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प्रकृति और पर्यावरण


सावधान ! मौसम बदल रहे हैं
- डा सच्चिदानंद झा
 


पृथ्वी पर जबसे जल एवं वायु की उत्पत्ति हुई है, तब से लेकर आज तक जलवायु परिवर्तन होता रहा है और भविष्य में भी होता रहेगा। वेद, पुराण, उपनिषद् सभी में इस परिवर्तन की चर्चा अंकित है।

उन्नीसवीं
शताब्दी के मध्य में फ्रांस के वैज्ञानिक एँटोनियो स्त्राइडर पेलेग्रीनि ने जलवायु परिवर्तन के विषय में जोरदार वैज्ञानिक तर्क प्रस्तुत किया था। इसके पूर्व अठारह सौ ई. में जरमनी के प्रकृति वैज्ञानिक एलेकजेंडर फान हंबोल्ड ने जलवायु परिवर्तन की व्याख्या करने के क्रम में यह अभिमत व्यक्त किया था कि मीसोजोइक युग के पूर्व अंध महासागर नहीं था। धन्यवाद है, जरमनी के ऋतु वैज्ञानिक अलफ्रेड वेगनर को, जिन्होंने सन् १९१२ ई. में विश्व के जलवायु परिवर्तन की समस्या का कारण जानने के क्रम में अनेकानेक तथ्यों पर प्रकाश डाला है। उन्होंने पता लगाया कि पृथ्वी पर विद्युत रेखीय क्षेत्र या आर्कटिक क्षेत्र या ऐसे ही अन्य क्षेत्रों में कुछ प्राचीन जलवायु के प्रमाण हैं, जहाँ आज वह जलवायु नहीं है। जलवायु संबंधी कुछ समतापूर्ण प्रमाण एक महाद्वीप से दूसरे महाद्वीप में वितरित हैं। पत्थरों में पाये जानेवाले चुंबकीय ध्रुव स्थानांतरण प्रमाण अर्थात 'पैल्योमैग्नेटिज्म' संबंधी तथ्य द्वारा भी प्राचीन काल में हुए जलवायु परिवर्तन की पुष्टि होती है।

जलवायु परिवर्तन का कारण

वैज्ञानिकों ने पृथ्वी की चुंबकीय शक्ति की सहायता से सन् १९५० ई. में प्रमाणित किया है कि जलवायु परिवर्तन का मुख्य कारण महाद्वीपीय विस्थापन है। अल्फ्रेड वेनगर के महादेशीय प्रवाह सिद्धांत के अनुसार पेंजिया नामक प्राचीन थलपिंड के खंडित होने के उपरांत मीसोजोइक युग के बाद सभी महाद्वीप वर्तमान स्वरूप में विस्थापित हुए हैं। पृथ्वी
निर्माण काल में तप्त अवस्था में थी, लेकिन जब यह ठंडी होने लगी तो मुख्यत: तीन परतों में गठित हुई।

केंद्र में अभी भी निफै नामक गरम और तरल पदार्थ है। इसके ऊपर सीमा नामक अर्धविगलित परत है। सबसे ऊपर सियाल नामक ठोस अवस्थावाली परत है। पूर्वकाल में सियाल का कुछ अंश लहलह थक्का रूप में एक जगह एकत्रित था, जो अल्फ्रेड वेगनर के अनुसार पैंजिया था। भारत के महर्षियों ने इसे ही नारायण के नाभिकमल (पद्म) कहकर संबोधित
किया है।

पौराणिक आख्यानों में वर्णित सुमेरू यही सियाल पिंड है। तथाकथित पद्म (पेंजिया) कालक्रम में आग्नेय चट्टान में परिवर्तित होकर सुमेरू पर्वत कहलाया। पूर्व काल में इस पद्म (थल) के चारों ओर एकार्णव जल था। इस अनंत जलराशि को वेगनर ने पेंथालासा कहा था। यह सुमेरू पर्वत अनंत काल के पश्चात अपक्षरित होकर उपत्यका बना और अंतत: खंडित होकर सात द्वीपों में विभक्त हुआ, जिसके सभी द्वीप वर्तमान के उत्तरी अमरीका, दक्षिणी अमरीका, आस्ट्रेलिया, अफरीका, युरेशिया, अंटार्कटीका एवं भारत महाद्वीप स्वरूप में विस्थापित हुए। यही विस्थापन तथ्य जलवायु परिवर्तन मुख्य कारण है।

जलवायु परिवर्तन


पृथ्वी के निकट अंतरिक्ष में होनेवाले बदलाव जलवायु परिवर्तन का दूसरा कारण हैं। संयुक्त राज्य अमरीका के वैज्ञानिक चार्ल्स पी. सोनेट ने सन् १९९६ में पृथ्वी के संबंध में जो रोचक खोज की है, उससे जलवायु परिवर्तन का दूसरा कारण भी उभरकर सामने आया है। इनका कहना है कि पृथ्वी की गति पूर्वकाल में तीव्र थी। इतना ही नहीं, पृथ्वी पर ज्वारभाटा निक्षेप प्रकार्य के अध्ययन से यह स्पष्ट होता है कि चंद्रमा एवं पृथ्वी के मध्य की दूरी बढ़ रही है। अंतरिक्ष में हुए
परिवर्तन के अनुरूप पृथ्वी की परिस्थितिकी में परिवर्तन होते रहना कोई नयी घटना नहीं है।

महादेशीय विस्थापन एवं अंतरिक्ष में हुए परिवर्तन के अतिरिक्त पर्यावरण प्रदूषण भी जलवायु परिवर्तन का कारण है। अश्मीभूत वस्तुओं के जलने से, नाभिकीय विस्फोट से, उद्योग एवं मोटर के धुएँ से पर्यावरण के प्रदूषित होने पर अंतत: जलवायु में परिवर्तन शुरू हो जाता है।

पृथ्वी पर जलवायु प्रदेश : सौर मंडल की वर्तमान व्यवस्था में पृथ्वी पर सूर्य की किरणें विषुवत रेखा से लेकर उत्तर में कर्क रेखा तक और दक्षिण में मकर रेखा तक लंब रूप में पड़ा करती हैं। अत: इन रेखाओं का मध्य क्षेत्र उष्ण कटिबंध में पड़ता है। मकर रेखा से अंटार्कटिक रेखा तक और कर्क रेखा से आर्कटिक रेखा तक के क्षेत्र शीतोष्ण कटिबंध में पड़ता है, जबकि आर्कटिक रेखा से उत्तरी ध्रुव तक तथा अंटार्कटिक रेखा से दक्षिणी ध्रुव तक का क्षेत्र शीत कटिबंध में पड़ता है।

वर्तमान परिप्रेक्ष्य में पृथ्वी पर मुख्यत: सात जलवायु प्रदेश पाये जाते हैं, जिन सबको कई उप भागों में भी वर्गीकृत किया जा सकता है। ये सात मुख्य जलवायु निम्नलिखित हैं --

टुंड्रा जलवायु :
पृथ्वी पर ६५ डिग्री से ९० डिग्री अक्षांशों के बीच उत्तरी और दक्षिणी दोनों ध्रुव में यह जलवायु पायी जाती है। मुख्यत: उत्तरी कनाडा, युरेशिया के आर्कटिक क्षेत्र और अंटार्कटिक क्षेत्र में इस तरह की जलवायु मिलती है। गरमी की ऋतु यहाँ बहुत छोटी और जाड़े की ऋतु लंबी होती है। गरमी में तापमान मात्र १० डिग्री सेल्सियस और जाड़े में औसतन ४० डिग्री सेल्सियस नीचे तक तापमान चला जाता है। जाड़े की ऋतु में सूर्य के नहीं निकलने से यहाँ रात रहा करती है। जाड़े में बर्फ की आँधी चला करती है। वर्षा कम होती है और जो भी होती है, हिमपात के रूप में। बर्फ से ढके रहने के कारण
यहाँ वनस्पति प्राय: नहीं पायी जाती है।

शीतोष्ण जलवायु :
यह जलवायु उत्तरी और दक्षिणी दोनों गोलार्ध में २५ डिग्री से ६० डिग्री अक्षांशों के बीच पायी जाती है। पश्चिमी यूरोपीय देश, उत्तरी कैलिफोर्निया, दक्षिणी चिली, न्यूजीलैंड, टासमानियाँ आदि जगहों पर यह जलवायु समशीतोष्ण किस्म की है, जबकि महादेशों के पूर्वी भाग में कर्क रेखा के उत्तर और मकर रेखा के दक्षिण में गरम शीतोष्ण और चीनी जलवायु किस्म की जलवायु मिलती है। ठीक इसके पश्चिम में महादेशीय किस्म की और उसके बाद ध्रुवीय प्रदेश की ओर शीतोष्ण किस्म की जलवायु पायी जाती है। किस्म-किस्म के कोणाधारी वन इन क्षेत्रों में पाये जाते हैं। जिनके पत्ते जाड़े में प्राय:
झड़ जाते हैं।

भूमध्यसागरीय जलवायु :
औसतन ३० डिग्री से ४५ डिग्री अक्षांशों के बीच उत्तरी और दक्षिणी गोलार्ध में मुख्यत: भूमध्यसागरीय तट, दक्षिणी कैलिफोर्निया, दक्षिणी आस्ट्रेलिया, नेटाल, उत्तरी चिली आदि जगहों पर यह जलवायु पायी जाती है। हालाँकि, यहाँ की जलवायु समशीतोष्ण किस्म की ही है, लेकिन गरमी की ऋतु शुष्क और जाड़े की ऋतु वर्षावाली होती है। इस क्षेत्र की
दूसरी विशेषता यह है कि यहाँ विभिन्न प्रकार के फलों के छोटे-छोटे पेड़ पाये जाते हैं।

उष्ण मरूस्थलीय जलवायु :
औसतन २० डिग्री से ३५ डिग्री अक्षाशों के मध्य उत्तरी और दक्षिणी दोनों गोलार्ध में महाद्वीपों के पश्चिमी तट पर यह जलवायु पायी जाती है। सहारा, कालाहारी, पश्चिमी आस्ट्रेलिया, थार, कोलेरेडो, आटाकामा, अरब आदि क्षेत्रों में यह जलवायु मिलती है। गरमी में तापमान ५० डिग्री सेल्सियस तक पहुँच जाता है। दैनिक तापांतर अधिक रहने से चट्टानों का विखंडन यहाँ अधिक होता है। नाममात्र की वर्षा होने से वनस्पति यहाँ प्राय: नगण्य है।


मानसूनी जलवायु :
भारत, बांगलादेश, म्याँमार, दक्षिणी चीन, फिलिपीन आदि क्षेत्रों में यह जलवायु पायी जाती है। वर्षा यहाँ अधिकतर पर्वतीय किस्म की होती है, जो मुख्यत: मानसून काल में ही होती है। अधिक वर्षा और अधिक गरमी रहने के कारन यहाँ पतझड़ वन पाये जाते हैं।


सवाना जलवायु :
विषुवतरेखीय क्षेत्र में महाद्वीपों के पूर्वी भाग में वर्षा अपेक्षाकृत कुछ कम होती है, फलत: सवाना जलवायु पायी जाती है।
विषुवतीय क्षेत्र में रहने के कारण यहाँ जाड़ा नहीं पड़ता है। इस जलवायु में बड़े पेड़ कम और घास अधिक पायी जाती हैं।

विषुवतरेखीय जलवायु :
० डिग्री से १० डिग्री उत्तरी और दक्षिणी अक्षांशों के मध्य महाद्वीपों के पश्चिमी भाग में यह जलवायु पायी जाती है। सालभर उच्च तापमान यहाँ रहता है। यहाँ जाड़ा नहीं पड़ता है। वर्षभर संवहनीय वर्षा से २०० सेंटीमीटर से अधिक वर्षा
हो जाती है। यही कारण है कि यहाँ घने, लंबे और सदाबहार वन पाये जाते हैं।

जलवायु परिवर्तन का कुप्रभाव :
जलवायु की उपरोक्त हितकारी व्यवस्था में मानवों द्वारा अमर्यादित हस्तक्षेप हो रहा है। भौगोलिक नियम इतना व्यापक एवं संवेदनशील होता है कि वह आपत्तिजनक हस्तक्षेप को बर्दाश्त नहीं करता है। विश्व में भौतिक उपलब्धियों को पाकर मानव ने यह सोच रखा है कि उसने भौगोलिक पारिस्थितिकी पर नियंत्रण पा लिया है, लेकिन जब पृथ्वी की पारिस्थितिकी प्रदूषित होने लगी है, तो अपनी गलतियों पर पश्चाताप करने के सिवा उसे और कोई रास्ता नहीं मिल पा रहा है। जीवन में सुख सुविधा पाने के लिए जो अनेकानेक उपाय खोजे गये हैं, उस उपाय से अनेक परेशानियाँ भी उत्पन्न हो गयी हैं। तकनीकी ज्ञान और विज्ञान तभी तक लाभदायक हो सकता है, जब इसका व्यवहार समझदारी से किया जाए।


सन् १९९० के दशक में यह जानकारी मिली है कि विगत सौ वर्षो में वायुमंडल में कार्बन डाइ ऑक्साइड की चालीस प्रतिशत की औसतन वृद्धि हुई है। सूर्य की अल्ट्रा वायलेट किरणों से पृथ्वी की रक्षा करनेवाली ओजोन परतों पर कार्बन डाइ ऑक्साइड का जमाव बढ़ता जा रहा है। विगत सौ वर्षों में वायुमंडल में अर्जेंनिक, ऐंटीमानी, कोबाल्ट, निकिल आदि की काफी वृद्धि हुई है, जिसके कारण जीव-जंतु, पेड़-पौधे आदि के अस्तित्व पर खतरा बढ़ गया है। कार्बोनिक जलावन के जलने से विगत सौ वर्षो में २४ लाख टन ऑक्सीजन का हास एवं छत्तीस लाख टन कार्बन डाइ ऑक्साइड की वृद्धि हुई है। स्पष्ट है कि वायुमंडल की वायु बहुत तेजी से प्रदूषित हो रही है।

इस सब अनर्थ का कारण है, मानव द्वारा अविवेकपूर्ण भौतिक उन्नति करने का प्रयास। इस अविवेकपूर्ण प्रयास में विकास विनाश का रूप ले रहा है। वातावरण से एक तो ऑक्सीजन की मात्रा कम हो रही है और दूसरी पृथ्वी की हरियाली भी नष्ट हो रही है। ऑक्सीजन उत्पन्न करने का मुख्य स्रोत हरियाली है। संसार में हरियाली का प्रतिशत कम होता जा रहा है। हरियाली के लिए पृथ्वी पर वन क्षेत्र का प्रतिशत तैंतीस के आसपास रहना चाहिए।

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