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संस्मरण

1
पूर्णत्व के अन्वेषी एवं साधक
कवि-चिन्तक शमशेर बहादुर सिंह
-दिविक रमेश


मुझे एक लम्बे समय तक शमशेर के सम्पर्क में रहने का सुअवसर मिला है।। बहुतेरों की तरह उनसे निकटता का दावा भी कर सकता हूँ। मैं उनके घर पर गया हूँ और वे भी मेरे घर पर आए हैं। दिल्ली विश्वविद्यालय के उनके कार्यालय में और बाहर हुई सभाओं आदि में भी उनसे मुलाकात करने के मुझे सुअवसर मिले हैं। शमशेर जी से मेरा पहला वास्ता सत्तर के दशक में ही पड़ा था। बहुत ही प्रभावशाली ढ़ंग से।

मैं दिल्ली की एक कॉलोनी लाजपतनगर में रहता था। शमशेर जी भी वहीं रह रहे थे। यह बात मुझे कुछ बाद में पता चली थी। आकाशवाणी ने मावलंकार हॉल में, भारी संख्या में उपस्थित श्रोताओं के समक्ष कवि-गोष्ठी का आयोजन किया था। युवा कवियों में मैं भी एक था। कवियों और कविताओं का चयन एक समिति ने किया था जिसमें कवि शमशेर भी एक सदस्य थे। यह बात मुझे आयोजन के समाप्त होने पर पता चली थी। शमशेर जी से तब तक मेरा परिचय भी नहीं था। मंच पर ही पहली मुलाकात में पता चला था कि वे भई लाजपत नगर में ही रहते हैं। उनके चश्में में से प्रौढ़ता का गाम्भीर्य पूरी तरह झलक रहा था। बोले-’तुम्हारी कविताएँ एक साथ पढ़ना चाहूँगा। अच्छा लगा लेकिन बात आई-गई हो गयी।

उन दिनों मैं कवि भारतभूषण के सम्पर्क में भी था। एक संदर्भ में भारत जी से शमशेर की बात का ज़िक्र हुआ तो वे तपाक से बोले कि शमशेर आज के बड़े कवि हैं। उन्होंने कविताओं की पांडुलिपि उन्हें तुरन्त दे देने की सलाह दी। मैंने वैसा ही किया। यों उनसे मिलते रहने का सिलसिला चल निकला। बहुत ही गम्भीरता से लेकिन सहानुभूति के साथ वे मेरी कविताओं को देखते रहे। सुझाव देते रहे और कुछ कविताओं को स्वीकृत-अस्वीकत करते रहे। साहित्य और दुनिया से जुड़ी कितनी ही बातें होती रहीं। बाद में मॉडल टाउन चले गए तो भी मिलना-जुलना होता रहा। उनके माध्यम से अंग्रेजी और उर्दू के क्लासिकी साहित्य से रू-ब-रू होता रहा। मैंने उनकी सोच और उनके व्यक्तित्व में बहुत गहरे तालमेल का अनुभव किया था।

वे मृदु भाषी थे लेकिन अपने सिद्धान्तों के लिए अडिग थे -जिद्द की हद तक। वे किसी के प्रशंसक हो सकते थे लेकिन उसकी कमियों को न बाताएँ ऐसा सभव नहीं था। लेकिन परनिन्दा से वे सतर्क होकर भी बचते थे। उन्होंने एक बार बताया था कि किसी बात को लेकर जब उन्होंने ठान लिया था कि धर्मयुग के सम्पादक धर्मवीर भारती को रचना नहीं भेजेगें तो फिर रचना नहीं ही भेजी। हालाँकि वे उनके नाटक अंधायुग के प्रशंसक थे। अज्ञेय से अच्छे संबंध होने के बावजूद उनकी समझ सम्बंधी चूक को उजागर किया। सबूत के लिए आलोचना के जनवरी 1952 अंक के पृ० 72 को देखा जा सकता है।

शमशेर जी का कहना था - "यह बात नहीं कि श्री स.ही. वात्स्यायन अपनी पीढ़ी की सभी अच्छी प्रतिभाओं को समझ सके हों। केदारनाथ अग्रवाल, नागार्जुन की प्रतिभाएँ विषय-वस्तु के अलावा टेकनीक की दृष्टि से भी कम महत्त्व की नहीं हैं; एक और महत्त्वपूर्ण कवि त्रिलोचन शास्त्री हैं। ये नाम मैंने इसलिए गिनाए ताकि दो बातों की तरफ ध्यान जाए; एक यह कि जिसे प्रयोगवादी कविता कहा जाता है उसका बड़ा हिस्सा प्रगतिशिल कवियों की देन है। दोयम यह कि ’प्रतीक’ या उपरोक्त कविता-संग्रहो (तारसप्तक, दूसरा सप्तक ) के बाहर जो नए काव्य-शिल्पी हैं उनको लिए बिना प्रयोगशिल साहित्य की बहस अधूरी रहेगी।’ स्पष्ट है कि उनकी प्राथमिकता कविता के सही मूल्यांकन की थी। उन्हें साहित्य-नियामकों से संबधों की चिन्ता नहीं थी। वस्तुत: त्रिलोचन समेत अपने साथी कवियों में, मूलत: समाजचेता होते हुए भी, अपनी निजी ठसक के न केवल पूरे हिमायती थे बल्कि पूरे प्रयोगकर्ता भी थे। शमशेरियत का यह एक अहं आयाम है जो उनके सृजन और व्यक्तित्व को खासमखास बानाता है।।

उनकी ठसक की एक बानगी 1961 में पहली बार प्रकाशित अनके कविता संग्रह ’कुछ और कविताएँ’ के इस कथन में भी मिलती है -’फ़ैशन किन विषयों पर लिखने का है, कौन सी शॆली ’चल रही है’, किस ’वाद’ का युग आ गया है या चला गया है --मैंने कभी इसकी परवा नहीं की। जिस विषय पर जिस ढ़ंग से लिखना मुझे रुचा, मन जिस रूप में भी रमा, भावनाओं ने उसे अपना लिया; अभिव्यक्ति अपनी ओर से सच्ची हो, यही मात्र मेरी कोशिश रही- उसके रास्ते में किसी भी बाहरी आग्रह का आरोप या अवरोध मैंने सहन नहीं किया।’ और स्वयं 1978 में प्रकाशित मेरे पहले संग्रह ’रास्ते के बीच’, जिसके लिए कविताओं का चयन भी उन्होंने ही किया था, की भूमिका में उन्होंने लिखा था -’उनका जो तेवर है वह ईमानदार और सच्चा है और कविता में जान इसी से आती है। .....मुझे इस संग्रह में नयी पीढ़ी के मन और मस्तिष्क की एक झांकी मिली जो सच्ची है और अर्थपूर्ण।’ ’कुछ और कविताएँ’ में ही उनके इस लिखे की ओर भी ध्यान दिलाना चाहूँगा -"कवि का कर्म अपनी भावनाओं में, अपनी प्रेरणाओं में, अपने आंतरिक संस्कारों में, समाज -सत्य के मर्म को ढालना-उसमें अपने को पाना है. और उस पाने को अपनी पूरी कलात्मक क्षमता से पूरी सच्चाई के साथ व्यक्त करना है, जहाँ तक वह कर सकता हो।" मेरी निगाह में, और ज़रूरी नहीं कि आप उससे सहमत हों ही हों, कवि-चिन्तक शमशेर पूर्णत्व के सच्चे अन्वेषी और साधक पुरुष थे। असल में शमशेर के बारे में बात करना एक ऐसे कवि-रचनाकार-चिन्तक के बारे में बात करना है जो मुक्कमल या पूर्णत्व का हिमायती है। इसीलिए उनके यहाँ, खासकर अपने संदर्भ में, शायद, कदाचित आदि संदेह सूचक शब्द बराबर इस्तेमाल में आए हैं। एक और दिलचस्प अनुभव हुआ जो उपर्युक्त का तसल्लीबख़्श उदाहरण माना जा सकता है। एक बार दोपहर उनके घर पहुँचा तो मुझ से ज़्यादा उन्हें मेरे भोजन की चिन्ता हुई। घर पर अकेले ही थे। मेरे ना नुकर करने के बावजूद वे रसौंई में गए और थाली में चावल और टिण्डे की सब्जी ले आए। बहुत ही आत्मीय और स्नेहिल भाव से अपनी चिर परिचित शॆली में खाने का आग्रह किया। दाल-चावल तो खूब सुना था और खाया भी लेकिन चावल-टिण्डा ! मेरे लिए किसी अजूबे से कम न था चावल-टिण्डे का वह मेल। खॆर, चेहरे पर वह भाव आने नहीं दिया। शमशेर तपाक से फिर रसोई में गए और दूध ले आए। चावल-टिण्डे में दूध डालते हुए बोले- अब मिलाकर खाओ, बहुत स्वादिष्ट लगेगा। मैं पूर्णत्व के अन्वेषी और साधक की और विभोर होकर देखने ही वाला था कि मानो अपने तईं किसी अधूरेपन को पाटने के लिए फिर रसोई की ओर मुखातिब हुए। अब कौन-सा गज़ब ढहने वाला था नहीं जानता था पर एहसास ज़रूर हो रहा था कि ढहने वाला है। मुझे कुछ समझ नहीं आ रहा था। मैं भी विचित्र और मेरा साहिब भी विचित्र! इस बार उनके हाथ में गुड़ था और आँखों में ’पा लिया, पा लिया’ वाले आइंस्टीन की सी चमक थी। आते ही चावल-टिण्डे-दूध को गुड़ समर्पित कर दिया। मैं भी पूरा और मेरा साहिब भी पूरा। शमशेर सचमुच पूर्णत्व के पुजारी थे।

कवि-चिन्तक शमशेर की प्रासंगिकता खुद शमशेर की समझ और पहचान में भी है। खासकर अनेक प्रकार से प्रदूषित और तकलीफ़ देते साहित्यिक परिवेश में। शमशेर जी को पढ़ते-जानते कुछ ऐसे तथ्य हाथ आए जो अपने समय की कविता और कविता-परिवेश पर सशक्त और निभीर्क टिप्पणियाँ हैं। बल्कि आगे के समय पर भी। बहुत ही मौलिक और शायद पहली बार। उन्हें जानना कदाचित दिलचस्प ही होगा। नामवर जी के अनुसार अज्ञेय द्वारा संपादित तारसप्तक की पहली समीक्षा शमशेर जी ने ही की थी और वह भी उसके प्रकाशन (1943) के तीन वर्ष बाद 1946 में जो नया साहित्य में ’सात आधुनिक हिन्दी कवी’ शीर्षक से प्रकाशित हुई थी। अपनी परख और सोच में शमशेर कितने वस्तुपरक, कितने दृढ़ और साफ़ थे इसका सबूत उक्त समीक्षा को माना जा सकता है।

आरम्भ में ही उन्होंने लिखा है-"प्रयोग ही तारसप्त्क का नारा है। इस दिशा में ’तार सप्तक’ की क्या विशेषता है ? एकदम स्पष्ट कहा जाय तो कोई खास नहीं। कारण इसके दो हैं। एक तो यह कि मौलिक रूप से ’तारसप्तक’ के प्रयोग अन्यत्र कई और कवियों के, इसके काफ़ी पहले के संग्रहों में मिल जायँगे: प्रथमत: निराला में ही - न केवल तारसप्तक के लगभग सभी प्रयोग बल्कि उससे भी और कहीं अधिक, कहीं अधिक,...। दूसरा कारण जो तारसप्तक के प्रयोगों को न्यून करता है, यह कि वे बहुत कम सफल हुए हैं, यहाँ सिवाय अज्ञेय और रामविलास के।’ मुक्तिबोध के सम्बन्ध में उन्होंने वहीं पर लिखा था -"गजानन मुक्तिबोध की अभिव्यक्ति उनके कला प्रकारों के अनुरूप सूक्ष्म और पुष्ट नहीं है। शमशेर अपनी निजता, अपने विवेक, अपनी विनम्रता का संरक्षण करते हुए साफ़गोई के धनी थे। एक हद तक अपना सबकुछ दाव पर लगा देने वाले निर्भीक।

कवि चिन्तक शमशेर की एक और महत्त्वपूर्ण पहल का जायजा लीजिए। "फूल नहीं, रंग बोलते हैं’ केदारनाथ अग्रवाल जी का एक बहुत ही महत्त्वपूर्ण कविता सग्रह है जो अक्टूबर, 1965 में प्रकाशित हुआ था। यह वही संग्रह है जिसमें उनकी वह कालजयी कविता भी है जिसका प्रकृति-चित्रण बहुत ही प्रसिद्ध है और जिसका शीर्षक ’चन्द्र गहना से लौटती बार है’। कविता की कुछ पंक्तियाँ निम्न प्रकार से हैं:

देख आया चन्द्र गहना।
देखता हँ दृश्य अब मैं
मेड़ पर इस खेत की बैठा अकेला।

एक बीत के बराबर
यह हरा ठिगना चना,
बाँधे मुरॆठा शीश पर
छोटे गुलाबी फूल का,
सज कर खड़ा है।
पास ही मिल कर उगी है
बीच में अलसी हठीली
देह की पतली, कमर की है लचीली,
नीले फूले फूल को सिल पर चढ़ा कर
कह रही है, जो छुए यह
दूँ हृदय का दान उसको।

विडम्बना देखिए इस संग्रह अर्थात ’फूल नहीं, रंग बोलते हैं ’ की समीक्षा के प्ररम्भ में ही शमशेर बहादुर सिंह को लिखना पड़ा था -"पौने दो साल हो गए केदार के प्रतिनिधि संकलन ’फूल नहीं रंग बोलते हैं’ को निकले और सुनता हँ अभी तक उसकी कोई रिव्यू कहीं नहीं निकली, न कोई चर्चा कहीं हुई। .....केदार सन ’३० से भी पहले से लिख रहे हैं।"

इस कवि की एक अन्य मजबूत पक्षधरता से परिचित होना भी शायद उचित ही रहेगा। यह है अनुचित या अन्याय का पुरज़ोर विरोध करना और उसे बर्दाश्त न करना।फिर ज़ोखिम भी क्यों न उठाना पड़े। हादसा ’चुका भी नहीं हूँ मैं’ को लेकर है। पूरा विवरण मेरे ही द्वारा संपादित दिशाबोध के पहले अंक (जून 1978) में है जिसे उन्होंने पूरे आग्रह से प्रकाशित कराया था।। यहाँ कुछ अंश देना ही काफ़ी रहेगा :
"चुका भी हूँ नहीं मैं" का जो (तथाकथित) "दूसरा संस्करण" राधाकृष्ण प्रकाशन ने छापा है, उसे लेखक की यानी मेरी मान्यता प्राप्त नहीं है। कारण, वह संस्करण बिना मुझसे पूछे, मेरी मर्जी के खिलाफ, चुपचाप छाप लिया गया है--"
"राधाकृष्ण प्रकाशन ने जो दूसरा संस्करण निकाला है, उसमें, पहले संस्करण की सारी की सारी अशुद्धियाँ ज्यों की त्यों मौजूद हैं। अत: मेरी कविता के गम्भीर पाठकों के लिए अब प्रामाणिक और शुद्ध वही संस्करण है जो राजकमल प्रकाशन की ओर से प्रकाशित होने जा रहा है।"

"अगस्त, 77 में राधाकृष्ण प्रकाशन मेरे संग्रह की "बची हुई प्रतियाँ" मुझे वापिस करना चाहते थे। यह जानकर फौरन मैंने राजकमल प्रकाशन से दूसरे संस्करण के लिये बात तय कर ली। मैं उन ’बची हुई प्रतियों’ को वापस पाने की प्रतीक्षा ही करता रहा। वे वापस नहीं आयींस बल्कि बिक गयीं। " "प्रकाशक की सहसा ’नीति-परिवर्तन’ का कारण समझना कठिन नहीं है। मेरी कविता की पुस्तक पहले धीर-धीरे बिक रही होगी, लाभांश उसमें बहुत कम होगा। मगर जब वही पुस्तक मध्य साहित्य परिषद और साहित्य अकादमी की ओर से पुरस्कृत हो गयी तो उसकी मांग और प्रतिष्ठा यकायक बढ़ गयी। अब क्या ज़रूरत बची हुई "प्रतियाँ वापिस" करने की !" हिन्दी का एक ’प्रतिष्ठित’ ’ माना जाने वाला प्रकाशक अपने लेखक को कितना अवहेलनीय, उपेक्षणीय और कितना महत्त्वहीन समझता है -अमल में- यह औरों की तरह मेरे लिए भी. आँख खोलने वाला ताज़ा अनुभव है।"

कवि शमशेर को लेकर अनेक बातें कहीं गई हैं। मसलन वे प्रयत्नसाध्य कवि थे, उनके बिम्ब खण्डित हैं कि उनके यहाँ मार्क्सवाद और रूमानियत का अन्तर्विरोध है कि उनकी कविता दुरूह है । आदि आदि। शमशेर के संदर्भ में प्रयत्नसाध्य शब्द बहुत फिट नहीं बैठता। अन्यों के संदर्भ में जो प्रयत्न साध्य पवित्रता हो सकती है वह उनके अपने संदर्भ में सहज ही थी। मंदिर में मंदिर की पवित्रता की सी पवित्रता के साथ ही प्रवेश करना उचित होता है। शमशेर कि कविता असल में पाठक से भी उचित तैयारी की अपेक्षा रखती है। मुक्तिबोध और शमशेर की कविता को अपेक्षाकृत कठिन माना गया है पर हम जानते हैं कि उनकी कविताओं का आस्वादन भी लिया गया है और आकलन भी हुआ है।

यों शमशेर जी ने ’चुका भी नहीं हूँ मैं’ कविता संग्रह के आभार-ज्ञापन में लिखा है -" अपनी काव्यकृतियाँ मुझे दरअसल सामाजिक दृष्टि से कुछ बहुत मूल्यवान नहीं लगतीं। उनकी वास्तविक सामाजिक उपयोगिता मेरे लिए एक प्रश्न-चिन्ह-सा ही रही है, कितनी ही धुँधली सही।’ मेरी समझ में अपनी सोच और कविता दोनों में मूलत: शमशेर एक है। ’कुछ और कविताएँ’ से उनके शब्द लेकर बात समझी जा सकती है - "इसका मतलब यह नहीं कि हम अपने दायित्व से ग़ाफ़िल हों, कोशिश न करें समाज में नयी चेतना फूँकने की-अगर कविता के माध्यम से ही ऐसा करने की हमें प्रेरणा मिलती है। मगर ऐसी’ ’चेतना’ रखना और उसे ’फूँकना’- अभिमंत्रित शक्ति की तरह समाज के प्राणों में उसे भरना...इसका अर्थ क्या है, यह ध्यान में रखना आवश्यक होगा। मामूली सामर्थ्य का काम नहीं। बेशक ऐसी चीज़ों के सद्य: प्रकाशन, और प्रचार पर मेरा प्रबल आग्रह है। आवश्यक नहीं कि हर दशा में ऐसी उपादेय चीज़ें सच्ची कविता ही मानी जायँ।’ उन्हीं के अनुसार-’एक दॊर था, जब मैं ऐसी चीज़ें लिखने के लिए अधिक उत्सुक था......। पर अपेक्षित स्तर मुझे सदा अपने कवि-व्यक्तित्व की पहुँच से बहुत ऊँचा और असम्भव-सा महसूस होता।.....कविता में सामाजिक अनूभूति काव्य-पक्ष के अन्तर्गत ही महत्त्वपूर्ण हो सकती है। शमशेर की पॉलिटिक्स एक ईमानदार और सच्चे व्यक्ति की पॉलाटिक्स है। वह वॆसी पॉलिटिक्स नहीं है जैसी वह आज अपने अर्थों में समझी जाती है। वे कम्युनिस्ट पार्टी के बहुत ही समर्पित कार्यकर्ता थे लेकिन उनका मोहभंग भी हुआ था। रामविलास जी ने उनके कवि की पॉलिटिक्स को कुछ यों समझा है -उनकी उलझनों का एक कारण यह है कि वे अपने रीति-वादी-रुमानी सौंन्दर्यबोध से अपने मार्क्सवादी विवेक की संगति नहीं बिठा पाए।

दूसरा कारण यह है कि जब वह रीतिवाद और रुमानियत से हटकर, मानव-करुणा में गहरे डूब कर कविता लिखते हैं, तब शायद समझते हैं कि वह कविता मार्क्सवाद के अनुरूप हुई नहीं। इस लेख में भुवनेश्वर वाली कविता इसीलिए पूरी की पूरी मैंने उद्धृत की है। यह एक अनुपम आधुनिक कविता है, आत्म-सम्मोहन से बाहर, नव्य रहस्यवाद से बचती हुई, दूसरे की ज़िन्दगी को सहानुभूति से चित्रित करने में एक चमत्कार।’ रामविलास जी ने अपने लेख ’शमशेर बहादुर सिंह का आत्म-संघर्ष और उनकी कविता’ ’ में, इस संदर्भ में यह मत भी दिया है -"उस दुनिया में यथार्थ जगत का गर्द-गुबार कम है, केन्टोनमेन्ट की तरह वह शहर की गन्दी बस्तियों से काफी दूर है ..।" तो भी मैं समझता हूँ कि कवि जिन कविताओं का खुद ही पटाक्षेप करना चाहता है क्या ज़रूरी है कि उन्हें ही उँगली दिखाई जाए। वस्तुत: शमशेर की कविता सौंन्दर्यबोध धर्मी हैं। नारी हो या प्रेम, शमशेर की कविता में वह सौंन्दर्यपरक कलात्मक अभिव्यक्ति ही होती है। शमशेर के यहाँ विषय नहीं अनूभूति और उसमें भी कलात्मक अनूभूति का महत्त्व है। उनकी कविता को मात्र काव्य-कौशल कह कर खारिज़ नहीं किया जा सकता। कलात्मक क्षमता हासिल करने में उनकी पूरी आस्था है।

उनके अनुसार सच्चा कवि रूप-प्रकार को ग्रहण करते हुए अनुभूति के स्पंदन के समक्ष उसे मोम बना देता है। वे बारीक कातते हैं। वे रीझ सकते हैं लेकिन पीछे ही नहीं पड़ जाते। कविता को शमशेर बहुत निजी चीज़ मानते हैं। उनके शब्दों में-"जितनी ही अधिक वह उसकी अपनी चीज़ है, उतनी ही कालान्तर में वह औरों की भी हो सकती है। अगर वह सच्ची है, कला-पक्ष और भाव-पक्ष दोनों ओर से "(कुछ और कविताएँ )। शमशेर के यहाँ कृत्रिमता के लिए जगह नहीं है। न ही रूढ़िवादिता अथवा चलन के लिए। बयानबाजी या नारेबाजी भी उनकी चाय का प्याला नहीं है। यहीं वे सबसे अलग हैं और अपने से पूर्व की कविता से भी भिन्न। प्रासंगिकता मुझे एक आन्दोलनवादी शब्द प्रतीत होने लगा है। सवाल है किस के लिए प्रासंगिक या उन्हीं या आप के लिए ही प्रासंगिक क्यों ? आप या वे शमशेर की कविता के लिए प्रासंगिक क्यों नहीं ? ’अज्ञेय से’ ’ कविता में शमशेर कौ कुछ पंक्तियाँ हैं--
जो नहीं है
जैसे के ’सुरुचि’
उसका ग़म क्या ?
वह नहीं है।
XXXXXXX

जो है
उसे ही क्यों न सँजोना ?
उसी के क्यों न होना ?--
जो कि है।
कवि और कविता की सच्ची स्वायत्ता (और ऐंठ भी) भी शमसेर की प्रासंगिकता का एक बड़ा प्रस्थान बिन्दु है।

नि:सन्देह शमशेर उस अर्थ में जनकवि नहीं ही हैं जिस अर्थ में नागार्जुन हैं। त्रिलोचन भी हिन्दी के जनकवि नहीं हैं, थोड़े बहुत अवधी के हों तो हों। मैं समझता हूँ कि शायद नागार्जुन भी अपनी श्रेष्ठ या उत्कृष्ट कविताओं के कारण जनकवि नहीं हैं बल्कि तात्कालिक रूप से प्रतिक्रिया स्वरूप लिखी आशुनुमा कविताओं के कारण जनकवि अधिक माने जाते हैं। उन्हें जनकवि सिद्ध करते हुए ऐसी ही कविताओं के उदाहरण ज़्यादा देने पड़ते हैं। आज हिन्दी में कितने ही मंचीय कवि बिना उत्कृष्ट कुछ लिखे भी लोकप्रियता के शिखर पर हैं इसलिए अपनी तरह से वे भी अच्छी अच्छी बातें कहने वाले जनकवि हुए। त्रिलोचन जी कहा करते थे कि औरों मे खप जाने वाली कविताएँ तात्कालिक रूप से लोकप्रियता की तालियाँ तो बजवा सकती हैं लेकिन बहुत दूर तक चलने में वे असमर्थ ही रह जाया करती हैं। पाब्लो नेरूदा और फ़ैज अहमद फ़ैज की कितनी ही कविताएँ मानों टूट कर लिखी गयी हैं। शमशेर भी टूट कर लिखते थे यानि पूर तरह डूबकर। अपना आपा मेंटकर -बिना अपनापन खोए। शमशेर की कविता मनुष्य को प्रामाणिकता के साथ उसके होने के सबसे उत्तम रूप से रू-ब-रू करने का अवसर देती है क्या यह कवि की प्रतिबद्धता का मूल्य नहीं है। उनकी किसी भी कविता को उठा कर पढ़ लिया जाए, मसलन लौट आ, ओ धार। देखिए इसी की ये पंक्तियाँ:

लौट आ, ओ फूल की पंखड़ी
फिर
फूल में लग जा।
क्या इस कविता के कितने ही प्रतिबद्ध अर्थ भी नहीं नकाले जा सकते ?

और अंत में यह भी कि शमशेर ने अपनी ही भाषा-शैली अर्जित की थी। वह अपने पहले ही पाठ में अभिभूत करने की क्षमता रखती है भले ही कभी-कभी उलझा भी देती हो। बिम्बधर्मिता और चित्रकारी उनकी भाषा को चार चार चाँद लागा देती हैं। शब्दों का रखरखाव अर्थ -छवियों का आनन्ददायी रचाव करता है। मेरी एक कविता है-शमशेर की कविता, उसी को उद्धृत करते हुए अपनी बात खत्म करना चाहूँगा -

छुइये
मगर हौले
कि यह कविता
शमशेर की है।

और यह जो
एक-आध पाँखुरी
बिखरी
सी
पड़ी
है
न ?

इसे भी
न हिलाना।

बहुत मुमकिन है
किसी मूड में
शमशेर ने ही
इसे ऐसा रक्खा हो।

दर असल
शरीर में जैसे
हर चीज़ अपनी जगह है
शमशेर की कविता है।

देखो
शब्द समझ
कहीं पाँव न रख देना
अभी गीली है

जैसे आँगन
माँ ने माटी से
अभी-अभी लीपा है
शमशेर की कविता है।

 

५ सितंबर २०१०

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