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धनुषकोटि-जहाँ-श्रीराम-ने-सेतु-बाँधा-था
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शैलेन्द्र पांडेय
विगत दिनों रामेश्वरम् जाने का
सौभाग्य प्राप्त हुआ। ऐसी मान्यता हे कि पवित्र सेतु में
स्नान के बाद ही रामेश्वरम् में ज्योर्तिलिंग का दर्शन करना
चाहिए। धनुषकोटि के विषय में स्थानीय लोगों से जानकारी मिली
कि वहाँ तो अब कोई जाता ही नहीं है, मंदिर के पास ही समुद्र के
पश्चात चौबीस कुंडों के जल से स्नान करके दर्शन करते हैं।
अगले दिन कमर कस ली कि चाहे जैसे जाना पड़े, धनुषकोटि तो जाना
ही है। प्रात: आठ बजे ही होटल से निकल पड़े। तीन नंबर बस से
चलकर विभीषण मंदिर पहुँचे। यहाँ काले रंग की, शायद धातु की
मूर्तियाँ राम-दरबार के रूप में स्थापित हैं। लगभग आधा
किलोमीटर वापस आकर पुन: बस से आगे की ओर चल दिये।
दो समुद्रों के
बीच
करीब एक किलोमीटर आगे चलने के बाद ऐसा महसूस होने लगा कि हम
लोग वाकई में हिंद महासागर और प्रशांत महासागर के संगम स्थल
यानी धनुषकोटि पहुँचने ही वाले हैं। दोनों ओर समुद्र दिखायी
देने लगा। खुशी हुई, लोग बेकार ही डरा रहे थे कि वहाँ तक बस
नहीं जाती। खुशी अपने शबाब पर भी न पहुँच पायी थी कि दो-चार
झोपडि़योंवाले एक स्थान पर बस रूक गयी, कंडक्टर की आवाज आयी,
आप लोग उतरिए बस यहीं तक जाती है। जैसे साँप सूँघ गया हो।
बोझिल कदमों से बस के नीचे आए। पता चला कि आगे का रास्ता पैदल
का है। आगे दूर-दूर तक सुनसान नजर आ रहा था। दिखायी दी, तो
दोनों समुद्रों के बीच एक खंभे-जैसी आकृति, उसी को सहारा मानकर
चल पड़े एक अनजाने सफर पर। जैसे-जैसे हम लोग आगे बढ़ते जा रहे
थे, दोनों समुद्रों के बीच की दूरी कम होती जा रही थी। एक ओर
नीला समुद्र तो दूसरी ओर हरा समुद्र दिखायी दे रहा था।
ऊँची-उँची लहरें दोनों ओर की कई मीटर रेत भिगोकर चली जा रही
थीं। ऐसा लग रहा था जैसे दोनों समुद्र एक-दूसरे से मिलने के
लिए व्याकुल हो रहे हों। वह अपनी व्याकुलता लहरों के रूप में
प्रकट कर रहे थे। बीच-बीच में दो-चार मछुआरे अपने काम में
व्यस्त दिख जाते तो कहीं-कहीं महिलाएँ भी समद्री-सीपी-घोंघे
इकट्ठा करती दिख जाती थीं। शनै:-शनै: खंभे-जैसी आकृति भी पास आ
गयी लेकिन समुद्र का संगम न दिखायी पड़ा, फिर भी चलने का क्रम
जारी रखा।
मेटाडोर
का निरुत्तर छोड़ जाना
बसवाले ने बताया था कि करीब आठ किलोमीटर पैदल चलना है, लेकिन
रास्ता समाप्त होने का नाम ही न ले रहा था। अब तो मछुआरे भी
न दिख रहे थे। दिख रहा था तो दोनों ओर अनंत तक फैला समुद्र और
सामने काफी दूर कुछ धुँधली आकृतियाँ। हवा तेज हो गयी। लहरें
तेज गरजना करती आतीं और छपाक की आवाज के साथ वापस लौट जाती
थीं। लहरों की गरजना और हवा की साँय-साँय इस निर्जन स्थान को
अच्छी लगने के बजाय, अब डराने लगी थीं। मन कह रहा था, मूरख हो
हो जो सब जानने के बाद यहाँ आए, आत्मा कह रही थी कि चलो और
चलते रहो, गुलाब काँटों के बीच ही मिलते हैं। बीच-बीच में
थोड़ा, रुककर सुस्ता लेते, फिर चल पड़ते। एक स्थान पर
सुस्ताकर खड़े ही हुए थे कि दूसरी ओर एक मेटाडोर जाती दिखायी
दी, जो समुद्र की लहरों के पास गीली रेत से जा रही थी।
विश्वास न हुआ कि जहाँ चलने में पैर रेत में धँस रहे थे, वहाँ
मेटाडोर जा सकती है। आवाज दी, लेकिन समुद्र की गरजना और हवा की
साँय-साँय में आवाज घुटकर रह गयी। मेटाडोर आगे चली गयी। काफी
दूर चलने के बाद गाँव की रूपरेखा दिखायी देने
लगी। पास पहुँचने पर खुशी हुई,
चलो पहुँच गए, संभवत: झोपडि़यों के उस पार संगम होगा।
समुद्र में पैदल
स्थानीय लोगों से पूछना
चाहा, लेकिन भाषा की समस्या। वह न हिंदी जानते थे न अंगरेजी।
संकेतों से थोड़ा-बहुत इशारा मिला। गाँव पहुँचे, तो मकान खंडहर
बने खड़े थे, झोपडि़याँ थीं वह भी खाली। मकानों की दीवारें
बची थीं, दीवारें भी ऐसी कि खुद अपने बोझ तले दबी जा रही थीं।
लगभग दो सौ मीटर और आगे चलने पर पुन: समुद्र दिखायी दिया, साथ
ही कई नावें व मछुआरे भी दिखायी देने लगे। मछुआरों से पूछने पर
संकेत मिला कि धनुषकोटि अभी और आगे हैं। समझ में नहीं आ रहा था
कि क्या करें। तभी एक महिला जो यहाँ की नहीं थी, बाल संवारते
दिखी। पास पहुँचकर पता चला कि वह महाराष्ट्र से आयी थी। महिला
ने बनाया कि उसके पति व बच्ची स्नान हेतु टापू पर गए हैं।
टापू भी सामने दिख रहा था। शीघ्र ही वह दोनों भी आ गए। महिला
ने हम लोगों का परिचय कराया, मेरे साथ माताजी भी थीं।
अब हम पाँच लोग हो गए।
लक्ष्मण भी यहाँ घूमने आए थे। उन्होंने बताया कि धनुषकोटि तो
यही है, परंतु भगवान श्री राम ने जहाँ से सेतु निर्माण प्रारंभ
किया था। वह स्थान तीन किलोमीटर और आगे है। टापू लगभग दो सौ
मीटर आगे था, हम लोगों ने अपना सामान उठाया और चल पड़े पैदल ही
टापू की ओर। समुद्र में पैदल चलने का नाम सुनकर दिल में
सुरसुरी होने लगी। यहाँ समुद्र की गहराई दो से चार फुट ही है।
समुद्र में पैदल चलने पर तलवे में काट्दारम लगभग आठ मीटर
व्यास वाले टापू पर पहुँचने के बाद सामान रखकर हम लोग दिव्य
स्नान को समुद्र में उतर पड़े। यहाँ दूर-दूर तक समुद्र गहरा
नहीं है। इसलिए उछल-कूद करके पानी में खेलने में बड़ा मजा आ
रहा था। स्वच्छ परंतु नमकीन समुद्री पानी में लगभग एक घंटे
तक दिव्य स्नान का मजा लिया। ऐसा लग रहा था जैसे सारी थकान
मिट गयी हो। टापू पर हम सभी ने शिवलिंग बनाकर शिव आराधना की
फिर चल पड़े वापस।
मछलियोंवाली
मेटाडोर
गाँव
पहुँचकर रेत के मध्य बने मीठे पानी के कुएँ में पुन: स्नान
किया, फिर वहीं झोपडि़यों में बनी दुकान में चाय पी गयी। वापसी
के लिए पूछा, तो पता चला कि यहाँ से मछली ले जानेवाली मेटाडोर
आती है, उसी से वापस जाया जा सकता है। यहाँ के स्थानीय लोग
तमिल भाषा जानते हैं। मछली पकड़कर बाहर भेजना ही इनका मुख्य
पेशा है। बच्चों को पढ़ाई-लिखाई से कोई मतलब नहीं है, वह भी
अपने पिता के साथ काम में हाथ बँटाते हैं। महिलाएँ समुद्र से
निकले घोंघे और सीपियों से माला, झालर आदि बनाकर बाहर भेजती
हैं, जिससे थोड़ी-बहुत आमदनी हो जाती है। धनुषकोटि के बारे में
पूछो, तो वह हँस पड़ते हैं। वे इशारे से कहते हैं, 'आप जैसे
दो-चार लोग यहाँ आते भी है, तो यहीं से लौट जाते हैं, वहाँ तो
अब कुछ बचा ही नहीं। पहले एक मंदिर हुआ करता था, अब वह भी नहीं
है। कुछ पत्थर भी दिखते थे, जिन पर राम लिखा था, लेकिन कुछ
वर्ष पूर्व आए चक्रवात ने सब-कुछ नष्ट कर दिया।'
बात करते-करते मेटाडोर आ गयी। मरता क्या न करता, हम सभी उस
बदबूदार मछलीवाली मेटाडोर में बैठ गए। इस आठ किलोमीटर के प्रति
व्यक्ति सौ रूपये देकर हम लोग बस मिलनेवाले स्थान तक पहुँच
गए, हालाँकि मेटाडोर रामेश्वरम् जा रहा था, फिर बस में बैठकर
रामेश्वरम् पहुँच गए। |