पीपल के पात और भीत पर उगा चांद ––
आस की कथा–प्यास की
व्यथा
डा रति सक्सेना
गोबर में गेरुआ मिट्टी मिला कर
आँगन पर सटासट हाथ चलाती
माईं को देख कर ऐसा लगता कि मानों कोई चित्रकार बड़ी सहजता
से आसमान में रंग भर रहा हो। माई के घर हर त्योहार एक
उत्सव का रूप धर लेता था। त्यौहार का साथ देता था गोबर से
लिपा आँगन और उसमें उकरे बेल–बूटे।
दशहरा आने से पहले ही घर सफाई करनी है... माईं बुरी तरह
व्यस्त हो गईं हैं। इतना बड़ा खानदान, आने–जाने वालों का
रेला लगा रहेगा। रामलीला भी तो शुरू हो गई... हर चौराहे
पर रामलीला... माई मामा से चिरौरी करतीं... इस बचिया
को रामलीला दिखा दो जी... न जाने फिर कभी देख पाएगी या
नहीं। लिहाजा मौसेरे भाइयों के साथ रामलीला देखने का मौका
मिल जाता। मुझे तो नींद इतनी आती कि घण्टे–आध घण्टे बाद ही
आँखें मुँद जातीं। मौसेरे भाई गुस्सा होते और धमकाते कि
सोना ही है तो घर पर सोया करो, हम लोगों का मज़ा तो मत
बिगाड़ा करो। फिर भी रामलीला के पात्रों की चिल्लाहट नींद
को एक अजीब–सी ताल–लय देती, सपने में उतरती तैरती रामलीला
का मज़ा भी कुछ कम नहीं होता। दशहरे के दिन रावण को जलता
देखने के लिए कोई मशक्कत थोड़े ही करनी पड़ती थी। विशाल
पुतला, उनमें से निकलते पटाखों की फुट–फुट और फिर सब खत्म,
लेकिन उससे पहले रामलीला का आखिरी अंश जिसमें राम द्वारा
रावण को मरते दिखाया जाता, दिन में ही खेला जाता, रावण दहन
के पहले। मन कहता रावण मरे, पर दिमाग कहता कि इतने लंबे
चौड़े आदमी को इतने नाजुक राम कैसे मार पाएँगे? रावण
हुंकारता, राम पैतरे बदलते, मन दिमाग को
फटकारता और मनाने लगता कि
मरे रावण, जितनी जल्दी हो मर जाए।
इस बड़ी रामलीला के साथ छोटी–छोटी रामलीलाएँ तो हर जगह
होती। कायस्थ सभा के सांस्कृतिक अवसर पर भी रामलीला के अंश
दिखाएँ जाते। वहीं एक बार शबरी प्रसंग की प्रस्तुति थी पर
आखिरी वक्त लक्ष्मण नदारद। कोई और बच्चा नहीं दिखा तो
फटाफट मुझे ही लक्ष्मण के कपड़े पहना दिए। समझा दिया गया कि
और कुछ नहीं करना है, बस जब शबरी बेर दे तो पीछे फेंकते
जाना है। बेर को फेंकना, अपने सबसे प्रिय फल को फेंकना, यह
कैसे संभव है? लेकिन करना तो यही है। मन को समझाया कि बेर
पसंद है तो क्या झूठे बेर खाए जाएँगे? चलो फेंक ही देंगे।
मंच पर प्रसंग के मध्य बेर की टोकरी पर ही ध्यान बना रहा।
जब शबरी और राम प्रेम से बेर प्रसंग निभा रहे थे तो बड़ा
गुस्सा आया, यह क्या शबरी राम से ही बतिया रही है, मुझे
अभी तक पूछा तक नहीं। जब तक अपनी पारी आई तब तक मन में
इतना गुस्सा भर चुका था कि बेर को फेंकने में जरा भी हिचक
नहीं हुई। चेहरे पर गुस्सा, खीज़ आदि भाव बेर न खाए जाने के
कारण थे, पर दर्शकों ने इसे अभिनय का कमाल समझा और बेर
फेंकते ही तालियाँ बजा दी। प्रसंग खत्म होते ही कई लोगों
ने बकायदा पीठ भी थपथपाई, और हम अपने आपको सुपर स्टार
समझते हुए कई दिनों तक
अकड़े–अकड़े फिरे।
दशहरे से ही करवा चौथ लिखनी शुरू हो जाती। माई जीजी को डपट
कर कहतीं – चलो करवा–चौथ लिखना शुरू करो... ससुराल में
क्या करोगी? जीजी मिमियाती हुई माई का साथ देने लगतीं। भीत
को पहले गेरू से लीपा गया... फिर भुस मिले गोबर से... और फिर तौरई के सूखे पत्तों से रगड़ा गया। वाहॐ कितना
खूबसूरत कैनवास तैयार हो गया। अब थोड़ा सा चावल पीसना है... रगड़–रगड़ कर... एपन को कटोरी में रखा... सूत की
डोरियाँ लीं और एपन में डुबा कर गोबर के पटल पर दोनों सिरे
उंगली से दबा कर बीच में टनकार दे दी... लो खिंच गई सीधी
लकीर... कुछ मिटाना है तो तौरई के पत्ते काफी हैं। झाडू
की सींक ली और ऐपन में डुबोया... लो भर्ई आँको सूरज... चन्दा... एक तुलसी का बिरवा... और पीपल के पात... सात भाई की बहन जरूर बनानी है...
और चलनी में दीया रखे भाई भी, फिर चार बुढ़ियाँ... भूख... प्यास... नींद
और आस... इस आस की डोर पकड़ कर ही तो ज़िन्दगी की जंग पार
कर ली जाती है।
"माई मुझे भी लिखनी है करवा चौथ... " जीजी फिस् फिस्
हँसती... "लो माती सुनो अपनी लाडली की बातें...
करवा चौथ लिखेगी यह।"
"तो बुराई क्या है? हर औरत जात को लिखनी पड़ती है। आस की
कथा... प्यास की व्यथा... लो बिटिया... तुम भी लिखो
करवा चौथ... न... न बड़ों वाली नहीं बच्चों वाली। यहां
छोटी सी चौथ... "
करवा चौथ की बगल में ही बच्चा करवा चौथ लिखनी शुरू हो गई।
गोबर के पटल पर सपनों का संसार खिंचना शुरू हो गया।
"भाभी ये क्या कर रही हो... क्या सिखा रही हो इस लौंडिया
को... जानती नहीं जयपुर वाले जीजाजी को यह सब बिल्कुल
पसन्द नहीं... बिल्कुल गँवार ही बना कर मानोगी... ।"
छोटी मौसी का बड़बड़ाना शुरू हो गया।
न जाने इन छोटी मौसी को माई से क्या बैर है? जब देखो तब
उनकी बुराइयाँ करती रहतीं हैं। उस दिन मैंने माई से पूछा
भी था – "ये मौसी आपको बुरा–भला क्यों कहती रहती हैं?" पर
माई सुन कर भी अनसुनी कर गईं। संयुक्त
परिवार मर्यादा को
भली–भाँति जो समझती थीं।
करवाचौथ बीतते न बीतते दीवाली आ गई।
आँगन को न केवल लीपा
गया बल्कि ऐपन से बूटे भी उकेरे गए। दीवाली कोई एक दिन की
थोड़े ही होती है... सब से पहले धन तेरस, घर सज ही गया।
आज से देहरी पर दीया रखना शुरू, नए बर्तन भाँडें आएँगे ही,
सब कुछ कितना दमकने लगा है। घर का कोना कोना कह रहा है,
दीवाली आ रही है, सुना तुमने दीवाली। अगले दिन नरक
चतुर्दशी है... अरे इसे तो रूप चौदस भी कहते हैं... सुबह–सुबह उठ कर तेल लगा कर नहाना–धोना है। माई कहती है
कि रूपचौदस को अँधेरे मुँह नहा–धो लो तो रूप चढ़ता है। माई
झूठ तो बोलती नहीं... धनतेरस की रात से ही तैयारी शुरू
हो जाती प्रातःस्नान की। सुंदर बनने के लिए उन दिनों
ब्यूटी पार्लर थोड़े ही जाना पड़ता था, बस साल दर साल रूप
चौदस का नहान करते रहो। इसी की शाम को छोटी दीवाली भी कहते
हैं। नरकासुर का प्रतीक गोबर का भैंसा देहरी पर रखा, पास
में अकेला घी का दीया, इस अकेले दीए को देख न जाने क्यों
मेरी शाम उदास हो जाती। आज भी हर उदास पल में मौत के साथ
खड़ा अकेला दीया याद आता है। फिर बड़ी दीवाली... लक्ष्मी
गणेश की माटी की मूरत... पूजा होती, मामा आर्यसमाजी थे,
तो बकायदा हवन होता। घी के पाँच दीये, ढेर सारे तेल के
दीये। लक्ष्मी गणेश के सामने बड़ा सा दीया, जिसे रात भर
जलना होता था। शक्कर के खिलौने और खील... बस पूजा के लिए
तो इतना ही काफी है... बड़ी सोच समझ कर बड़े–बूढों ने
रसमें बनाई हैं... गरीब से गरीब भी त्यौहार मना सकता है।
घी के दीयों में से एक पूजाघर में रखा जाता, एक रसोई में,
एक भंडार घर, तो एक पनहटी पर घड़ों के पास रखा जाता और
आखिरी पाखाने और गुसलखाने के बीच रखा जाता। रोशनी में भेद
भाव नहीं, वह तो सभी जगह होनी चाहिए न। दो–चार फुलझड़ियों
और चुटपुट पटाखे बजा कर ही बचपन संतृप्त हो जाता...
कान–फोड़ पटाखों का तो जमाना
ही नहीं था।
दिन पूरी तरह से पसरने से पहले ही गोबर्धन की तैयारी शुरू
हो जाती। आँगन फिर से लीपा जाता, उससे पहले ही दिया–गौर की
पूजा हर पुत्रवती, सुहागवती स्त्री को करनी ही पड़ती, उसके
लिए अलग से चौक बनता, चावल के ऐपन से। खोए के दिया–गौर
बनते, कहानी होती, फिर पूजा। फिर गोबर से गोबर्धन बनाने की
बारी आती। गोबर्धन बनते–बनते दिन चढ़ आता। पूरा का पूरा
वृन्दावन उतर पड़ता आँगन में। ग्वाल–बाले, मठ्ठा चलाती
गोपियाँ, गाय–बछड़े, बाग बगीचे, और झूला झूलते राधा कृष्ण।
धूप तमतमाने लगती पर वृन्दावन की रचना में कोई कमी नहीं... हाय माई, ये औरत मठ्ठा चला रही है, तो दूसरी क्या कर
रही है? इसके सामने की चाकी तो जमी नहीं। सारे बच्चे अति
उत्साहित हो जाते। बीचोबीच बने गोबर की अपेक्षा ग्वालिने
ज्यादा आकर्षित करती हम बच्चों को। समवेत प्रयास से
गोबर्धन तैयार हो जाता। माई के हाथ तो रुक ही नहीं रहे
हैं। आज रसोई में भी तो तमाम व्यंजन बनने हैं। जरा–जरा सी
तमाम तरकारियाँ, ऊँह हमें क्या, हमारा पेट तो खील बताशों
से पहले ही भर चुका है। भूख लगेगी तो शक्कर के खिलौने तो
हैं। गोबर्धन की पूजा कैसे होती, यह तो याद नहीं पर उस
रचना की भागीदारी जरूर यादों में सिमटी हैं।
रात बीती नहीं कि सुबह की तैयारी... बचे एपन से चौक पूरा
किया गया, भाईदूज की पूजा जो होनी है... बड़ी बूढ़ियों को
तो अँधेरे मुँह नहाने–धोने की आदत होती है... पर भाईदूज
की पूजा करने वाली सभी को नहाना पड़ेगा... मैं क्यों
नहाऊं? मेरा तो भाई ही नहीं... धत्... ऐसे थोड़े ही
कहते हैं... पूजा करेगी तो भाई अपने आप हो जाएगा... लो
मंडना फिर से तैयार... मंडना क्यों पूरी कथा कह लो नॐ यह
चाकी, यह दरवाजा, ये मंडप... ये भाई और ये री बहन... बिना भाई की बहन... ब्याह के बाद ससुराल पहुंची तो रोज
ताना मिले... रोज ताना मिले कि बिना भाई की बहन है... वह मन्नत माने कि हे ईश्वरॐ एक भाई दे दे... नन्हा सा
भाई... ईश्वर ने सुन ली... खबर मिली कि घर में भाई हुआ... अब भाई बड़ा हुआ तो बहन की सुध ली... अपने ब्याह का
समय आया तो चल दिया बहन को बुलाने...
बहन मुंह–अंधेरे उठ
चाकी पीस रही थी,... भाई ने आकर अपना परिचय दिया तो खुशी
से बावली हो गई... हाबड़तौड़ में ध्यान ही नहीं रहा... एक सांप का बच्चा पिस गया आटे के साथ... दौड़ी–दौड़ी
पड़ोसन के पास गई... बहन बता तो... कैसे करूं अपने भाई
का सत्कार... पड़ोसन ने चुटकी ली... घी का चौक पूर भाई
को बैठा और घी से आटा माँड लड्डू बना खिला दे... भाई ने
बहन को बुलौवा दिया और साथ चलने की जल्दी मचाई... खाने–पीने का समय ही कहाँ उसके पास?... बहन मन दुखी
करती बोली... कैसे आऊँ भैय्या... एक बच्चा खटौले पर एक
गोदी में तो एक पालने में, जीजा तुम्हारे खेत में... घर
में बिलैय्या, बिलौटा, गैया बछड़े... सभी तो हैं... इन
सब को छोड़ कर कैसे आऊं तुम्हारे साथ? भाई दुखी होकर चल
दिया... बहन ने घी के लड्डू साथ रख दिए . . थोड़ा उजाला
हुआ तो बहन ने बचे लड्डू बच्चों के लिए निकाले... देखा
तो दंग रह गई... लड्डू नीले कच्च... सांप की केंचुल
चुपकी पड़ी थी... बहन ने आव देखा न ताव... चूल्हे पर
तवा... पालने पर बच्चा... दूध पीती बछिया... सभी को
छोड़–छाड़ जो भागी तो सीधे पहुंची भाई के पास...
उससे
लड्डू छीन कर फेंके ही थे कि उसे पंछियों की बातचीत सुनाई
दी कि भाई की जिन्दगी का अन्त आने वाला है, उसकी तो
जिन्दगी ही इतनी थी कि बहन बिन भाई की नहीं कहलाए... उसके बचने का इलाज भी बहन के पास है। अब इतने मिन्नतों से
मांगे भाई को बहन कैसे छोड़ देती... सो लग गई उसके साथ... भाई परेशान कि कैसी बहन... खाना–पीना भी छीन कर फेंक
दिया और अब पीछे पड़ी है... लेकिन बहन कब मानने वाली... आखिरकार सारी मुसीबतों को पार कर भाई की जिन्दगी को लम्बी
करके ही बहन मानी... तो ऐसी होती हैं बहने... और भाई?
वे कैसे होते हैं?... न जाने कैसे होते होंगे... शायद
हाड़मांस के तो नहीं होते होंगे... तभी तो इतने माने जाते
हैं... नन्हा बचपन भाई शब्द से जितना जुड़ता गया, यह शब्द
उतना ही दूर जाता गया।
चुगलखोर की जीभ कूटने का
वक्त भी तो यही है... दीए में थोड़ा तेल और डाला गया... दीए
की बाती उचकाई... और बचे आटे की लम्बी सी जीभ बनाई गई...
जीभ को दीए की लौ से जलाया गया और फिर मूसल से कूटा गया...
बाबू के चुगलखोर की जीभ कुटे... भैय्या के चुगलखोर की जीभ
कुटे... मामा के चुगलखोर की जीभ कुटे... बस इतना सा मंत्र
काफी है बहन बेटियों के लिए। बेटी अपने भाई, पिता से कितनी
जुड़ी होती है इसका अन्दाजा इन ज़रा–ज़रा से
त्यौहारों से लगता
है। ससुराल की कुशल मंगल माँगते–माँगते बहु–बेटियाँ पिता,
भाई के लिए भी वक्त निकाल ही लेती हैं। शायद उन दिनों अपनी
जड़ों से जुड़े रहने के लिए ये छोटे–छोटे उपाय बड़े कारगर
होते होंगे।
दीवाली के बाद होली तक न जाने कितने त्यौहार आते होंगे –
जाते होंगे। माई उन्हें कैसे निभाती होंगी, यह सब यादों से
उतराता जा रहा है। याद भी कैसे रहे? आज धूम धड़ाके के साथ
त्यौहार आते हैं और धीमे से सरक जाते हैं, बिना किसी
सुगबुगाहट के... दिल को भिगोए बिना... बस फीके–फीके से...
।
वार–त्यौहारों के अलावा और भी कितने काम हुआ करते थे उन
दिनों। पापड़ बड़ियाँ बनाना, मंगोड़ी तोड़ना, सिवई बनाना, चटनी
अचार चूरन... घर में कुटा–पीसा मसाला... बहन–बेटियों
की आवभगत... कैसे कर लेती हैं माईं यह सब... बिना किसी
तरह की शिकायत के... आज तक समझ में नहीं आया कि इस
प्रीति के पीछे मोह है या आसक्ति। कभी–कभी लगता है कि
निस्वार्थ प्रेम के पीछे अनासक्ति ही होती है क्योंकि मोह
अपने–पराए के भेद को सिखाता है और आसक्ति अपने आप को किसी
से कम नहीं देखना चाहती है। बिना किसी शिकवा–शिकायत के
इतने बड़े खानदान को जोड़े रखना, दिन–रात काम में खटना और हर
क्षण को कलात्मक बनाने की कोशिश करना... इन सब की जड़ में
अनासक्ति न हो तो कैसे काम चल सकता है। लेकिन अपने को सबसे
जोड़े रख कर भी कमल पत्र की तरह अलग–थलग रहने वाली अनासक्ति
तो ऋषि–मुनियों में भी नहीं होगी। बड़ी–बड़ी पोथियाँ भी यह
सब नहीं सिखा पाती। तो फिर कौन सिखा जाता है... भीत पर
लिखी ऐपन की लकीरें? आँगन में बिखरी गोबर की तस्वीरें? या
फिर सूरज चन्दा से अपनापा गाँठती कथाएँ। उस आँगन में बिखरा
ज्ञान न जाने कितनी पोथियों में समाया जा सकता है। आज मुझे
कविता की पंक्ति लिखते हुए लगता है जैसे मैं भीत पर लकीरें
खींच रही हूँ... कहानी लिखते वक्त लगता है कि मानों आँगन
में गोबर का रंग भर रही हूँ। इन लकीरों से दोस्ती न होती
तो क्या कभी कुछ लिख पाती? शायद कभी भी नहीं...
१ नवंबर
२००४ |