इस सप्ताह- |
अनुभूति
में-
सत्यनारायण, अनिल गुप्ता,
श्रीकांत सक्सेना, मंजु मिश्रा और विनय कुमार की रचनाएँ। |
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साहित्य व संस्कृति में-
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1
समकालीन कहानियों में भारत से
मनमोहन सरल की कहानी-
चाबी के खिलौने
वह
लॉबी में खड़ा था। उसकी औरत चमकदार कपड़ों में सोफ़े पर बैठी
थी। वह पहले खड़ा नहीं था। जब मैंने वहाँ प्रवेश किया था तो
दोनों को दूर से बैठे देखा था लेकिन मैं नहीं पहचान पाया था कि
वह होगा। उसकी किसी औरत के साथ सटकर बैठे और चिडि़यों की तरह
गुपचुप बातें करने की कल्पना भी नहीं की जा सकती थी। मुझे आते
देखकर वह बहुत पहले से ही खड़ा हो गया था लेकिन उसकी औरत वैसे
ही बैठी रही थी। नज़दीक आते ही उसने खीसें निपोर कर नमस्कार
किया और एक मर्दाना-सा नाम लेकर उस औरत से भी नमस्ते करने को
कहा। मैंने देखा, आज उसकी शक्ल पर तीन बज रहे थे - ठीक तीन,
चाहे तो कोई घड़ी मिला ले और मैंने सचमुच अपनी घड़ी मिला भी
ली। मुझे खुशी हुई क्योंकि इससे पहले वह जब भी मिलता था, उसके
चेहरे पर बारह ही बजे होते थे। दोनों नमस्कार कर चुके थे।
मैंने कहा, 'बैठ जाओ।' और दोनों एक साथ बैठ गए, चाबी के
खिलौनों की तरह।
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अशोक गौतम का व्यंग्य
इस दर्द की दवा क्या है
*
डॉ. भक्तदर्शन श्रीवास्तव की
विज्ञानवार्ता-
कागज पर सौर ऊर्जा
*
दिविक रमेश का संस्मरण
कवि-चिन्तक शमशेर बहादुर सिंह
*
पुनर्पाठ में पर्यटक के साथ घूमें-
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पिछले
सप्ताह- |
1
रतनचंद जैन का प्रेरक प्रसंग
प्रगति और अभिमान
*
ऋषभ
देव शर्मा की कलम से
सच्चिदानंद चतुर्वेदी का उपन्यास `अधबुनी रस्सी'
*
डा .सुरेशचन्द्र शुक्ल "शरद आलोक" का संस्मरण
भारतीय संस्कृति के आख्याता हजारी प्रसाद द्विवेदी
*
समाचारों में
देश-विदेश से
साहित्यिक-सांस्कृतिक सूचनाएँ
*
समकालीन कहानियों में भारत से
शीला इंद्र की कहानी-
गिलास
वह
गिलास कोई साधारण गिलास नहीं था। फिर उसकी कहानी साधारण कैसे
होती। किंतु ऐसी होगी यह किसी ने कहीं जाना था। कई पीढ़ियों की
सेवा करते-करते उस गिलास पर क्या बीती कि हे भगवान! वह गिलास
हमारे परबाबा जी का था। ख़ूब बड़ा सा, पीतल का गिलास बेहद सुंदर
नक्काशीदार। अंदर उसमें कलई रहती थी। चाय का उन दिनों रिवाज़
नहीं था। हमारे परबाबा जी उस गिलास में भरकर जाड़ों में दूध और
गर्मियों में गाढ़ी लस्सी पिया करते थे। ठंडाई बनती तो उसी में,
और पानी तो उसमें पीते ही थे। वह गिलास जिसमें लगभग सेर भर दूध
आता था सिर्फ परबाबा जी ही इस्तेमाल करते रहे। उनकी जिंदगी में
उसमें कुछ भी पाने की जुर्रत किसी में भी नहीं थी। जैसा रोब
परबाबा जी का था वैसा ही गिलास का भी था। उसको उठाने की ताव घर
के किसी भी बच्चे की नहीं थी, जो उठाता वही बैठ रहता। परबाबा
जी की मुझे याद नहीं।
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