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दिन धीरे धीरे बीतते चले जा रहे हैं, सपनों का पानी बिलकुल ही
खतम हो चुका है, जीवन की पुरानी मदमसत चाल अब बेढंगी हो चली
है। वह आवाज कहीं दूर जा कर लुप्त हो गई है, जिसकी प्रतिध्वनि
पर मुझे ताउम्र चलना था।
पढ़ते -पढ़ते अचानक जब मन तेज रफ्तार से
भागने लगा तो आँखों में आँसू की लम्बी धारा बह निकली। चश्मा
उतारकर मैंने मेज पर रख दिया और अपनी पीठ कुर्सी पर टिका दी।
मन बिना थके लगातार भागता ही चला जा रहा था, गुजरी हुई उन
गलियों की दिशा में जहाँ की हरी-भरी गलियों में चारों ओर सब
कुछ हरा भरा था। पर वह हरियाली स्थिर नहीं रही वह थोड़े ही समय
के बाद पीली होती चली गई।
एक गहरी कालिमा ने अरुण को मुझसे बहुत दूर कर दिया। मैं अरुण
के पदचिह्न तलाशते-तलाशते बहुत दूर तक चलती चली गई, पर अरुण तो
न जाने किन अनजानी परछाइयों का पीछा करते गुमशुदगी की
सीढियाँ उतर कर कहीं चला गया है।
माँ, रवि की आवाज सुनकर, मेरे विचारों की कड़ियाँ टूटी।
"मैं थोड़ी देर में सोऊँगा।" |