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					इस सप्ताह-  | 
				 
				
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                   अनुभूति 
					में- 
					मधुकर अष्ठाना, 
					हस्ती मल हस्ती, ललित अहलूवालिया आतिश, अरुणा सक्सेना और 
					अब्बास रज़ा अल्वी की रचनाएँ।  | 
				 
				 
 
              
              
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					साहित्य व संस्कृति में- 
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					1 
					
                    समकालीन कहानियों में भारत से 
                    अमिता नीरव की कहानी 
					बोनसाई 
                    
					
					
					  
					
					
					ट्रेन निकल गई और प्लेटफॉर्म 
					बहुत हद तक खाली हो गया...सुमि को लगा कि एक बंधन के खुल जाने 
					से उसकी जिंदगी की पोटली खुलकर बिखर रही है... वह एकाएक 
					निरुद्देश्य...निरुपाय और निराश्रित हो आई...रेल गुजर जाने के 
					बाद भी वह वहीं रुकी रह गई...वह दो बार प्लेटफॉर्म के अंतिम 
					सिरे तक होकर आ चुकी थी। घर जैसी किसी भावना का सिरा ही पकड़ 
					में नहीं आ पा रहा है। यूँ लग रहा है उसे जैसे वह बिना किसी 
					तैयारी के युद्ध में ढ़केली गई है। आदत की लकड़ी के तड़ाक से 
					टुकड़े हो चुके हैं और एक आकारहीन, खुरदुरा सा सिरा निकल आया था। 
					मेधा के बिना उसकी आत्मा सूनी हो आई थी। मेधा- उसकी बेटी, पति 
					के असमय दिवंगत हो जाने से उसके जीवन में मेधा के सिवा अब कुछ 
					न रह गया था।
					वह प्लेटफॉर्म पर बहुत देर तक बैठी रही। मुम्बई जाने वाली 
					ट्रेन के निकल जाने के बाद स्टेशन की भीड़ छँट चुकी थी। 
					इक्का-दुक्का यात्री के अलावा ठेले वाले, रेलवे के स्टॉफ के 
					लोगों के साथ बड़ा और खुला सा स्टेशन और खुल गया।... 
					
					विस्तार से पढ़ें... 
					 
                    सुरेश यादव की लघुकथा 
					
					करवाचौथ 
					
					
					* 
                    
                    
      शशिपाधा का संस्मरण 
		विजय स्मारिका 
					
                    * 
					
      रंगमंच में सूर्यकांत जोशी का आलेख 
		'त्रियात्र'
		-
		गोवा का अनोखा लोकनाट्य 
		 
		
					
                    * 
                    
      पुनर्पाठ में रति सक्सेना से सुनें 
      आस की कथा प्यास की व्यथा  | 
                   
                  
                    | 
                     
                    
					
					अभिव्यक्ति समूह 
					की निःशुल्क सदस्यता लें।  | 
                   
                   
                 
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                    पिछले 
					सप्ताह- | 
		 
		
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					1 
					डॉ. अशोक गौतम का व्यंग्य 
					हाय रे मेरे भाग 
					
					
					* 
                    
      मनोहर पुरी का आलेख 
		दसों पापों को हरने वाला दशहरा 
					
                    * 
					
      शैलेन्द्र पांडेय के साथ पर्यटन  
		धनुषकोटि जहाँ राम ने सेतु बाँधा था 
		
					
                    * 
                    
      मानोशी चैटर्जी के साथ देखें 
      पुनर्पाठ में- चंदनपुर की 
		जगद्धात्री पूजा 
		
                    * 
                    साहित्य संगम में भारत से 
					रवीन्द्रनाथ ठाकुर की 
                    बांग्ला कहानी का हिंदी रूपांतर-
					
					
					विद्रोही 
                    
					
					
					  
					
					
					लोग कहते हैं अँग्रेजी पढ़ना और 
					भाड़ झोंकना बराबर है। अँग्रेजी पढ़ने वालों की मिट्टी खराब 
					है। अच्छे-अच्छे एम.ए. और बी.ए. मारे-मारे फिरते हैं, कोई 
					उन्हें पूछता तक नहीं। मैं इन बातों के विरुद्ध हूँ। अँग्रेजी 
					पढ़-लिखकर मैं डॉक्टर बना हूँ। अँग्रेजी शिक्षा के विरोधी तनिक 
					आँख खोलकर मेरी दशा देखें। सोमवार का दिन था। सवा नौ बजे मेरे 
					मित्र बाबू सन्तोषकुमार बी.एस-सी. एक नवयुवक रोगी को साथ लिये 
					मेरे दवाखाने में आये। उस रोगी की आयु अठारह-उन्नीस से अधिक न 
					थी। गेहुआँ रंग, बड़ी-बड़ी आँखें, गठीला शरीर, कपड़े स्वदेशी, 
					किन्तु मैले थे। सिर के बाल लम्बे और रूखे। सन्तोषकुमार ने 
					युवक का परिचय कराते हुए कहा- आप जिला नदिया के निवासी हैं, 
					नाम ललित हैं। एम.ए. में पढ़ते थे; परन्तु किसी कारणवश कॉलेज 
					छोड़ दिया। मैंने मुस्कराते हुए पूछा- आजकल आप क्या करते हैं?... 
					
					विस्तार से पढ़ें...  | 
		 
		
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