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२१. २. २०११

इस सप्ताह-

अनुभूति में- 1
मधु प्रसाद, दिल अंबर जोशी, नरेदन्द्र व्यास, सरोजिनी प्रीतम और शोभनाथ यादव की रचनाएँ।

- घर परिवार में

सप्ताह का व्यंजन- मुगलई भोजन के अंतर्गत गृहलक्ष्मी प्रस्तुत कर रही हैं व्यंजन विधि- मलाई कोफ्ता शोरबेदार

बचपन की आहट- संयुक्त अरब इमारात में शिशु-विकास के अध्ययन में संलग्न इला गौतम की डायरी के पन्नों से- नवजात शिशु का आठवाँ सप्ताह।

स्वास्थ्य सुझाव- भारत में आयुर्वेदिक औषधियों के प्रयोग में शोधरत अलका मिश्रा के औषधालय से- सर्दी वाली खाँसी का सरल इलाज

वेब की सबसे लोकप्रिय भारत की जानीमानी ज्योतिषाचार्य संगीता पुरी के संगणक से- १६ फरवरी से २८ फरवरी २०११ तक का भविष्य फल।

- रचना और मनोरंजन में

कंप्यूटर की कक्षा में- ब्लू रे - सीडी तथा डीवीडी के विकास की अगली कड़ी है। जहाँ एक सीडी पर लगभग ७०० एम बी तथा एक डीवीडी पर...

नवगीत की पाठशाला में- कार्यशाला १३ की सभी रचनाओं का प्रकाशन हो गया है। इस सप्ताह समय है नए विषय का।... आगे पढ़ें...

वर्ग पहेली-०१७
गोपालकृष्ण-भट्ट-आकुल और रश्मि आशीष के सहयोग से

शुक्रवार चौपाल- इस सप्ताह नाटक सत्र में जयपुर के कवि और रंगकर्मी प्रेमचंद गांधी के नाटक एक अनूठी प्रेम कहानी का नाट्य पाठ हुआ।... आगे पढ़ें

सप्ताह का कार्टून-             
कीर्तीश की कूची से

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साहित्य और संस्कृति में-

1
समकालीन कहानियों में भारत से पुष्पा तिवारी
के उपन्यास 'नरसू की टुकुन कथा' का एक अंश- नरसू

नाचते-नाचते थक गया हूँ। पैर हैं कि मन में थिरकते ही रहते हैं। स्टेशन दर स्टेशन गाड़ियाँ बदलते पैर कितने थक गए हैं और मन भी। मेरे पैर नाचते हुए कभी नहीं थके। नाचने से मैं कभी थकता भी नहीं। वह उत्साह नहीं है, लेकिन आज समय के बदलते अंदाज़ में, मैं कहाँ हूँ? क्या सोच कर यहाँ आया था और कहाँ पहुँचा? पहुँच पाया भी कि नहीं नहीं मालूम! उम्र के कितने बरस बीत गए हैं... शायद पैंसठ या एक दो साल ज्यादा ही। कभी फुरसत नहीं मिली कुछ भी सोचने की। मेरी एक ज़िद सदैव रही है और तिस पर एक जुनून। उसने मुझे और किसी बात के लिए अवसर ही नहीं दिया। बिता दिया एक सक्रिय जीवन अपनी तरह का। अब सोचने को बचा कहाँ है? बच्चे बड़े हो गए हैं। सोच तो वे रहे हैं। उनके सामने पूरा जीवन है। हमने यह अधिकार दिया हो, न दिया हो... उन्होंने छीन लिया है यह सब सोचने का हमसे।  पूरी कहानी पढ़ें...
*

सुरेन्द्र गुप्त की लघुकथा
रजाई 
*

प्रकृति और पर्यावरण में अनुपम मिश्र
का लेख-
सिमट-सिमट जल भरहिं तलाबा
*

डॉ. राजेन्द्र गौतम का संस्मरण
सादगी और साफ़गोई की तस्वीर- डॉ. शंभुनाथ सिंह
*

पुनर्पाठ में देखें-
चित्र लेख- दिन की अगवानी

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पिछले सप्ताह-


मनोहर पुरी का व्यंग्य
प्याज और ब्याज
*

डॉ. किशोर काबरा का आलेख
गीत और नवगीत के बीच एक ऋतुमती प्यास

*

सामयिकी में डॉ. वेद प्रताप वैदिक के विचार
दाल में कुछ काला जरूर है

*

पुनर्पाठ में- भारतीय लोक कलाओं की
जानकारी के अंतर्गत- कलमकारी

*

समकालीन कहानियों में यू.एस.ए. से
अनिल प्रभा कुमार की कहानी घर

कॉलेज में साल का आख़िरी दिन था। विश्व - विद्यालय के अहाते में खूब सरगर्मी मची हुई थी। सलिल भी अपनी इमारत से नीचे उतर कर, मुख्य द्वार के साथ लगी पटरी पर अपना थोड़ा-सा सामान रख कर खड़ा हो गया। प्रतीक्षा कर रहा था अपनी माँ की । खीझ भी आ रही थी कि पता नहीं अपनी बड़ी-सी स्टेशन वैगन लेकर कहाँ अपनी धीमी-धीमी चाल से चला कर आ रही होगी। पर अन्दर ही अन्दर उसे अच्छा भी लग रहा था कि डैडी तो अन्य पिताओं के विपरीत इस वक्त नाइट-शिफ़्ट कर रहे होंगे पर माँ अकेली ही, हिम्मत करके. हनुमान चालीसा पढ़ती उसे लेने चल पड़ी होगी।
विद्यार्थियों का, उनके अभिभावकों का, सहायता के लिए आए मित्रों और भाई-बहनों का रेला-पेला तो बहुत था, फिर भी इतने हुजूम में भी, अपने जैसे देसी चेहरों को पहचान लेने की आँख में एक ख़ास दैवी शक्ति होती है। पूरी कहानी पढ़ें...

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प्रकाशन : प्रवीण सक्सेना -|- परियोजना निदेशन : अश्विन गांधी
संपादन, कलाशिल्प एवं परिवर्धन : पूर्णिमा वर्मन
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सहयोग : दीपिका जोशी

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