है। बेटी पढ़ा कर ब्याह दी। कुछ लोग उसकी मदद भी कर देते हैं। हैरानगी की बात यह है कि कभी उसके चेहरे पर शिकन पड़ते नहीं देखी। मैंने रमा बहन की सारी कहानी उसे सुना दी। दीपा अजीब सी निगाहों से मुझे देख रही थी। वह चुपचाप कौर तोड़ती, सब्ज़ी लपेटती फिर जैसे मुँह में डालना भूल जाती। मैं उसके चेहरे पर आ-जा रहे भावों की लिपि पढ़ने की कोशिश कर रही थी। उसने मुझे अपनी ओर देखते देख लिया। जल्दी -जल्दी निवाले निगलने लगी।
कोई सुर बेसुरा हो रहा था। मैं पानी रखना भूल गई थी। लेने के लिए उठी तो उसने अचानक खाते-खाते हाथ रोककर कहा - "मैंने उस दिन अपनी उमर ग़लत बताई थी। मैं उससे पाँच साल बड़ी हूँ।"
मैं हँस दी। सोचा, मुझे क्या फ़र्क पड़ता है। फिर भी कहा-"पर झूठ क्यों बोलना?"
"पता नहीं, बोलने के बाद ही पता चलता है।" फिर अपने आप ही बुदबुदाती सी बोली- "असल में बचपन से ही झूठ बोलने की आदत सी पड़ गई है। पापा बहुत सख़्त और भयंकर गुस्से वाले थे। जान बचाने का एक ही हथियार था कि साफ़ झूठ बोल जाओ। अब तो पता ही नहीं लगता कि झूठ बोल गई हूँ। पर बाद में अपने ऊपर बहुत शर्म आती है। आपसे मैं झूठ बोल नहीं सकती।"
"क्यों?" प्रश्न मेरे अन्दर ही अटका रह गया।

वह यहीं लौट आई। सहज होकर फिर से खाना खाने लगी।
"आपके हाथ का खाना मुझे अपनी माँ की याद दिला गया।"
मैं नरम पड़ गई। शायद इसी लिए सच बोलने की कोशिश कर रही है।
"तुम्हारी माँ को क्या तुम्हारे और अर्जुन के साथ रहने के बारे में पता है?"
"बिना शादी के", शब्द मैंने सेंसर कर दिये। सभ्यता के नियम के अनुसार इस तरह की बातें पूछना किसी के निजी जीवन की बातों में दख़ल देना माना जाता है। पर मेरे हिसाब से इसे अपनापन कहते हैं।
"हाँ, मेरे घर में सबको मालूम है और वह इसका बुरा भी नहीं मानते।"

अब चौंकने की बारी मेरी थी।
"अब क्या बुरा मानना?" उसने कहीं दूर देखते हुए कहा।
मुझे लगा कि दीपा के जीवन के बारे में कुछ है जो इसे कभी मुस्कुराने नहीं देता। उत्सुकता तो थी मुझे पर मैं दबा गई।
मुझे यों भी देर रात गए तक नींद नहीं आती। अब पति घर पर नहीं थे तो वैसे भी सब उखड़ा -उखड़ा सा लग रहा था। रात को सोने की तैयारी करने के बाद फिर से फ़ैमिली-रूम में कोई पुरानी रोमानी पिक्चर लगा कर बैठ गई। कमरे में रोशनी तो धीमी थी ही आवाज़ भी धीमी कर दी ताकि दीपा को कोई परेशानी न हो।

सीढ़ियों से उतरते गाउन की झलक मुझे दिखी। नींद शायद उसे भी नहीं आ रही थी।
"मैं भी आपके पास आकर बैठ जाऊँ?" उसने बच्चों जैसी मासूमियत के साथ पूछा।
"आओ," मैंने रिमोट से "म्यूट" का बटन दबाकर फ़िल्म को गूँगा कर दिया।
वह पास आकर खड़ी हो गई। फिर चहक कर पूछा, "आप चाय पियेंगी?"
"ज़रूर", मैंने उसी लहज़े में जवाब दिया।
वह लपक कर किचन में चली गई। थोड़ी देर में चाय के दो बड़े-बड़े मग भर कर ले आई। अगर हम मर्द होतीं तो शायद हमारे हाथ में मय के गिलास होते। हमने कुछ उसी अन्दाज़ से चाय के प्याले टकराए - "चीअर्स"।
"नींद नहीं आई?" मैंने बड़ी कोमलता से पूछा।
"नहीं। मन में पता नहीं क्या-क्या घुमड़ता रहता है?"
"शादी कर लो। घर - गृहस्थी में व्यस्त हो जाओगी तो सब घुमड़ना बन्द हो जाएगा।" आखिर मेरी जुबान धोखा दे ही गई।
"वह भी कर के देख लिया।" लगा जैसे वह कुछ कहना चाहती है। टेलीविज़न की तस्वीरों की परछाईं उसके चेहरे पर कई रंग फेंक रही थी। मैं चुप हो गई।

रात के अन्धेरे में एक अजीब-सी खामोशी होती है। जिसमें इन्सान के अन्दर का शोर अपने-आप अन्दरूनी परतें खोलता जाता है। दो इन्सान जब गई रात को आमने-सामने बैठ कर बातें करते हैं तो औपचारिकता का भेष बदल जाता है। वह आत्मीयता बन कर, हाथ पकड़ सब कुछ सुनती-समझती है।
"पता नहीं क्यों लगता है कि मुझे आपसे कुछ छिपाना नहीं चाहिए।"
"मैं सुन रही हूँ।"
उसकी आवाज़ जैसे किसी गहरे कुएँ से निकल रही थी।
"मेरी शादी हुई थी। वह मुझसे बहुत प्रेम करता था - नाम नहीं बताऊँगी। मेरी हर ज़रूरत का ख़्याल रखता था। तब मैं यहाँ अकेली पढ़ रही थी। मेरे घर वालों ने ही उसे मेरा पता दिया ।"

वह चुप कर गई। चाय का घूँट भरती और मग को आखों के आगे यों कर लेती कि मैं उसका चेहरा न देख पाऊँ। जैसे अपने-आप से ही लुका-छुपी खेल रही हो। मुझे लगा वह अपने आप से ही बातें कर रही है।
"मेरा मन तो अर्जुन के बारे में ही सोचा करता था। उसकी और मेरी कहानी अधूरी ही रह गई। मेरा मन उसका आखिरी सिरा ढूँढने के लिए सर पटका करता। अर्जुन ने भारत में रहते हुए कभी न बताया न जताया ही कि उसके मन में मेरे लिए क्या भाव हैं। मैंने उसे बताया भी कि मैं स्कॉलरशिप पर अमरीका पढ़ने जा रही हूँ। तब भी उसने न रोका न ही कुछ कहा। हम लोग अलग-अलग दिशाओं में मुड़ गए। उसने तो मेरा जाना चुपचाप स्वीकार कर लिया, पर मैं छटपटाती रही। मुझे इस भावना की पूर्णता चाहिए थी। इस अधूरी कहानी को संजोये मैं ज़िन्दगी में लड़खड़ा रही थी। तभी यह नया आदमी मेरी ज़िन्दगी में आया। ऐसे में जब कोई हर समय आपकी हर ज़रूरत, हर इच्छा को सर्वोपरि रखे तो प्यार का भ्रम होना स्वाभाविक था। मुझे भी लगा कि यही मेरा सम्बल है। यह मुझे संभाल लेगा। मैंने उससे विवाह कर लिया।

हम लोगों ने एक घर ख़रीदा, सँवारा। पर मुझे हमेशा लगता कि मैं ख़ुश नहीं। तभी अर्जुन भी नौकरी के सिलसिले में लन्दन आ गया। जब पहली बार उसका फ़ोन आया तो मैं पुराने दर्द से बिलबिला गई। उसके फ़ोन ज़्यादा आने लगे। मेरे पति को सब मालूम था। धीरे-धीरे उन्हॊने अपने अधिकार का उपयोग करना शुरु कर दिया।
"अर्जुन से दोस्ती का कोई मतलब नहीं, फ़ोन बन्द।"
मैं बाहर जाकर चोरी-चोरी फ़ोन करती। झूठ बोलती। घर में रोज़ झगड़े होने लगे। मुझे नियन्त्रण खलता उसे मेरी आज़ादी।"
वह चुप कर गई। मेरे चेहरे को देखा। उसे लगा होगा कि मैं सुन तो रही हूँ पर उसके साथ-साथ नहीं चल रही। मेरे दिमाग़ में रमा बहन बैठी मुस्कुरा रही थीं।
"मैंने इस शादी को बचाने की कोशिश तो की। हम लोग मैरिज-कौंसलर के पास भी गए।"
"फिर?" मैं उत्सुक थी।
"उसने कहा....", वह रुकी। शब्दों को टटोलने लगी । उसका चेहरा उम्र की कितनी सीढ़ियाँ चढ़ गया।
"उसने कहा था कि मैं अपने पति से प्यार नहीं करती और मुझे अलग हो जाना चाहिए।" एक झटके से उसने कह दिया जो कहना था।
अब वह चुप थी पर मैं पूरी तरह सजग हो गई।

"इसमें तुम्हारे पति का क्या दोष? वह तो तुम्हें प्यार करता था।"
"हाँ, मैंने उसकी ज़िन्दगी भी तबाह कर दी।"
हल्के अन्धेरे में दीपा कि आँखें झिलमिलायीं। आँसू पूरी तरह से गालों पर बह रहे थे जिन्हें पोंछने की उसने कोशिश भी नहीं की।
मैं अपने मूल्यों और मान्यताओं की गुंजलक में जकड़ी पड़ी थी। सांत्वना के लिए शब्द ही नहीं सूझे। मुझे लग रहा था जैसे मेरे अन्दर कोई विरोधी पार्टी की रैली हो रही है। कई बौने, मूल्यों के झंडे उठ-उठा कर विरोधी नारे लग रहे हैं। नारों का शोर तो है पर साफ़ कुछ भी नहीं। चुप्पी का कोलाहल।
थोड़ी देर बाद उसने ही तोड़ी यह चुप्पी।
"पर मैंने भी तो इस तलाक़ के समझौते पर सभी अधिकार छोड़ दिए। पैसा, मक़ान में हिस्सा कुछ नहीं लिया। सभी कुछ तो मैंने उसका ले लिया था, अब और बचा ही क्या था लेने को।"
वह फिर से रो पड़ी। चुपचाप रोती रही। मैं भी चुपचाप बैठी रही।
फिर वह धीरे से उठी। "सॉरी" कहकर अपने कमरे की ओर मुड़ गई।
"गुड नाइट" मैंने धीरे से कहा। जानती थी कि अभी न वह सो पाएगी और न ही मुझे नींद आएगी। रमा बहन की कामनाओं का ध्यान आता रहेगा जो रैस्पीरेटर के बिना दम तोड़ती होंगी।
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अभी मै मशीनी तरीक़े से नाश्ते का इंतज़ाम कर ही रही थी कि दीपा पूरी तरह तैयार होकर सामने आ गई- जैसे कहीं बाहर जाने वाली हो। बिल्कुल तरोताज़ा, खिली हुई।
मैं उसे देखती रह गई। मेरे दिलो-दिमाग में अभी भी रात की बातें हावी थीं और वह जैसे पुरानी कुंचलक उतार कर कोई नई ही दीपा सामने खड़ी हो गई।
"सुबह अर्जुन का फ़ोन आया था। वह आज दोपहर की फ़्लाइट से न्यूयॉर्क पहुँच रहा है। उसकी तीन दिन की कोई मीटिंग है। मैं भी यह तीन दिन उसके साथ ही रह लूँगी। फिर वहीं से हम लोग इकट्ठे कैनेडा लौट जाएँगे।"
मैं कुछ उलझी सी थी। उसने तो अभी मेरे यहाँ दो- तीन दिन और रहना था।
"आप प्लीज़ मुझे बस-स्टॉप तक छोड़ दीजिए। मैं वहीं से मैनहट्टन चली जाऊँगी। जब तक मैं होटल पहुँचूगी, तब तक अर्जुन भी आ जाएगा।"

नाश्ता करने के बाद उसने अपना सामान कार के ट्रंक में रख दिया। वह मेरे साथ कार में धूप का चश्मा लगाए बैठी थी। बाल उसने खोल कर छितरा लिए। मैं रात और इस वक्त वाली दीपा में तालमेल बिठाने की कोशिश करने लगी। बस आने में देर थी। खिड़कियों के शीशे नीचे कर के हम दोनों खामोश बैठे रहे। जानती थी कि मैं उससे फिर कभी नहीं मिलूँगी। इस शहर ने उसे जो कड़ुवाहट दी थी, वह फिर कभी लौट कर उसे याद नहीं करना चाहेगी। फिर भी कह दिया- "कभी आना। घर पहुँच कर फ़ोन कर देना।"

लगा, जैसे उसने सुना नहीं। स्टैंड पर आती हुई बस को देखती रही। उसका चेहरा तना हुआ था। मैंने ट्रंक का दरवाज़ा खोलकर उसका सामान निकाला। वह बैठी रही। बस आकर लग गई। अभी लम्बी लाईन थी। वह कार से निकली। बैग कंधे पर डाला, सूटकेस हाथ में उठाया। पहली बार उसने मुझे भरपूर नज़रों से देखा।
"मैं आपको एक और बात बता देना चाहती हूँ.."उसने होठों को भींचा,
"...कि मैं रमा नहीं हूँ।" कह कर वह पलटी और लाईन में लग गई।

मैं फिर से कार में बैठ कर बस की सरकती लाईन को देखती रही।
वह धीरे से बस की सीढ़ियाँ चढ़ी और बाएँ घूमी। मैंने हाथ हिलाया।
उसने कोई जवाब नहीं दिया और आगे बढ़ गई।

११ मार्च २०१३

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