इस सप्ताह- |
अनुभूति
में-
1
मधु प्रसाद, दिल अंबर जोशी, नरेदन्द्र व्यास, सरोजिनी प्रीतम और
शोभनाथ यादव की रचनाएँ। |
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साहित्य और संस्कृति में- |
1
समकालीन कहानियों में भारत से
पुष्पा तिवारी
के उपन्यास 'नरसू की टुकुन कथा'
का एक अंश- नरसू
नाचते-नाचते थक गया हूँ। पैर हैं
कि मन में थिरकते ही रहते हैं। स्टेशन दर स्टेशन गाड़ियाँ
बदलते पैर कितने थक गए हैं और मन भी। मेरे पैर नाचते हुए कभी
नहीं थके। नाचने से मैं कभी थकता भी नहीं। वह उत्साह नहीं है,
लेकिन आज समय के बदलते अंदाज़ में, मैं कहाँ हूँ? क्या सोच कर
यहाँ आया था और कहाँ पहुँचा? पहुँच पाया भी कि नहीं नहीं
मालूम! उम्र के कितने बरस बीत गए हैं... शायद पैंसठ या एक दो
साल ज्यादा ही। कभी फुरसत नहीं मिली कुछ भी सोचने की। मेरी एक
ज़िद सदैव रही है और तिस पर एक जुनून। उसने मुझे और किसी बात
के लिए अवसर ही नहीं दिया। बिता दिया एक सक्रिय जीवन अपनी तरह
का। अब सोचने को बचा कहाँ है? बच्चे बड़े हो गए हैं। सोच तो वे
रहे हैं। उनके सामने पूरा जीवन है। हमने यह अधिकार दिया हो, न
दिया हो... उन्होंने छीन लिया है यह सब सोचने का हमसे।
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*
सुरेन्द्र गुप्त की लघुकथा
रजाई
*
प्रकृति और पर्यावरण में अनुपम
मिश्र
का लेख-
सिमट-सिमट जल भरहिं तलाबा
*
डॉ. राजेन्द्र गौतम का संस्मरण
सादगी और साफ़गोई की तस्वीर- डॉ. शंभुनाथ सिंह
*
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पिछले
सप्ताह- |
मनोहर पुरी का व्यंग्य
प्याज और ब्याज
*
डॉ. किशोर काबरा का आलेख
गीत और नवगीत के बीच एक ऋतुमती प्यास
*
सामयिकी में डॉ. वेद प्रताप
वैदिक के विचार
दाल में कुछ काला जरूर है
*
पुनर्पाठ में- भारतीय लोक कलाओं की
जानकारी के अंतर्गत- कलमकारी
*
समकालीन कहानियों में यू.एस.ए. से
अनिल प्रभा कुमार की कहानी
घर
कॉलेज
में साल का आख़िरी दिन था। विश्व - विद्यालय के अहाते में खूब
सरगर्मी मची हुई थी। सलिल भी अपनी इमारत से नीचे उतर कर,
मुख्य द्वार के साथ लगी पटरी पर अपना थोड़ा-सा
सामान रख कर खड़ा हो गया। प्रतीक्षा कर रहा था अपनी माँ की ।
खीझ भी आ रही थी कि पता नहीं अपनी बड़ी-सी स्टेशन वैगन लेकर
कहाँ अपनी धीमी-धीमी चाल से चला कर आ रही होगी। पर अन्दर ही
अन्दर उसे अच्छा भी लग रहा था कि डैडी तो अन्य पिताओं के
विपरीत इस वक्त नाइट-शिफ़्ट कर रहे होंगे पर माँ अकेली ही,
हिम्मत करके. हनुमान चालीसा पढ़ती उसे लेने चल
पड़ी होगी।
विद्यार्थियों का,
उनके अभिभावकों का,
सहायता के लिए आए मित्रों और भाई-बहनों का
रेला-पेला तो बहुत था,
फिर भी इतने हुजूम में भी,
अपने जैसे देसी चेहरों को पहचान लेने की आँख
में एक ख़ास दैवी शक्ति होती है।
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