व्यक्तित्व


हिन्दी के उन्नायक : स्वामी दयानंद सरस्वती
कुमुद शर्मा


हिंदी की उन्नति और विकास में स्वामी दयानंद सरस्वती का योगदान वरदान की तरह हिंदी को मिला। यह सही है कि उन्होंने अन्य हिंदी निर्माताओं की तरह एक सर्जक की भूमिका नहीं निभाई, हिंदी साहित्य की विभिन्न विधाओं में अपनी विपुल मौलिक सृजनात्मक संपदा हिंदी साहित्य को नहीं सौंपी; लेकिन एक सुधारक चिंतक और विचारक की भूमिका में उनके तेजस्वी और निर्भीक व्यक्तित्व ने अपने भाषणों और लेखनी से हिंदी भाषा को अभूतपूर्व शक्ति और सामर्थ्य दी।

हिंदी के विकास के उस क्रम में जब उसका स्वरूप निश्चित नहीं हुआ था, जब वह संस्कृत और उर्दू से दबी हुई थी, उस समय स्वामीजी ने जनता के मानस में गहरे अंतःप्रवेश करने वाली भाषा को ढूँढ निकाला। व्यंग्य-विनोद से युक्त, कहावतों-मुहावरों से संपन्न उपयुक्त भाषा-शैली तलाश कर हिंदी गद्य को उन्होंने सहज, संप्रेषणीय और प्राणवान स्वरूप प्रदान किया। उनकी हिंदी सेवा और उनके सामाजिक, सांस्कृतिक, शैक्षिक व धार्मिक आंदालनों का प्रभाव तत्कालीन हिंदी साहित्य जगत पर ही नहीं बल्कि उनके निधन के कई वर्षों बाद रचे जाने वाले साहित्य पर भी पड़ा। हिंदी साहित्य के इतिहास में स्वामीजी के प्रभावकारी हस्तक्षेप को श्री रामधारी सिंह ’दिनकर’ की ये पंक्तियाँ बखूबी निर्धारित करती हैं- ’रीतिकाल के ठीक बाद वाले काल में हिंदीभाषी क्षेत्र में जो सबसे बड़ी सांस्कृतिक घटना घटी, वह थी स्वामी दयानंद का पवित्रतावादी प्रचार। इस पवित्रतावादी प्रचार से घबराकर द्विवेदीयुगीन कविगण नारी के कामिनी रूप से आँखें चुराने लगे। इस युग के कवियों को शृंगार की कविता लिखते समय यह प्रतीत होता था कि जैसे स्वामी दयानंद पास ही खड़े सब कुछ देख रहे हों। इस भय से छायावादी कवि भी प्रत्यक्ष नारी के बदले ’जूही की कली’ अथवा ’विहंगनियों’ का आश्रय लेकर अपने भावों का रेचन करने लगे।’

स्वामी दयानंद सरस्वती का जन्म सन १८२४ में गुजरात के मोरवी नगर में हुआ था और निधन ३० अक्तूबर, १८८३ को अजमेर में हुआ। उनका वास्तविक नाम मूलशंकर था। उन्होंने प्रारंभिक शिक्षा पिता से ग्रहण की। पिता से ही संस्कृत का ज्ञान अर्जित किया और वेदों का पाठ सीखा। शिवरात्रि के दिन शिव मंदिर में रात्रि जागरण की एक घटना ने बालक मूलशंकर को आंदोलित कर इस सीमा तक मथा कि उसका मन मस्तिष्क चिंतन की नई-नई दिशाओं में कुछ खोजने और पाने को आतुर हो उठा। चिंतन-मनन के कई पड़ावों से गुजरकर वे उन्नीसवीं सदी के स्वामी दयानंद सरस्वती बने तथा चिंतक और विचारक की भूमिका में नवजागरण का संदेश लेकर अपने कर्मक्षेत्र में अवतरित हुए। गुरु दंडी स्वामी विरजानंद सरस्वती की प्रेरणा से उन्होंने आर्यसमाज की स्थापना की, जिसने राष्ट्रीय, सांस्कृतिक और सामाजिक जागरण के साथ-साथ हिंदी भाषा और साहित्य को भी संवर्धित किया।

यह कम उल्लेखनीय नहीं है कि स्वामीजी की भाषा गुजराती थी। वे संस्कृत के प्रकांड विद्वान थे, लेकिन उन्होंने हिंदी को जन-जन के लिए उपयुक्त भाषा मानकर उसे ’आर्य भाषा’ की संज्ञा दी। इस ’आर्य भाषा’ को राष्ट्रव्यापी बनाने का सपना सँजोया-’मेरी आँखें तो उस दिन को देखने के लिए तरस रही हैं जब कश्मीर से कन्याकुमारी तक सब भारतीय एक भाषा को समझने और बोलने लग जाएँगे।’ स्वामीजी स्वभाषा, स्वधर्म और स्वसंस्कृति को राष्ट्रीयता का रचनात्मक और भावात्मक आधार मानते थे, इसलिए वे भिन्न-भिन्न भाषा, पृथक् शिक्षा और सांस्कृतिक भिन्नता तथा व्यवहार का भेद मिटाना चाहते थे। भाषाई एकता के लिए उन्होंने श्री केशवचंद्र सेन की प्रेरणा से हिंदी में ही अपने धार्मिक विचारों और भावों को वाणी दी। हिंदी ही उनके उपदेशों की संवाहिका बनी। हिंदी में ही उन्होंने ग्रंथ लिखे। वाणी और लेखनी के सहयोग से हिंदी का स्वरूप निर्धारण करने में उन्होंने अपनी ऐतिहासिक भूमिका निभाई।

आर्यसमाज की स्थापना के साथ-ही-साथ स्वामी जी ने हिंदी में ही कार्य करना शुरू कर दिया। संस्कृत में पूर्व प्रकाशित ग्रंथों का हिंदी में अनुवाद हुआ। आर्यसमाज का मूल आधार समझा जाने वाला उनका बहुचर्चित ग्रंथ ’सत्यार्थ प्रकाश’ मूल रूप से हिंदी में ही रचित है। ’सत्यार्थ प्रकाश’ के द्वितीय संस्करण की भूमिका में स्वामीजी लिखते हैं-’जिस समय यह ग्रंथ आया उस समय और उससे पूर्व संस्कृत में भाषण करने, पठन-पाठन में संस्कृत ही बोलने और जन्मभूमि की भाषा गुजराती होने कारण मुझको इस भाषा का विशेष परिज्ञान नहीं था, इससे भाषा अशुद्ध हो गई थी। अब भाषा बोलने और लिखने का अभ्यास हो गया है, इसलिए इस ग्रंथ को भाषा व्याकरणानुसार शुद्ध करके दूसरी बार छपवाया है।’ यह स्वीकारोक्ति इस बात का प्रमाण है कि उन्होंने वैदिक धर्म और विचारों के प्रचारार्थ तथा जन-जागरण हेतु हिंदी को अपनाकर हिंदी का मार्ग किस तरह प्रशस्त किया। हिंदी के उद्धार और उन्नति की उन्हें कितनी चिंता थी, इसका ज्वलंत प्रमाण सन १८७८ में श्री श्याम जी कृष्ण वर्मा को उनका लिखा एक पत्र है-’अबकी बार भी वेद भाष्य के ऊपर देवनागरी नहीं लिखी गई। जो कहीं ग्राम में अंग्रेजी पढ़ा न होगा तो अंक वहाँ कैसे पहुँचते होंगे और ग्रामों में देवनागरी पढ़े बहुत होते हैं।...इसलिए अभी इसी पत्र के देखते ही देवनागरी जाननेवाला मुंशी रख लेवें, नहीं तो किसी रजिस्टर के अनुसार ग्राहकों का पता किसी देवनागरी वाले से नागरी में लिखाकर पास किया करें।’

हिंदी के प्रति उनके उत्कट प्रेम और जुड़ाव को व्यक्त करनेवाले अनेक उदाहरण उनके जीवन-चरित्र में घुले-मिले हैं। भारत की करोड़ों-करोड़ जनता यदि अज्ञान और अविद्या के अँधेरे में है तो स्वदेश की भूमि को छोड़कर विदेशों में वैदिक आदर्शों के प्रचार-प्रसार को उन्होंने अनुचित माना और अंग्रेजी सीखकर धर्म प्रचार हेतु विदेश यात्रा का प्रस्ताव भी ठुकराया। अपने ग्रंथों के अनुवाद की अनुमति भी हिंदी प्रेम के कारण नहीं दी-’जिन्हें सचमुच मेरे भावों को जानने की इच्छा होगी वे इस ’आर्य भाषा’ को सीखना अपना कर्तव्य समझेंगे।’

स्वामी जी ने हिंदी साहित्य सृजन की दृष्टि से कविता, कहानी, उपन्यास, नाटक भले ही न लिखे हों, लेकिन धर्म-प्रचार और आर्यसमाज के उद्देश्यों, सिद्धान्तों और विचारों के प्रचार-प्रसार के लिए उन्होंने जिस साहित्य का निर्माण किया, उसने कई अर्थों में हिंदी को बढ़ाया। ’सत्यार्थ प्रकाश’ के अतिरिक्त उनके अन्य ग्रन्थ हैं-’अनुभ्रमोच्छेदन’, ’अष्टाध्यायी भाष्य’, ’आत्मचरित’, ’आर्याभिविनय’, ’आर्योद्देश्य रत्नमाला’, ’कुरान-हिंदी’, ’गोकरुणा-निधि’, ’गौतम-अहल्या की कथा’, ’जालंधर की बहस’, ’पंचमहायज्ञविधि’ (संध्या भाष्य), ’भाव्यार्थ’, ’पोपलीला’, ’प्रतिमापूजन विचार’, ’प्रश्नोत्तर हलधर’, ’प्रश्नोत्तर उदयपुर’, ’भ्रमोच्छेदन’, ’मेला चाँदपुर’, ’ऋग्वेदादि-भाष्यभूमिका’, ’ऋग्वेद भाष्य’, ’यजुर्वेद भाष्य’, ’वेदविरुद्ध मत खंडन’, ’वेदांतिध्वांत निवारण’, ’व्यवहारभानु’, ’शिक्षापत्री ध्वांत निवारण’, ’संस्कार विधि’, ’संस्कृत वाक्य प्रबोध’, ’सत्यासत्य विवेक’, ’वर्णोच्चारण’, ’संधि विषय’, ’नासिक’, ’आख्यातिक’, ’पारिभाषिक’, ’सौवर’, ’अनादि कोष’, ’निघंटु’, ’पाणिनि के ग्रंथ अष्टाध्यायी, धातुपाठ, गणपाठ, शिक्षा और प्रातिपदिक’ और ’आलंकारिक कथा’।

भारतीय पुनर्जागरण की अग्रदूत मानी जाने वाली विभूतियों में ही नहीं बल्कि आधुनिक हिंदी निर्माताओं में स्वामी दयानंद सरस्वती का नाम हमेशा स्मरणीय रहेगा। उन्होंने हिंदी गद्य की शक्ति को बढ़ाकर सच्चे अर्थों में ’राष्ट्र भाषा के भवन निर्माण’ की बुनियाद रखी।

११ मार्च २०१३