इस सप्ताह- |
अनुभूति
में-
1
श्यामनारायण श्याम,
श्रद्धा जैन, भारती पंडित, रघुवेन्द्र यादव और
शीतल श्रीवास्तव की रचनाएँ। |
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साहित्य और संस्कृति में- |
1
समकालीन कहानियों में भारत
से
विपिन चौधरी की कहानी
धुँधली सी
आस
दिन धीरे धीरे बीतते चले जा रहे हैं, सपनों का पानी बिलकुल ही
खतम हो चुका है, जीवन की पुरानी मदमस्त चाल अब बेढंगी हो चली
है। वह आवाज कहीं दूर जा कर लुप्त हो गई है, जिसकी प्रतिध्वनि
पर मुझे ताउम्र चलना था।
पढ़ते-पढ़ते अचानक जब मन तेज रफ्तार से
भागने लगा तो आँखों में आँसू की लम्बी धारा बह निकली। चश्मा
उतारकर मैंने मेज पर रख दिया और अपनी पीठ कुर्सी पर टिका दी।
मन बिना थके लगातार भागता ही चला जा रहा था, गुजरी हुई उन
गलियों की दिशा में जहाँ की हरी- भरी गलियों में चारों ओर सब
कुछ हरा भरा था। पर वह हरियाली स्थिर नहीं रही वह थोड़े ही समय
के बाद पीली होती चली गई।
एक गहरी कालिमा ने अरुण को मुझसे बहुत दूर कर दिया। मैं अरुण
के पदचिह्न तलाशते-तलाशते बहुत दूर तक चलती चली गई, पर अरुण तो
न जाने किन अनजानी परछाइयों का पीछा करते-करते गुमशुदगी की
सीढियाँ उतर कर कहीं चला गया है।
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आकुल की लघुकथा
चवन्नी नहीं चली
*
प्रभात रंजन की कलम से
फैंटम हुआ पचहत्तर
का
*
गिरीश पंकज का लेख
अज्ञेय की कविता- नई
दृष्टि, नए बिंब, नए इंद्रधनुष
*
डा. सच्चिदानंद झा की चेतावनी
सावधान मौसम बदल रहे हैं |
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पिछले
सप्ताह- |
डॉ. बालकरण पाल का व्यंग्य
बैठकबाजी
*
वल्लभाचार्य जयंती के अवसर
पर
पुष्टि मार्ग के
प्रवर्तक वल्लभाचार्य
*
रश्मि आशीष का लेख
उपयोगी ब्राउजर एक्सटेंशन
*
समाचारों में
देश-विदेश से
साहित्यिक-सांस्कृतिक सूचनाएँ
*
समकालीन कहानियों में भारत
से
सुभाष नीरव
की कहानी
चुप्पियों के बीच तैरता संवाद
मुझे यहाँ आए एक रात और एक दिन हो चुका था।
पिताजी की हालत गंभीर होने का तार पाते ही मैं दौड़ा चला आया
था। रास्ते भर अजीब-अजीब से ख्याल मुझे आते और डराते रहे थे।
मुझे उम्मीद थी कि मेरे पहुँचने तक बड़े भैया किशन और मँझले
भैया राज दोनों पहुँच चुके होंगे। पर, वे अभी तक नहीं पहुँचे
थे। जबकि तार अम्मा ने तीनों को एक ही दिन, एक ही समय दिया था।
वे दोनों यहाँ से रहते भी नज़दीक हैं। उन्हें तो मुझसे पहले
यहाँ पहुँच जाना चाहिए था, रह-रहकर यही सब बातें मेरे जेहन में
उठ रही थीं और मुझे बेचैन कर रही थीं।
मैं जब से यहाँ आया था, एक-एक पल उनकी प्रतीक्षा में काट चुका
था। बार-बार मेरी आँखें स्वत: ही दरवाजे की ओर उठ जाती थीं।
मुझे तो ऐसे मौकों का जरा-भी अनुभव नहीं था। कहीं कुछ हो गया
तो मैं अकेला क्या करूँगा...
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