अज्ञेय की कविता- नई
दृष्टि, नए बिंब, नए इंद्रधनुष
गिरीश
पंकज
अपनी
महान काव्य-परम्परा का आंशिक-तत्व लेकर नए मौलिक
बौद्धिक-विवेक के साथ अज्ञेय ने जो कविताएँ रचीं, जो
गद्य हमें प्रदान किया, उसने साहित्य की समकालीन धारा
ही बदल दी। यही कारण है कि मुझे ही क्यों बहुतों को भी
कविता और समग्र साहित्य के नए रूप-रंग और आकार को गढऩे
वाले अज्ञेय को पढऩा हमेशा अच्छा लगता रहा। इस बावरे
अहेरी ने नई साहित्यिक चेतना की जो असाध्य वीणा बजाई,
उसने अपने समय को झंकृत किया ही मगर उसकी अनुगूँज से
लगता है, शताब्दियाँ भी अछूती नहीं रह सकेंगी। निराला
के रचे गए निपट नूतन एवं अभूतपूर्व पाठ में अज्ञेय ने
जो मौलिक साहित्यिक अध्याय जोड़े, उसने साहित्य के
सन्नाटे के छंद को तोड़ कर रख दिया। एक नए
साहित्यिक-विमर्श के साथ अज्ञेय ने पुरातन विचारों के
रौंदे हुए इंद्रधनुषों को एक नया संस्पर्श दिया। और
अपनी बहुविध प्रतिभा के प्रदेय से साहित्य के आंगन के
पार द्वार से निकलकर युगांतकारी सर्जनाओं के नए
प्रतिमान-गृहों की रचनाएँ कीं। इस यायावर को याद करना
प्रकारांतर से वर्तमान को ही याद करना है क्योंकि
अज्ञेय अतीत नहीं हो सके। वे सदैव वर्तमान ही रहे।
उनका शताब्दी वर्ष मनाते हुए लगता है,कि हम किसी बिसरी
हुई चीज को नास्टेल्जिक हो कर याद करने की कोशिश कर
रहे हैं, पर ऐसा है नहीं।
अज्ञेय की
चर्चा का मतलब है, बिल्कुल अभी के किसी ताज़ा रंग को निहारना।
बिल्कुल ताज़ा हवा को महसूस करना। अज्ञेय के रंग इतने ताज़ा
क्यों हैं, जाहिर है, उनमें कालजयी शास्त्रीयता है। ऐसी
शास्त्रीयता, ऐसी क्लॉसिकी, जो उनके बाद निरंतर दुर्लभ होती
गई। उनकी छाया में जीने वाली हिंदी कविता का उत्तर
संरचना-संसार अब वैसे तो उत्तर आधुनिकता के राग-आलाप तक तो
पहुँच गया है, मगर सोच और शिल्प के महावृक्ष के नीचे बैठ कर
अज्ञेय ने जो नयाबोध दिया था, वह अब लापता है। इसलिए अज्ञेय
बेहद प्रासंगिक हो गए हैं और अब कुछ ज्यादा जरूरी-से लगते हैं;
जबकि हिंदी कविता में वह बौद्धिकता लापता है, जिसे अज्ञेय जैसे
सुकवियों ने संभव किया था। इधर जो कविताएँ हो रही हैं, उन्हें
देख कर छाती पीटने का मन करता है, मगर एक अदद अज्ञेय की
उपस्थिति से दु:ख कम हो जाता है और लगता है, कि हमारी समकालीन
कविता की धारा सदानीरा रहेगी। इसे हम यूँ भी कह सकते हैं, कि
नई कविता की दुनिया में एक बूँद सहसा उछली और वही अंतत: सागर
में रूपांतरित हो गई।
अज्ञेय को
पहली बार कॉलेज के दिनों में पढ़ा था। फिर ऐसी दीवानगी हुई, कि
जब-तब उनको पढ़ता ही रहा। ये और बात है कि मैंने उनके रचे
प्रतिमानों पर चलने के बजाय परम्परा के प्रदेय के ही कुछ
शाश्वत- लीक पर चल कर अपने तईं कुछ नए विमर्श किए। लेकिन
अज्ञेय को बार-बार पढ़कर अपने भीतर के लेखक को प्रतिपल
नवीन-चेतना से संपृक्त करता रहा। अज्ञेय का गद्य भी उनकी
कविताओं की तरह ही अत्याधुनिक है। जैसे शेखर एक जीवनी। या उनके
यात्रा-वृतांत, मगर मैं यहाँ अज्ञेय की कविताई पर ही अपने को
एकाग्र करना चाहूँगा। हमारी आधी-अधूरी और बहुत हद तक
पूर्वाग्रहों से ग्रस्त आलोचना ने अज्ञेय के बारे में ऐसे रूपक
गढ़े गोया वे केवल नई कविता के ही सर्जक थे, और छांदस्-अनुराग
से उनका कोई लेना-देना नहीं था। अज्ञेय की जो कविताएँ कोर्सों
में पढ़ाई गईं, वे भी छंदों से दूर थीं। शुरू-शुरू में मुझे भी
यही लगता था, कि अज्ञेय के शिल्प में छांदस्-राग अनुपस्थित है।
लेकिन जब उनके रचनाओं के महासागर में डुबकी लगाई तो गीतात्मकता
से आप्लावित अनेक क्लासिक काव्य-निधियाँ हाथ लगीं।
दरअसल कविता
गीतात्मकता से बच ही नहीं सकती। छंद से परे हो कर भी कविता का
अपना छंदानुशासन होता है। जिसके सहारे ही वह कालजयी हो पाती
है। अज्ञेय की अनेक कविताओं में यह रागात्मकता दृष्टिगोचर होती
है। वे अपनी कविता प्रतीक्षा गीत में कहते हैं,
हर किसी के भीतर एक गीत सोता है।
जो इसी का प्रतीक्षाभान होता है
कि कोई उसे छू कर जगा दे।
जमीं परतें पिघला दे।
और एक धार बहा दे।
पर ओ मेरे प्रतीक्षित मीत।
प्रतीक्षा स्वयं भी तो है एक गीत।
जिसे मैंने बार-बार गाया है।
जब-जब तुमने मुझे जगाया है।
ऐसी अनेक
कविताएँ अज्ञेय ने रची हैं, जिनमें लयता है। छंदबद्धता है। और
उनमें नया बोध तो खैर है ही। ऐसा नहीं, कि अज्ञेय की कविताओं
में केवल सपाट बौद्धिकता है। या फिर वे केवल प्रतीकों में ही
अपनी बात कहते हैं। कहीं-कहीं तो वे इतने मुखर हो कर उभरते
हैं, कि सिद्ध व्यंग्य-शिल्पी भी चकित रह जाते हैं। अज्ञेयजी
की एक कविता मैंने पढ़ी और अभिभूत हो गया। निराला ने शोषकों के
विरुद्ध एक कविता लिखी थी, जो काफी चर्चित हुई थी-अबे सुन बे
गुलाब..। जिसके प्रतीकार्थ भी लोग समझ गए थे। अज्ञेय ने शोषकों
पर प्रहार किया है। यह जरूरी है कि जब हम शातिरों पर प्रहार
करें तो सीधे-सीधे करें। लेकिन इतनी हिम्मत इधर के कवियों में
नहीं है। वे सुविधाओं के साथ कविताई करते हैं। इसीलिए
निष्प्राण बने रहते हैं। इसीलिए इस दौर की बहुत कम कविताएँ उस
शास्त्रीयता तक पहुँच पाती हैं, जो केवल अज्ञेय जैसे कवियों
में ही द्रष्टव्य होती है। प्रायोजित आलोचनाओं के ऑक्सीजन के
कारण इधर की कविताएँ साँस ले पा रही हैं, जबकि ये कविताएँ
मरणासन्न हैं।
सच्ची कविता
सुविधा नहीं, संघर्ष की अनुगामिनी होती है। अज्ञेय की कविता
साँप उनकी प्रतिनिधि रचना है। मगर ऐसी अनेक रचनाएँ उनके पास
हैं। अपनी कविता शोषक भैया में अज्ञेय कहते हैं-
मत डरो शोषक भैया: पी लो।
मेरा रक्त ताज़ा है, मीठा है, हृद है।
पी लो शोषक भैया।
डरो मत। शायद तुम्हें पचे नहीं-अपना मेदा तुम देखो,
मेरा क्या दोष है।
मेरा रक्त मीठा तो है, पर पतला और हल्का भी हो।
इसका जिम्मा तो मैं नहीं ले सकता, शोषक भैया...।
एक लोक
प्रचलित बहुश्रुत-कविता है-'राँड, साँड, सिद्धी संन्यासी। इनसे
बचें तो सेवे कासी।'।इसमें नया रंग भरते हुए अज्ञेय लिखते हैं,
''राँड, भाँड, जोसी, दलनासी। इन को भजै तो दिल्लीवासी''।
दिल्ली का चरित्र क्या है, दिल्ली की सोच क्या है, इसको समझने
के लिए ये दो पंक्तियाँ पर्याप्त हैं। एक अन्य व्यंग्य-कविता
में वे कहते हैं-आज राजनीति में बुद्धि औ निष्ठा का टोटा। या
तो भाँजो रोकड़ या फिर भाँजो सोटा। क्या छोटा, क्या मोटा। हर
सिक्का खोटा-यह बेलोटे की पेंदी, वह बेपेंदी का लोटा। एक और
गहरा व्यंग्य देखें- धीरे-से बोले अज्ञेयजी: अगरचे। शुरू मैंने
ही किए थे चरखे और चरचे। आया जो आपातकाल। सूरमा हुए निढाल।
समाचार-साप्ताहिक सब हो गए परचे। एक अन्य लघु व्यंग्य-कविता
है- ''डीवार पर बैइठा ठा हम्प्टी-डम्प्टी, गिर अउर टूट गिया,
इडर जास्टी उडर कम्प्टी। राजा बोला: मुर्दे को माफ क्रो। बट
रास्टा जल्डी सा$फ क्रो-मेक श्योर हाइवे पर ट्राफिक नेई
ठम्प्टी''। वैसे तो अज्ञेय के लेखन में अनेक व्यंग्य-तत्व हैं।
इतने कि अगर उन्हें खँगाल कर एक साथ रख दिया जो, तो वे
व्यंग्य-कवि के रूप में भी पहचाने जा सकते हैं। लेकिन उनके
सामने पहचान का कोई संकट ही नहीं है। वे अपनी अनेक गंभीर
कविताओं के साथ-साथ बीच-बीच में व्यंग्य से मुक्त हो ही नहीं
पाते। अपनी कृति शाश्वती में उनके स्फुट विचारों का अवगाहन
करते हुए मुझे अनेक व्यंग्य कविताएँ मिलीं। दरअसल कविता या
साहित्य में व्यंग्य के बिना कोई विमर्श संभव नहीं हो पाता
क्योंकि रचनाकार अपने समयके ताप से प्रभावित होती है। और जब
पूरा देश राजनीति के शातिरपन कोझेलने के लिए अभिशप्त हो तब कोई
बी सच्चा कवि उससे परे नहीं जा सकता।
यही कारण है
कि अज्ञेय भी व्यंग्य की दुनिया में आते हैं और एक न एक
हस्ताक्षर कर फिर चले जाते हैं। उनकी दो और छोटी-छोटी कविताओं
को यह मैं जिक्र करना चाहूँगा। पहली देखें- ''गाँव के मुलाहिजे
को आये थे मन्तरी।
आगे-पीछे, इर्द-गिर्द डोलते थे सन्तरी।
मेज-कुर्सी, दस्तरखान। देख कह उठा किसान।
ठाठ तो साहिबी है, माल मगर कन्तरी''।
दूसरी कविता है-
''शाम सात बजे मंत्री ने पुस्तक विमोची। सबेरे छ: बजे अखबार ने
आलोची। प्रकाशक प्रसन्न हुआ। लेखक भी धन्न हुआ। दुख यही है कि
पढऩे की किसी ने नहीं सोची''।
अज्ञेय की
कविता का रंग नई दृष्टि, नए बिंब, नए इंद्रधनुष रचता है। मगर
ये इंद्रधनुष इधर की कविताओं की तरह रौंदे गए नहीं लगते। उनकी
कविता का सुवास नये अहसास से भरता है। उनकी हर कविता सर्जना की
गंभीरता की ओर इशारा करती है। अज्ञेय की रचना प्रक्रिया को
देखते हुए एक बात साफ तौर पर समझ में आती है, कि वे रचना को
प्रयोजनमूलक ही बनाते हैं। निपट निर्जीव-सा बौद्धिक प्रलाप
नहीं, वरन कोई बात निकलती है, जिसका कोई खास मकसद भी होता है।
इसीलिए तो वे कहते हैं, कि प्रक्रिया ही शाश्वत है। प्रक्रिया
के बाहर सर्जना का महत्त्व सर्जक के लिए क्या है या क्या हो
सकता है? मील के पत्थर नहीं है, जिसे पथ पर चलना है। उसे मील
के पत्थर पीछे छोड़ते जाना है। यात्रा ही सर्जना है। सर्जना
प्रक्रिया है। जो रूपाकार उसके ताप में से प्रकट होते हैं। वे
सब आनुषांगिक हैं-हुए नहीं कि पीछे-पीछे छोड़ देने लायक हो गए-
बल्कि पीछे छूट गये...प्रक्रिया ही शाश्वत है। वहीं तुम भी चली
जाना। अज्ञेय की तमाम कविताएँ इसी शाश्वत-निकष पर खरी हैं।
अज्ञेय ने ऐसी कविता संभव की जिसके हर पाठ में चिंतन के नए
क्षितिज दीखते हैं।
अज्ञेय शाश्वतमूल्यबोध वाले कवि हैं। हर पल नये हैं। तब भी थे
और आज भी हैं और कल भी रहेंगे। उनकी कविता का नयापन इतना
शाश्वत-सा हो गया है, कि अभी पढ़ो और लगता है, अभी लिखी गई है।
वह चिर नवीन है। अपनी कविता नए कवि का आत्मस्वीकार में अज्ञेय
कहते हैं, कि ''यों मैं नया कवि हूँ, आधुनिक हूँ, नया हूँ।
काव्य-तत्व की खोज में कहाँ नहीं गया हूँ। चाहता हूँ आप मुझे।
एक-एक शब्द पर सराहते हुए पढ़ें। पर प्रतिभा अरे, वह तो। जैसी
आपको रुचे, आप स्वयं गढ़ें।'' अज्ञेय की यह कविता दरअसल वह
बयान है, जिसके सहारे हम एक नई काव्य-चेतना, काव्य-धारा को समझ
सकते हैं। जो निराला के बाद अज्ञेय, मुक्तिबोध और शमशेर जैसे
चंद कवियों ने आगे बढ़ाई। कविता में भावनाओं के उद्वेग के
साथ-साथ बुद्धि को घोल भी था। मगर कविता का सार्थक भूगोल भी
था। लेकिन केवल बौद्धिकता के सहारे कोई कविता बड़ी नहीं हो
सकती। कविता वही बड़ी होती है, जो चेतना-रस के साथ सम्प्रेषणा
के निकष पर खड़ी होती है।
महान रचना के
बारे में अज्ञेय का एक वाक्य है-महान रचना का यथार्थ वह है जो
वह रचना करती है, वह नहीं जो आप समझते हैं। कविता हमारे जीवन
में संगीत की तरह उतरती है। कविता रहबर की तरह रास्ता भी
दिखाती है। और अज्ञेय जैसे कवियों की कविताएँ यह भी बताती हैं,
कि समय और समाज के साथ हमारे सरोकार कैसे हों। कविता केवल एक
वायवी दुनिया नहीं है। सही कविता मुझे असाध्य वीणा-सी ही लगती
है। या कोई भी वाद्य-यंत्र जो खूबसूरत होता है, मगर हर कोई उसे
बजा नहीं सकता। बजाना सीख भी ले तो माहिर नहीं हो पाता।
क्योंकि इसके लिए गहरी साधना जरूरी है। कविता भी एक तरह की
असाध्य वीणा है। कविता जब केवल दिमाग से लिखी जाती है तो वह
लोकातीत हो जाती है, मगर जब वह दिल के सहारे रची जाती है तब वह
लोकरागी हो कर सर्वानुरागी बन जाती है। अज्ञेय की कविता की
रंजकता या उनकी शास्त्रीयता का सर्वाधिक महत्वपूर्ण पक्ष यही
है, कि वे सत्य की खोज में रत नजर आते हैं।
इसीलिए वे
राहों के अन्वेषी हैं। लेकिन सत्य को तलाशना क्या इतना आसान
है? युग-युग सत्य की तलाश जारी है लेकिन हर किसी को वह एक नए
रूप में मिलता है। कभी विकलांग,कभी आधा-अधूरा-सा। किसी को
मिलता भी है तो वह पहचान नहीं पाता। मुझे लगता है, कि हमारा
पूरा जीवन सत्य की तलाश है। यह जीवन ही बेहतर जीवन की खोज है।
हमारा जीवन अन्वेषणों के लिए होता है। मगर हम जाया कर देते
हैं। लेकिन अज्ञेय जैसे कवि अन्वेषणों में रत रहते हैं। अपनी
एक कविता सत्य तो बहुत मिले में कवि कहता है, खोज में जब निकल
ही आया। सत्य तो बहुत मिले। कुछ नये, कुछ पुराने मिले। कुछ
अपने कुछ बिराने मिले। कुछ दिखावे कुछ बहाने मिले। कुछ अकड़ू
कुछ मुँह चुराने मिले। कुछ घुटे मँजे सफेदपोश मिले। कुछ
ईमानदार खानाबदोश मिले। कुछ पड़े मिले। कुछ खड़े मिले। कुछ
झड़े मिले। कुछ सड़े मिले। कुछ निखरे, कुछ बिखरे। कुछ धुंधले,
कुछ सुथरे। कुछ सत्य रहे। कहे-अनकहे।
अज्ञेय का
रचनात्मक-संसार बहुत व्यापक है। उन पर गहरे और सुदीर्घ-विमर्श
जरूरी हैं। उनके रचना-संसार से गुजर कर ही इस दौर का नया कवि
एक दिशा प्राप्त कर सकता है। अज्ञेय खुद कहते हैं, कि
साहित्यकार को समकालीन साहित्य के अध्ययन से भी कुछ मिलता है।
समकालीन समाज के निरीक्षण से भी बहुत कुछ मिलता है। इन दोनों
प्रणालियों से मिलने वाला बहुत कुछ दूसरों द्वारा परीक्षणीय और
प्रामाण्य हो सकता है। पर समकालीन जीवन से साह्त्यि-स्रष्टा को
इससे अधिक भी कुछ मिलता या मिल सकता है। जिसका कोई समकालीन,
तर्कसंगत, वैज्ञानिक प्रमाणीकरण सम्भव नहीं है। अज्ञेय की
कविताएँ और उनका गद्यलोक दोनों की रसमयता हर बार उनकी तरफ
खींचती है। यह कहा जा सकता है कि उनका समग्र मूल्यांकन अब तक
नहीं हुआ। इसलिए अब जब उनकी शताब्दी मनाई जा रही है, तब हमारे
प्राध्यापकों का, शोधवृत्ति वाले छात्रों और साहित्यिकों का
कर्तव्य है, कि उनके समग्र साहित्य में समाई कालजयी
शास्त्रीयता को फिर से समझने-बूझने की कोशिश करें। सचमुच
अज्ञेय की रचनाएँ हमें छूती हैं। छूती ही नहीं, दिल तक उतरती
भी हैं। उन्हीं के शब्दों में कहूँ, तो रचना हमारे भीतर बजती
है। यह छूना, छुआ जाना, यह भीतर बजना ही सम्प्रेषण का आयाम है।
इस कथन के आलोक में हम किसी भी महान रचना के चरित्र को समझ
सकते हैं। अगर कोई कविता या रचना दिल के भीतर हमें झंकृत नहीं
करती तो उसका होना निरर्थक है। सम्प्रेषण ही कविता की ताकत है।
तभी कविता बड़ी होती है। लेकिन अज्ञेय यहाँ एक मार्के की बात
कहते हैं। सम्प्रेषण की कसौटी यह नहीं कि रचना कितनी संख्या
में पढ़ी गई। कितनी प्रतियाँ उसकी बिकीं। ऐसा बिल्कुल संभव है
कि लाखों प्रतियाँ पढ़ी जायें मगर सम्प्रेषण के नाम पर कुछ न
हो-संवेदन में कहीं कोई वृद्धि न हो, उस के स्रोतों के आसपास
भी कहीं पहुँच न हुई हो। मेड़ें काट कर उन्हें खुला बहने देने
की बात तो दूर। इधर की कुछ कविताओं की हालत यही है। सम्प्रेषण
की खाँटी कमी कविता को खारिज करती है। ऐसी कविताओं की पुस्तकें
प्रभावों का इस्तेमाल करके लाखों की प्रतियों में बेची जा सकती
है,मगर उनको याद रख पाना संभव नहीं होता। वे कहाँ बिला जाती
हैं, पता ही नहीं चलता। लेकिन जब कविता को कवि अपनी आत्मा के
भीतर संभव बनाता है तो उस यायावर को हमेशा याद किया जाता है।
एक सही कविता
अपनी इयत्ता को स्थापित करती है। अपनी विनम्र सत्ता स्थापित
करती है। कविता जीवन को ही संभव बनाती है। निराशा के विरुद्ध
एक हस्तक्षेप की तरह खड़ी होती है। अज्ञेय की कविताओं में जीवन
के तत्व हैं। इसीलिए वे सदानीरा हैं। वे करुणा प्रभामय को
पुकारते हैं। अज्ञेय कविता के ऐसे आधुनिक दीप हैं जो अब तक जल
रहे हैं। अज्ञेय की एक कविता है यह दीप अकेला। वह पूरी कविता
मानवीय मेधा के एक रूपक की तरह देखी जानी चाहिए। कोई भी मनुष्य
अपने अवदानों के नए रूपों के कारण चिरजीवी बनता है। अज्ञेय
कविता के अकेले नदी के द्वीप हैं, जहाँ जाने का मन करता है।
जहाँ बैठ कर हम पूरी दुनिया को निहारते हैं। वे एक ऐसे दीपक भी
है, जो अकेले हैं, और निरंतर जल रहे हैं। मजे की बात इस यह लौ
दिनोंदिन तेज होती जा रही है। अज्ञेय की कविता यह दीप अकेला को
पढ़े और उसमें अज्ञेयजी का बिंब देखें। कविता है-
यह दीप अकेला स्नेह भरा।
है गर्व भरा मदमाता पर।
इसको भी पंक्ति दे दो।
यह मधु है स्वंय काल का युग संचय।
यह गोरस: जीवन कामधेनु का अमृत-पूत पय।
यह अंकुर : फोड़ धरा को रवि को तकता निर्भय।
उनकी एक और
बड़ी कविता है-दूर्वादल। इसके साथ ही मैं अज्ञेय की कविता के
लघुतम विमर्श को यही आंशिक विराम देने की भूमिक बना रहा हूँ।
कविता देखें-''पार्श्व गिरी का नम्र चीड़ों में। डगर चढ़ती
उमंगों-सी। बिछी पैरों में नदीं ज्यों दर्द की रेख। विहग-शिशु
मौन नीड़ों में। मैंने आँखभर देखा। दिया मन को दिलासा
तुरंत-पुन: आऊँगा। (भले ही बस दिन-अनगिन युगों के बाद) क्षितिज
ने पलक-सी खोली। तमक कर दामिनी बोली- अरे यायावर रहेगा याद''।
नई कविता के
इस यायावर को भला कौन भूल सकता है? जब तक समाज में गहरा
काव्य-विवेक बचा है, जब तक नई सर्जना के चहेते बचे हैं,जब तक
सच्ची कविता के पाठक सलामत है, जब तक कविता की जिजीविषा जिंदा
है, जब तक सम्प्रेषणीयता कविता की शर्त बनी रहेगी, जब तक
साहित्य चेतना का पर्याय रहेगा, तब तक अज्ञेय जैसे कवि याद रह
जाएँगे। अज्ञेय की ही एक कविता के साथ अब पूर्ण विराम: कविता
है-
आप चीखते हैं चिल्लाते हैं
आप बात फिर-फिर दुहराते हैं
मैं इशारा कर के मुस्करा देता हूँ
अपना-अपना तरीका है।
न-न- आप नाहक बौखलाते हैं
मैं तो अपनी कह भी चुका -
तो अब विदा लेता हूँ।
४
अप्रैल
२०११ |