हास्य व्यंग्य

हाय रे मेरे भाग
अशोक गौतम


सुबह के साढ़े की दस बजे का समय हुआ होगा। पत्नी को दफ्तर रवाना करने के बाद लगे हाथ बरतन धो जरा धूप देखने के लिए दरवाजा खोल सीढ़ियों पर आराम फरमाने निकलने की सोच ही रहा था कि दरवाजे पर घंटी बजी। कहीं श्रीमती दफ्तर से लौट तो नहीं आई! अरे अभी तो झाड़ू पोछा करना बाकी है। सोच रहा था जरा कमर सीधी कर लूँ। फिर लगूँगा। किसी अज्ञात डर से भीतर तक काँप गया। अपने बड़े बुरे दिन चल रहे हैं आजकल भाई साहब! हाय रे स्‍वार्थी सात जन्‍म के रिश्‍ते!

डरते डरते दरवाजा खोला तो सामने पत्‍नी के बदले रावण का रूप धारण किए हुए कोई बहुरूपिया सा। एक सिर के साथ दस सिर लगाए हुए। गत्‍ते के। गदा के बदले खिलौने जैसी बंदूक साथ ली हुई तो दूसरी तरकश की तरह पीठ के पीछे लटकाई हुई।

‘यार, तूने तो डरा ही दिया था।' मैंने श्रीमती के डर से उग आए माथे के पसीने को पोंछते हुए कहा।'
‘हा हा हा... पहचान लिया मुझे क्‍या? गुडमार्निंग। कैसे हो दोस्त? मैं तो हूँ ही ऐसा कि जिसने मुझे सपने में भी न देखा हो, वह भी मुझे देखते ही पहली नजर में पहचान जाए।'
‘तू रावण ही है न?' मैंने अपनी स्‍मरण शक्‍ति का भरपूर उपयोग करते हुए कहा, ‘रावण को पहचानना कौन सा मुश्‍किल है। क्‍यों ? पिछली बार रामलीला में देखा था गत्‍ते के सिर वाला।'
‘वैरी गुड यार! तुम्‍हारी याददाश्‍त तो सुबह शाम बरतन धोने के बाद भी ज्‍यों की त्‍यों बरकरार है। पर मैं सच्‍ची का रावण हूँ।'
‘तो हम आज तक क्‍या जलाते रहे?'
‘घास फूस का रावण।' कह उसने एक ठहाका और लगाया।

‘अच्‍छा आओ भीतर आओ। चाय पिलाता हूँ। चैन से बातें करते हैं। यहाँ कोई मुझे तुम्‍हारे साथ देख लेगा तो.... दोगले से हो गए आजकल लोग बाग।' और मैं उसे भीतर ले आया। कुछ कुछ सादर।
ज्‍यों ही वह कुर्सी पर आराम से यों विराजा जैसे वह रामलीला के सिंहासन पर विराजता है, तो शक की कोई गुंजाइश न रही। मैंने उससे पूछा,‘ असली होकर ये गत्‍ते के सिर???'
‘क्‍या करूँ यार। हर चुंगी पर कोई न कोई मिलता रहा। कम्‍बख्‍त मुफ्त में कोई चुंगी पार करने ही नहीं दे रहा था।'
‘तो??'
‘देने को भारतीय मुद्रा तो थी नहीं सो सबको चुंगी पार करवाने के एवज में एक एक सिर देता रहा। जब एक ही सिर बचा तो अगले चुंगी वाले को पता ही नहीं चला कि मैं कौन हूँ। और मैं मजे से यहाँ आ गया।'
‘यहाँ क्‍या करने आए हो?'
‘देखने आया था कि तुम्‍हारे शहर में मेरे नाम पर लाखों का चंदा इकट्‌ठा कर अबके दशहरे में कितने इंच का रावण बनने जा रहा है।'
‘पर ये गत्‍ते के सिर क्‍यों लगा लिए?'
‘न लगाता तो क्‍या तुम मुझे पहचान लेते? दूसरे आदत सी बन गई है परंपरा ढोने की। एक सिर के बिना अटपटा सा लगता है।'

‘तो अब क्‍या सीता चुराना बंद कर दिया है या....' कह मैं उसकी आँखों में गंभीर हो ताकने लगा।
‘बुरा मत मानना यार! कड़वा लगेगा। अब कहाँ हम लोग, कहाँ तुम लोग। कहाँ वो पंचवटी! अब जहाँ देखो कंकरीट ही कंकरीट के जंगल। अब तुम्‍हारे समाज में राम भी कहाँ हैं और सीताएँ भी कहाँ? लक्ष्‍मण भरत तो दूर की बात रही। कहाँ वो राजा, कहाँ वो प्रजा! अब तो किसी की पत्‍नी का अपहरण करने के लिए किसी रावण की भी आवश्‍यकता नहीं, भाई ही भाई की पत्‍नी का अपहरण कर ले जाता है। तब राम को बनवास के वक्‍त भरत ने राम की खड़ाऊँ लेकर ही चौदह बरस जन सेवा की थी और आज प्रधानमंत्री बेचारे डर के मारे अपना इलाज करवाने भी नहीं जाते कि वापिस आएँगे तो कार्यकारी ही कुर्सी पर कब्‍जा न किए बैठा हो।

राम की पत्‍नी सीता को तो मैंने मोक्षवश अपहरा था, लंका में तब भी सीता मेरे यहाँ सुरक्षित थी पर अब तो अपने पति के संरक्षण में भी पत्‍नी सुरक्षित नहीं। सीता का अपहरण होने पर तब राम ने रो रो कर सारा वन सिर पर उठा लिया था और आज का पति पत्‍नी के अपहरण की खुशी में पुलिस स्‍टेशन तक लड्‌डू बाँटता फिरता है। अपने जमाने में जरूरमंद को घर नहीं दिल में रहने को जगह दी जाती थी और आज मकान तो मकान, कोख भी किराए पर दी जाने लगी है। अब तो यहाँ संबंध ही पहचानने मुश्‍किल हो गए दिखते हैं मुझे तो। हूँ तो रावण पर ये सब देख अब मुझे भी यहाँ से ग्‍लानि होने लगी है। यार, अब कहाँ हैं वैसे पति कि जो पत्‍नी के पीछे किसी रावण से पंगा ले लें। अब तो वे सोचते हैं, कोई रावण आए और उन्‍हें पत्‍नी से मुक्‍ति का तोहफा दे। सच कहूँ, मन खट्‌टा हो गया यहाँ आकर।' कह वह उदास सा हो गया। उसने अपने सिर में आहत हो हाथ दिया तो एक बार फिर विश्‍वास होने के बाद नहीं लगा कि ये सच्‍ची का रावण है। सो शंका का मारा पुनः पूछ बैठा,‘यार! तुम सच्‍ची के रावण हो??'

‘कोई शक? राम पर तो तुमने हर वक्‍त ही शक किया कम से कम रावण पर तो शक न करो। वह तो यत्र तत्र सर्वत्र है। क्षण क्षण में।' उसने कहा तो मैं झेंप गया।
‘मेरे घर का नाम पंचवटी है।'
‘हाँ पढ़ लिया था। तभी रुका था यहाँ कुछ देर के लिए।' उसने कहा तो किसी अज्ञात की खुशी में मेरे मन में लड्‌डू फूटने लगे।
‘तो पंचवटी देख मन में सोए भाव नहीं जागे?'
‘कहना क्‍या चाहते हो? सीधी बात करो प्रभु चावला की तरह।'
‘चाहता हूँ मेरी पत्‍नी का हरण कर दो। मैं तुम्‍हें दिली आमंत्रण देता हूँ। बहुत तंग आ गया हूँ उससे। बहुत खर्चीली हो गई है।' मैं लोक लाज छोड़ अपनी पर आया तो वह हँसा। हँसता ही रहा। कुछ देर बाद अपनी हँसी रोक बोला,‘ क्‍यों? कलयुग में भी बदनाम करवाना चाहते हो? हद है यार! मर्द हो पत्‍नी द्वारा लगाई पत्‍नी रेखा में रह क्‍या यही चाहते हो कि अगले युग में भी जलता रहूँ। कुत्‍ते का कुत्‍ता बैरी तो सुना था यार पर अब तो इस समाज में मर्द का बैरी मर्द ही हो गया। एक और नया मुहावरा! '

‘क्‍या है न कि प्रभु मैं अपनी पत्‍नी से सच्‍ची को बहुत तंग आ गया हूँ।' कह मैंने दोनों हाथ जोड़ दिए या कि वे खुद ही जुड़ गए, राम जाने।
‘सच कहूँ! अब इस युग के सामने तो मैं भी जैसे बीते समय का हो गया हूँ यार! इस सबंधों के संक्रमण के दौर में मैं मंदोदरी को ही नहीं संभाल पा रहा और तुम कहते हो कि..... ' और वह बिन चाय पीए ही मेरे घर से चला गया।
हाय रे मेरे भाग!!

३ अक्तूबर २०११