कॉलेज
में साल का आख़िरी दिन था। विश्व - विद्यालय के अहाते में खूब
सरगर्मी मची हुई थी। सलिल भी अपनी इमारत से नीचे उतर कर,
मुख्य द्वार के साथ लगी पटरी पर अपना थोड़ा-सा
सामान रख कर खड़ा हो गया। प्रतीक्षा कर रहा था अपनी माँ की ।
खीझ भी आ रही थी कि पता नहीं अपनी बड़ी-सी स्टेशन वैगन लेकर
कहाँ अपनी धीमी-धीमी चाल से चला कर आ रही होगी। पर अन्दर ही
अन्दर उसे अच्छा भी लग रहा था कि डैडी तो अन्य पिताओं के
विपरीत इस वक्त नाइट-शिफ़्ट कर रहे होंगे पर माँ अकेली ही,
हिम्मत करके. हनुमान चालीसा पढ़ती उसे लेने चल
पड़ी होगी।
विद्यार्थियों का,
उनके अभिभावकों का,
सहायता के लिए आए मित्रों और भाई-बहनों का
रेला-पेला तो बहुत था,
फिर भी इतने हुजूम में भी,
अपने जैसे देसी चेहरों को पहचान लेने की आँख
में एक ख़ास दैवी शक्ति होती है।
"हाय
सलीम" सलिल ने दूर से ही पुकारा।
सलीम ने वहीं खड़े -ख़ड़े पीछे मुड़ कर देखा । सलिल
को पहचान कर वहीं से हाथ हिला दिया। कोई मुस्कराहट या उत्तेजना
उसके चेहरे पर नहीं आई। सलिल ही तेज़ क़दम फलाँगता उसके पास आ गया।
"हे,
तेरे डैड आ रहे हैं क्या लेने?
"नहीं,
आज डैड नहीं आ पाएँगे।"
"तो
फ़रज़ाना?"
"नहीं,
आज महेश लेने आ रहा है।"
सलिल की आँखों में प्रश्न देखकर बोला,
"मेरी
माँ का पति,
अच्छा आदमी है।" कहकर उसने फिर से सड़क की ओर से
आने वाली गाड़ियों की ओर देखना शुरु कर दिया।
सलिल कुछ क्षणों के लिए चुप-सा हो गया। फिर
सलीम के कन्धे थपथपाकर कोमलता से बोला,
"गर्मी के दिन बढ़िया रहें।"
सलिल कार में बैठा तो वह इन्तज़ार कर रहा था कि
कब भीड़ से निकलकर गाड़ी खुले हाई-वे पर आ जाए तो वह माँ से कुछ
कह सके।
"माँ,
तुम सलीम की अम्मी को जानती हो?"
"यूँ
ही थोड़ा सा,
कभी-कभी देसी पार्टियों में मिल जाती है। जिस
शहर में वह रहती है,
मेरी कुछ मित्र भी वहीं रहती हैं,
वो उसके बारे में अक्सर बातें करती हैं।"
विश्व-विद्यालय से दो घंटे की दूरी पर उसका शहर
था और उससे भी आधे घंटे की दूरी पर सलीम की अम्मी का या अब्बा
का या कभी सलीम और फ़रज़ाना का भी था।
"क्यों
पूछ रहा है तू?"
"यूँ
ही,
सलीम अब मेरे ही कॉलेज में,
मेरे ही वर्ष में है।"
माँ कुछ और सुनने की उम्मीद में उसकी ओर देख
रही थी।
"वो
मालिनी का अच्छा दोस्त है।"
हाँ,
दोनों परिवार एक-दूसरे को जानते हैं।"
"माँ,
सलीम के अब्बू कैसे लगते हैं?"
"ठीक
लगते हैं। लम्बे,
गोरे,
कुछ-कुछ ढीले-ढाले से और थोड़े बोरिंग भी।"
"और
उसकी मॉम?"
"बिल्कुल
पटाखा।"
एकदम से मुँह से निकल चुकने के बाद सलिल की माँ
की आँखों के आगे नादिरा की तस्वीर आ गई। छोटी-सी,
गठीले बदन की,
बात करने की अदा ऐसी कि पुरुष उसे घेरे ही
रहते। छोटी- छोटी,
चमकीली भूरी आँखों की चंचलता सबको खींचे रहती।
दो बच्चों की माँ होने के बावजूद बदन का कसाव और उभार
प्रशंसनीय थे। कुछ लजाकर,
कुछ मुस्कुराकर,
कुछ इस अदा से वह बात करती,
कुछ इस अदा से खुले बालों को झटका देकर,
नीचे देखती आँखें ऊपर उठा कर,
वह मुँह ऊपर करती,
या उसके चलने के ढंग से कुछ इस तरह से उसके औरत
होने का शोर मचता,
कि वह हर औरतों के हुजूम में अलग-सी ही दिखती।
उसके व्यक्तित्व में कुछ ऐसी स्वच्छन्दता थी कि न वह पारम्परिक
’पत्नी के चौखटे में ठीक से उतरती थी और न ही ’माँ’
के।
"माँ,
आप क्या सोचती हैं?
उनके तलाक़ की क्या वजह रही होगी?"
वे चौंकीं। इसका मतलब है सलिल भी उसी के बारे
में सोच रहा था। टालने के लिए कह दिया -"कुछ भी हो सकती है,
क्या मालूम?"
वह अपनी ही सोच में डूब गईं। मालती की माँ की
बताई हुईं कितनी ही अफ़वाहें दिमाग़ से गुज़रीं। फिर धीरे-से जैसे
अपने से ही बात करते हुए कहा-
"हो
सकता है,
ऐसे उबाऊ,
नीरस पति के साथ रहते हुए उसका दम घुटता हो।"
"क्या
यह वजह काफ़ी है,
बच्चों की ज़िन्दगी ख़राब करने की?"
उसकी आवाज़ की तल्खी से माँ चौंक गई।
"बाबा,
मुझ पर क्यों नाराज़ हो रहा है?
हम लोग तो आपस में बहुत ख़ुश हैं।"
"आपको
नहीं कह रहा।" सलिल ने झेंपकर सामने की सड़क की ओर ध्यान लगाया।
धीरे-धीरे सड़क किनारे के पेड़,
झाड़ियाँ,
रास्ते की पहचान के सभी निशान पीछे छूटते जा
रहे थे।
कॉलेज का नया वर्ष आरम्भ हुआ तो सलीम कक्षाओं
में अधिकतर अनुपस्थित ही रहता था। शुक्र या शनिवार को वह
दोस्तों के साथ विश्व-विद्यालय के अहाते में,
किसी न किसी बार में धुआँधार सिगरेट पीता
अक्सर नज़र आ जाता। उसके मूड का कुछ पक्का नहीं होता था। कभी तो
ख़ूब रौनक लगा रहा होता,
कभी इसकी नकल,
कभी उसकी नकल। दोस्तों का हँसते- हँसते बुरा
हाल हो जाता। और कभी यूँ पास से गुज़र जाता कि जैसे किसी को
पहचानता ही न हो। उस दिन अच्छा- ख़ासा दोस्तों के साथ बॉर में
घुसा और स्टूल पर आकर बैठ गया। औरों की तरह उसने भी बीयर का
ऑर्डर दिया,
"बडवाइज़र"।
बॉर-टेंडर ने बताया कि आज बडवाइज़र नहीं है पर "
हायनकन" उपलब्ध है।
"नहीं,
मुझे बडवाइज़र ही चाहिए।"
"सॉरी",
कहकर बॉर-टेंडर जल्दी-जल्दी दूसरे गिलास भरने
लगा।
"छोड़
न यार,
आज दूसरी ही बीयर ले ले।"
"नहीं,
मैं सिर्फ़ बडवाइज़र ही पीऊँगा।"
"तेरी
मर्ज़ी,"
कहकर सलिल ने हाथ झाड़ लिए।
"प्लीज़"।
सलीम कातर हो गया। बस,
एक ही फ़रमायश की रट।
दोस्तों ने प्रश्नात्मक दृष्टि से एक-दूसरे की
ओर देखा और चुप रहे। सलीम बिल्कुल ख़ामोश और उदास होकर दीवार के
साथ ढुलककर सारी रात बैठा रहा। उसे बस कोई चीज़ चाहिए और वही
चाहिए। और कोई चीज़ उसके बदले में नहीं चाहिए थी।
फिर सलीम का कुछ दिनों तक पता ही नहीं चला। जब
भी उसके दोस्त फ़ोन करते या मिलने आते तो उसके कमरे का साथी
डेविड कहता -"पता नहीं सलीम का,
शायद वह अपने कमरे का दरवाज़ा बन्द किए पड़ा हुआ
होगा ।" शनिवार -इतवार को कई छात्र घर जाते। सलीम वहीं रहता।
यह किशोरावस्था में पता नहीं उसके जीवन में कहाँ से,
कौन-से किटाणु रेंगकर प्रवेश कर गए थे कि उसके
सामान्य चलते जीवन में यह अजीब से झटके उसे बुरी तरह से
हिला-हिला जाते। उसे लोगों से घबराहट होने लगी, डर लगता था। बस वह कहीं किसी एक कोने में ही
दुबककर बैठे रहना चाहता।
आँखें बन्द करता तो लगता जैसे कोई पीछा कर रहा
है,
और वह दौड़कर अपने घर के अन्दर घुस जाता है।
जल्दी से मम्मी के कमरे में जाता है। मम्मी वहाँ नहीं पर बाक़ी
का सारा कमरा वैसे ही उनके सामान से भरा पड़ा है। वह उन्हें
ढूँढने के लिए किचन की ओर पलटता है और एकदम देखता है कि मम्मी
के कमरे से सारा साजो-सामान ग़ायब हो गया - पलंग,
ज़मीन का ग़लीचा और दीवारों पर लगी तस्वीरें तक।
वह दौड़कर फ़ैमिली-रूम में बैठे,
किताब पढ़ते डैड की ओर लपका। पास पहुँचने पर
देखा कि सिर्फ़ किताब ही उनकी आराम-कुर्सी पर पड़ी थी। उसने
घबराकर मुँह घुमाया तो फ़ैमिली-रूम की चीज़ें भी ग़ायब होने लगीं।
वह सिर्फ़ चारों तरफ़ ख़ाली,
बिल्कुल निहंग दीवारों के बीच खड़ा था। उसने
चिल्लाकर फ़रज़ाना को पुकारना चाहा पर फ़र्ज़ाना का कमरा भारी
गड़गड़ाहट की आवाज़ करके ज़मीन में धँस गया। फिर मम्मी-डैड के कमरे
की छत,
दरवाज़े,
खिड़कियाँ सब हवा में उड़ने लगते हैं। वह पूरी
ताक़त के साथ अपने कमरे का दरवाज़ा पकड़ लेता है। इस भूकम्प में
सारा घर ख़ाली होकर धँस गया। वह अपना पूरा ज़ोर लगाकर उस दरवाज़े
को पकड़े-पकड़े वहीं बैठ गया। अकेलापन,
घबराहट और सदमे की वजह से उसका बदन कांप गया ।
सलीम की आँख खुली तो वह पसीने से तरबतर था।
थोड़ी देर लेटे-लेटे ही उसने अपने आस-पास की
स्थिति का निरीक्षण किया। फिर लपककर बाहर ड्राइंग-रूम में आ
गया। टेलीविज़न पूरी ऊँची आवाज़ में लगा दिया। उसे इस बात का होश
ही नहीं था कि यह हॉस्टल का एपॉर्टमेंट था जहाँ यह ड्राइंग
-रूम उसका और डेविड का साझा था। इतनी रात गए,
शोर सुनकर डेविड अपने कमरे से बाहर निकल आया।
सलीम को देखकर उसका ग़ुस्से से बुरा हाल था।
"सलीम,
तुम्हें तो पढ़ने की ज़रूरत नहीं,
पर मैं तो अभी-अभी पढ़कर सोया हूँ और तुमने मेरी
नींद उचाट करके रख दी।"
डेविड ने आगे बढ़कर टी.वी. का रोमोट सलीम के हाथ
से छीन लिया।
सलीम तब भी वहीं बैठा फटी- फटी आँखों से ख़ाली
स्क्रीन को ही घूरता रहा।
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सलीम के डैड का कभी- कभी बड़ा याचनाभरा फ़ोन आता
कि इस वीक-एँड को तो घर आ जाओ। फ़रज़ाना ने तो बहुत दूर नौकरी
करके अपने को सबसे काट लिया था। उन्होंने ख़ुद कहकर ज़्यादतर
बाहर दौरे पर रहना शुरु कर दिया। वह जब घर होते तो आ जाते,
सलीम को ले जाने के लिए। वह पहले की ही तरह
सलीम का ख़्याल रखते। बिना माँगे ही जेबख़र्ची देते,
फ़ीसें भी और बोर्डिंग में रहने का सारा ख़र्चा
दे ही रहे थे। वह अभी भी सलीम को छोटा बच्चा ही मानते पर मॉम
ने कभी भी उससे बच्चों जैसे व्यवहार की अपेक्षा नहीं की थी।
चौदह-पन्द्रह वर्षों का रहा होगा वह। एक
साधारण-सी शाम की एक असाधारण याद सब कुछ चीर कर रख गई। शाम का
धुँधलका,
मॉम और महेश अंकल डैक पर झुके,
हल्के-हल्के हँस रहे थे। उनका इतना पास सटकर
खड़े होना,
यूँ एक-दूसरे को देखना उसे खला था। उसने पीछे
से आकर मॉम का कंधा थपथपाया तो मॉम एकदम वार करने की मुद्रा
में मुड़ीं।
"अब
क्या चाहिए?"
उन्होंने जिस आवाज़ में,
जिस तरह से दाँत पीसते हुए कहा और जिन नज़रों से
उसे देखा था,
वह क्षण जैसे वहीं का वहीं ठहर गया। वह एक क्षण
लक्ष्मण-रेखा बन गया - माँ और बेटे के रिश्ते के बीच। सलीम के
किशोर से व्यस्क होने के बीच। बस उस क्षण के बाद सलीम ने कोई
भी ऐसी माँग या चाहना नहीं की जो कोई भी आम बेटा अपनी आम माँ
से करता। उस ठिठके पल को धकेलने की क्षमता उसमें नहीं थी।
डैड उसे मौक़ा मिलने पर घर ले जाते और घर आने पर
दोनों बाप-बेटों का व्यक्तित्व गड्ड-मड्ड हो जाता। दोनों को
सूझता ही नहीं था कि किस तरह का व्यवहार करें। घर की दीवारें
और फ़र्नीचर और दूसरी बाहरी पहचान तो वैसी ही थी जैसी सलीम
पैदा होने से अब तक देखता आया है । सिवाए इसके कि यह घर अब
निश्शब्द लगता था। सलीम का न अपने कमरे में झाँकने का मन होता,
न किचन में और न कहीं बाहर। पर घर में कहीं भी
आते-जाते,
वह पहले मॉम -डैड का बैडरूम कहलाने वाले कमरे
में ज़रूर नज़र डालता,
जैसे कहीं कुछ चूक न जाए। अब उस कमरे में
बिना-बिछाए बिस्तर के ऊपर,
डैड के कपड़ों का ढेर और किताबें ही मिलतीं,
जिन्हें एक ओर सरकाकर,
लिहाफ़ लपेटकर वह सो जाते थे।
डैड बड़ी आत्मीयता से पूछते,
"क्या
खाओगे?
पीज़ा,
हैम्बर्गर या चाइनीज़ फ़ूड?"
पहले वह कहता था,
"यह
सब तो मैं वहाँ भी खाता हूँ,
घर का बना खाना खाऊँगा।"
डैड के चेहरे पर परेशानी झलकती। फिर वह बार-बार
फ़्रिज खोलते,
अल्मारियाँ खोलते,
बन्द करते। उन्हें कुछ सूझता नहीं था।
"अच्छा,
आज चाइनीज़ फ़ूड ही ले आते हैं,
कल मैं ग्रौसरी ले आऊँगा।"
अगले दिन वह उसके उठने से पहले ही बाज़ार से कुछ
खाने-पीने का सामान ले आते।
सलीम के उठने पर वह उसके आगे उसका मनपसंद
चॉकलेट वाला सीरियल रखते,
ठंडा दूध। फिर टोस्टर में ब्रैड डालकर अंडे
फेटने शुरु कर देते।
सलीम चुपचाप कुर्सी में और भी धँस जाता। उसकी
निगाहें उन पर टिकी होतीं,
पर उनमें बहुत कम हलचल होती। डैड का चेहरा और
ज़्यादा ढलक गया था,
कपड़े भी ढीले- ढाले लगते। अधबने बिस्तर पर पड़े,
वही अधमुचड़े कपड़े पहने,
वैसे ही अधबने घर की तस्वीर में वह पूरी तरह
उसी का हिस्सा लगते।
वह सोचता,
जब वह घर नहीं आता तो पता नहीं डैड ख़ुद क्या
खाते होंगे?
या नहीं भी खाते होंगे,
सिर्फ़ व्हिस्की का गिलास थामे,
खिड़की से बाहर ताकते,
सिग्रेटें ही फूँकते रहते होंगे। डैड की
बड़बड़ाहट और भी ज़्यादा बढ़ गई थी। जैसे सूने घर की चुप्पी को
अपनी ही अनर्गल बातों की आवाज़ से भरने की क़ोशिश कर रहे हों ।
सलीम उनकी बातें नही सुनता था,
सिर्फ़ उन्हें देखता था। समझने की क़ोशिश से भी
उसे घबराहट होती थी।
इस घर में शोर तो कभी भी नहीं होता था। कभी मॉम
और डैड में झगड़ा भी नहीं हुआ। दोनों ही कभी एक -दूसरे के आड़े
आए ही नहीं। कभी एक-दूसरे से ऊँची आवाज़ में बोले ही नहीं। महेश
अंकल के आने के बाद भी नहीं। महेश अंकल तो मॉम से कितने छोटे
थे,
यहाँ अमरीका में व्यापार करने की नीयत से आए
थे। भारत से नाना की सिफ़ारिश पर आकर उन्हीं के घर रह रहे थे।
मॉम रोज़ उन्हें न्यूजर्सी से न्यूयॉर्क ले जाती। तब वह सलीम और
डैड का खाना बनाकर रख जातीं। डैड आकर उसे भी गर्म करके दे
देते। फिर डैक पर बैठकर यूँ ही ड्रिंक हाथ में लेकर सिगरेट
पीते रहते। फिर पता नहीं कब सो भी जाते। सलीम को कुछ पता नहीं
चलता,
वह तो अपनी पढ़ाई में ही मग्न रहता था।
हाई-स्कूल में उसके सबसे अधिक नम्बर आए,
असाधारण प्रतिभावाला लड़का माना जाता था वह। उसे
तो मालूम ही नहीं पड़ा कि कब और क्या डूब गया कि ऊपर बुलबुला तक
उठता नही दीखा।
बस वह किसी सुप्रसिद्ध विश्व-विद्यालय में
दाख़िला चाहता था। जहाँ अब पढ़ रहा है उस सरकारी विश्वविद्यालय
में नहीं। उसकी योग्यता को देखते हुए उसे स्कॉलर-शिप मिलने की
पूरी उम्मीद थी। डैड ने साफ़ कह दिया कि सलीम की पसंद- नापसंद
की कोई गुंजायश ही नहीं।
"क्यों?
सलीम ने तिलमिलाकर प्रतिवाद किया।
डैड थोड़ी देर के लिए चुप हो गए। उसे गहरी नज़र
से देखा और सिगरेट सुलगा ली।
सलीम अभी भी उत्तर की प्रतीक्षा कर रहा था।
"मैं
और तुम्हारी मॉम अलग हो रहे हैं। यह घर बिकेगा,
आधा-आधा। उसे क़ानूनन एलीमोनी मतलब गुज़ारा करने
के लिए ख़र्चा भी देना होगा। फ़रज़ाना की पढ़ाई का भी आखिरी साल
है। ऐसी हालत में मैं तुम्हारे आई-वी लीग कॉलेज का ख़र्चा नहीं
उठा पाऊँगा।"
सलीम चुप बैठा सुनता रहा,
डैड को देखता रहा। आँखें देख रही थीं,
कान सुन रहे थे। पर क्या देखा,
क्या सुना,
दिमाग़ तक पहुँच नहीं पा रहा था। शायद डैड के सिगरेट के धुएँ की वजह से सब अस्पष्ट था।
मॉम कई दिनों से घर में दिखी नहीं। अपना काफ़ी
सामान उठाकर महेश अंकल के साथ कहीं बाहर गईं थीं - सलीम के
हिसाब से शायद उनके किसी बिज़नेस के सिलसिले में। पर डैड के
चेहरे पर तो कोई प्रतिवाद दिखा ही नहीं। कैसा रिश्ता था यह भी,
न साथ रहने की गरमायश न अलग होने की कंपकंपाहट।
सलीम उठा और घर से बाहर निकल आया। टोनी के घर
चला गया। वहीं वह बड़ी देर तक टेलीविजन पर फुटबॉल का खेल देखता
रहा,
बस देखता भर ही रहा।
फिर पता नहीं क्या हो गया धीर-धीरे कि उसे
लोगों से घबराहट होने लगी,
उनसे डर लगने लगा। कॉलेज के छात्रावास में आ तो
जाता पर क्लासों में जाकर दिल घबराता। जब कभी टर्म-पेपर देने
का समय आता तो वह अपनी प्रतिभा का सदुपयोग कर,
ऐसी मार्मिक कहानी प्रोफ़ेसर के सामने रखता कि
वह बेचारा भी पिघल जाता। बाद में वह अपने दोस्तों के साथ ठहाके
लगाता कि कैसे प्रोफ़ेसर ने विश्वास कर लिया कि उसकी गर्लफ़्रेंड
ने उसको धोखा देकर छोड़ दिया है। उसका दिल इतना टूट गया है कि
वह पेपर पूरा नहीं कर सका। परीक्षा के केवल दो दिन पहले वह
पुस्तकें लेकर बैठता,
दिन-रात पढ़कर,
परीक्षा में सर्वश्रेष्ठ अंक लाकर वह सबको
हैरान कर देता। लेकिन अगले दिन अगर कोई उससे फिर से वही सवाल
पूछता तो उसके पास कोई उत्तर नहीं होता।
"तेरी
फ़ोटोग्राफ़िक मैमोरी है।" सलिल झेंपकर कहता।
"है
तो है।" सलीम का जवाब होता।
मित्र लोग अनुभव करते कि सलीम उन सबसे कटता जा
रहा है। मालिनी उसे कभी-कभी घर बुलाती,
अपने ब्वॉयफ़्रेंड से मिलवाती। सलीम सहज बातें
कर रहा होता और फिर एकदम उठ खड़ा होता। चेहरे पर परेशानी घनीभूत
होती।
"बस
मुझे छोड़ आओ।"
"थोड़ी
सी देर और बैठ जाओ।"
"नहीं।"
सलीम की विकलता बढ़ती जाती।"
"बेटे,
खाना तो खाकर जाओ।" मालिनी की मम्मी कहतीं।
"नहीं,नहीं,
बस मुझे अभी छोड़ आओ।" सलीम की घबराहट किसी को
समझ में न आती।
"छोड़
तो आएँ,
पर कहाँ?"
मालिनी कह तो गई,
फिर एकदम सकपका गई। सलीम बचपन का दोस्त था,
पड़ोसी था,
एक ही स्कूल में थे और अब स्थितिवश एक ही कॉलेज
में भी थे। उसे मालूम था कि सलीम के माता-पिता का घर अब
ज़्यादातर बन्द ही रहता है। उसके डैड काम की वजह से ज़्यादातर
कैनेडा मे ही रहते थे। घर के बाहर एक रिएल्टी कम्पनी का
बड़ा-सा बोर्ड लगा है - "फ़ॉर सेल"। फ़रज़ाना कैलीफ़ोर्निया चली गई
थी। सुना था कि वहीं कोई उसका अमरीकी दोस्त है। सलीम की मॉम
ज़रूर अभी भी पन्द्रह-बीस मिनट की ड्राइव पर अपने नए पति महेश
के साथ रहती है।
मालिनी ने पर्स उठाया,
कार की चाभी हाथ में ली। सलीम का हाथ पकड़कर
कोमलता से कहा,
"चलो
तुम्हें तुम्हारी मॉम के घर छोड़ दूं।"
सलीम चुपचाप कार में बैठ गया। बाहर रात थी।
विपरीत दिशा से आती गाड़ियों की रोशनी उसके मुँह पर पड़ रही थी।
मालिनी ने सिर घुमा कर देखा,
सलीम के चेहरे पर पसीना छलक आया था। वह एक डरे
हुए ख़रगोश कि तरह लग रहा था।
मालिनी ने यूँ ही बात करने की क़ोशिश की तो कोई
जवाब न पाकर चुप हो गई। पता नहीं क्या होता जा रहा है सलीम को।
लोगों से,
भीड़ से ऐसे घबराता है,
जैसे भूत देख लिया हो। कह रहा था कि स्टीयरिंग
व्हील पर बैठते ही लगता है कि जैसे सड़क पर खड़ी,
चलती सभी गाड़ियाँ उसी को निशाना साधकर टक्कर
मारने आ रही हैं। उसने अपना ड्राइविंग लायसेंस भी दुबारा नहीं
बनवाया। उससे गाड़ी चल ही नहीं सकती थी , बस।
------------
मालिनी की शादी में सभी पुराने दोस्त आए थे।
सलीम को चार वर्षों के बाद देखा तो सलिल ने बांहों में भरकर
ऊपर उठा लिया।
"कहाँ
था तू?"
"यहीं
था।"
"सुना
है तुझे मेडिकल कॉलेज में भी दाख़िला मिल गया था। बस,
फिर कोई खोज-ख़बर ही नहीं। अब तो रेज़ीडेंसी कर
रहा होगा। "
"नहीं
, मैं मेडीकल-कॉलेज शुरु ही नहीं कर पाया।"
सलिल चुप कर गया।
"मेरा
नर्वस ब्रेक-डाउन हो गया था। मैं कोई तनाव वाला काम कर ही नहीं
सकता।"
"कोई
बात नहीं , जो कर सकता है,
वही एन्जॉय कर।" कहकर सलिल ने उसका कन्धा थपथपा
दिया।
थोड़ी देर में भांगड़ा की धुनें तेज़ होने लगीं ।
ढोल की थाप में ज़बरदस्त बुलावा था। मालिनी और मिलन के दोस्तों
के पैरों में अनियन्त्रित गति होने लगी। लड़कों ने बड़ा-सा
दायरा बनाकर डांस-फ़्लोर को घेर लिया। अचानक
सलिल को याद आया कि पुराने दिनों में जब वह लोग ऐसे ही नाचते
थे तो छोटे क़द का होने की वजह से सलीम हमेशा उसके कन्धों पर चढ़
जाता था । फिर जो ’हे-हे"
की धूम मचती और तालियों की आवाज़ से जो बढ़ावा मिलता,
उसका नशा ही कुछ और होता।
उसने एकदम पीछे खड़े सलीम को खींच कर आगे कर
लिया।
"यार,
पुराने दिनों की ख़ातिर,
प्लीज़।" और सलिल घुटनों के बल बैठ गया। कूदकर
सलीम,
सलिल के कन्धों पर चढ़ गया। सलिल उठा तो सलीम
सबसे ऊपर,
हवा में बाँहें फैलाकर कन्धे उचका रहा था। उसने
नीचे देखा,
सभी आँखें उसी की ओर लगीं थीं। तालियाँ बजाती,
हँसती हुई भीड़। सलीम के माथे पर पसीना छलक आया।
"सलिल,
मुझे नीचे उतारो,
एकदम,
नहीं तो मैं छलांग लगा दूंगा।"
सलिल परेशान होकर पास रखी कुर्सी पर बैठ गया
ताकि सलीम नीचे उतर सके।
"बस,
मैं और नहीं बर्दाश्त कर सकता।" कहकर वह भीड़
का घेरा तोड़कर पीछे की ओर भागा। सलिल उसे अवाक देखता रहा। फिर
सिर झटक कर दोबारा डांस-फ़्लोर पर चला गया। एकसाथ इतनी सुन्दर
और युवा लड़कियाँ वहाँ नाच रही थीं,
सलिल यह मौका गंवाना नहीं चाहता था।
बड़ी रात गए तक शादी की धूम मची रही। लोग आग्रह
कर-करके डी.जे को थोड़ी देर और संगीत बजाने को कहते,
नाचने का दौर ठहरने को ही नहीं आ रहा था। आख़िर
डोली की रस्म भी पूरी करनी थी। हॉल के बाहर आकर बड़ी-सी ’लिमोज़िन ’
में मालिनी की विदाई भी हो गई। धीरे-धीरे बाक़ी
लोग भी विदा हो गए।
बाहर निकलते ही सलिल को याद आया कि हॉल में
जहाँ वह बैठा था,
उसने वहीं अपना कोट उतारकर रख दिया था। अन्दर
लौटा तो देखकर ठिठक गया। दो कुर्सियों पर,
कोट अपने ऊपर डाले,
सलीम अधलेटा-सा पड़ा था। सलिल ने उसे थपथपाया।
सलीम ने आँखें खोलीं - एकदम गुलाबी,
जैसे शीशे की बनी हों।
"चल
उठ।" सलिल ने उसे सहारा दिया। उसका मन कहीं गहरे धँस गया। सलीम
तो ड्राइव कर ही नहीं सकता। जो भी इसे लेकर आया था,
वह इतना ग़ैर-ज़िम्मेदार कैसे निकला कि इसे वापिस
ही नहीं लेकर गया।
सलीम चुपचाप कार में आकर बैठ गया। अब वह पूरे
होश में आ चुका था।
"सलिल,
चल कहीं चौबीस घंटे खुले रहनेवाले डाइनर में
चलकर कॉफ़ी पीते हैं।"
सलिल को प्रस्ताव पसन्द आया। यूँ भी अब रात
ख़त्म ही होनेवाली थी।
कॉफ़ी पीते-पीते सलीम बड़ा सहज लग रहा था।
"क्या
करता है आजकल?"
सलिल ने बात चलाने के लिए पूछा।
"चिड़ियाघर
में काम करता हूँ।"
सलिल ने प्रश्नात्मक ढंग से देखा।
"सच,
मुझे बहुत अच्छा लगता है वहाँ। मेरे डॉक्टर ने
भी यही कहा है कि मुझे प्रकृति के नज़दीक रहना चाहिए। मेडीकल
कॉलेज का तनाव मैं नहीं ले सकता था। मुझे बहुत अच्छा लगता है,
जानवरों को खाना खिलाना,
उनसे बातें करना। और वह मुझसे कुछ पूछते भी
नहीं , बहुत प्यार करते हैं मुझे वे सब।"
"यह
नौकरी कर लेता है तू?"
सलिल ने जैसे अपने-आप से ही प्रश्न किया।
"जब
दवा लेता हूँ तो काफ़ी सामान्य ही हो जाता हूँ। जब नहीं लेता तो
कुछ भी नहीं कर पाता।"
सलिल ने ज्यों ही अपने शहर जानेवाला हाई-वे
पकड़ने के लिए ’लेन ’
बदली तो सलीम बोला,
"उधर
मत जा,
मैं तुम्हें रास्ता बताता हूँ।"
सलिल चुप रहा,
पर असमंजस में पड़ गया। सलीम की मॉम का घर तो
उसी के घर के रास्ते में पड़ता है,
तो फिर?
"पर
तुझे जाना कहाँ है?"
फिर सलिल ने नरमी से पूछा।
"घर।"
सलिल गहरे तक चुप रह गया। उसकी दुविधा देखकर
सलीम बोला,
"सीधे
चलता जा। मैं अपने-आप बताता जाऊँगा।"
अब तक रात के सन्नाटे में सड़क पर इक्का-दुक्का
कारें थीं। अब पौ फटनेवाली थी तो थोड़ा सामान ले जानेवाले ट्रक
भी दिखाई देने लगे।
"तुझे
मालूम है,
मेरे डैड भी अब कैनेडा में जाकर बस गए हैं।"
सलिल ने आँखें सामने सड़क पर ही रखीं,
बस हुँकारा भर दिया।
"वहाँ
उन्होंने भी दो साल हुए शादी कर ली है,
एक कैनेडा की वकीलनी से।"सलिल को कुछ नहीं सूझ रहा था कि क्या कहे?
चुप रहा।सलीम भी चुप ही हो गया। काफ़ी आगे जाकर केवल एक
शब्द बोला,
"बाएँ।"सलिल ने गाड़ी मोड़ ली। थोड़ी देर बाद सलीम बोला,
"बस,
यहीं गेट पर गाड़ी रोक देना।"
सलिल ने गाड़ी रोक दी। सामने हरे रंग का एक
बड़ा-सा बोर्ड लगा था,
जिसके ऊपर लिखा था - "चिड़ियाघर।"
सलीम धीरे से उतर गया। उसने जेब से एक कॉर्ड
निकाला और अवरोधक बनी पट्टी के सिरे पर फिराया। काली सफ़ेद
धारियोंवाली स्वचालित पट्टी ने ऊपर उठकर रास्ता दे दिया। आगे
दूर तक एक लम्बी सड़क थी।रात की कालिमा ख़त्म हो चुकी थी। आकाश का रंग
ऐसा हो गया,
जैसे रात,
जाने से पहले राख बिखेर गई हो।सलिल वहीं कार में बैठा देखता रहा। सलीम
धीरे-धीरे पैर घसीटता हुआ,
उस राख के शामियाने के नीचे जा रहा था - अपने
घर। |