गीत और नवगीत के बीच
एक ऋतुमती प्यास
-डा. किशोर काबरा
प्रत्येक गीत बीते युग के सन्दर्भ में अपने समय का
नवगीत होता है और प्रत्येक नवगीत आने वाले कल की
पृष्ठभूमि मे अपने जमाने का गीत होता है।ये नव, नूतन
या अभिनव उपसर्ग तो पीढ़ियों के अन्तर को उनमें छिपे
अस्तित्व के संघर्ष को बताते हैं।इनका देशकाल से
सम्बन्ध है, शाश्वती का इनसे क्या लेना देना? फूलों की
माला में छिपे धागे की तरह एक ही प्यास पूरे गीति तत्व
को सँभाले हुए है और वह है ऋतुमती प्यास! प्यास जो
ऋतुमती है, ऋतुमती जो प्यासी है अर्थात गीतकार और
संगीतकार के बीच किसी नवगीत के सृजन की अतृप्त
उत्सुकता, उर्वर जिज्ञासा, नए मुहावरे की तलाश, पुराने
को छोड़ कर नए शिल्प को ग्रहण करने की आनन्ददायक
उत्तेजना, एक चुनौती, किसी टूटन को... शब्द से सी देने
की एक लयात्मक ललक, सूई धागे की तरह एक -दूसरे में
होने न होने के बीच की अनुभूति, मिट्टी की गंध के
आकाशी सपनों को थामने और आकाशी सपनों के मिट्टी सने
पाँवों को टटोलने की अनथक कोशिश का नाम नवगीत है,
जिससे हर गीत को नवगीत बनने के लिए गुजरना पड़ता है।
मैं किसी आन्दोलन से जुड़े नवगीत की बात नहीं करता, मैं
सच्ची कविता के जुड़े गीति तत्व की चर्चा करता हूँ।
कविता का सम्बन्ध साहित्यिक बौद्धिकता से नहीं, चिन्तन
की लयात्मक जागरुकता से होता है। कविता की यात्रा हृदय
तक होती है।वह एक सतत प्रवाहिणी भागीरथी है, जो जब तक
सरिता है, जब तक बहती है, रुक गई तो तालाबों में बँट
जाती है, सड़ जाती है, फिर एक दूसरे के विरुद्ध नारे
लगाती है। जब से कुछ आलोचकों ने कविता लिखनी शुरु कर
दी है, और जब से कुछ कवियों ने आलोचना प्रारंभ कर दी
है, तब से दोनों क्षेत्र दूषित हो गए हैं।काश, यह न
होता तो न वह फतवेबाजी होती, न यह नारे बाजी होती।
नारेबाजी कविता नहीं, फतवे बाजी कविता नहीं, ऋतुमती
प्यास कविता है।जो लोग यह कहते हैं कि गीत केवल गीत
है, इसे खेमो में नहीं बाँटना चाहिए, उनके साथ मुश्किल
यह है कि वे इसके परम्परागत तत्वों को ही स्वीकार करते
जाते हैं, इस तरह से बासी होते जाते हैं, जुगाली किए
जाते हैं।जो लोग इसे पृथक कविता आन्दोलन की तरह लेते
हैं और गीत को नई कविता से अलग करने के लिए नवगीत
संज्ञा देते हैं, उनके साथ भी एक मुसीबत है और वह यह
कि वे पुराने सभी तत्वों को नकारते जाते हैं और एक
अनगढ़ टटके मुहावरे को उछालते जाते हैं और इस तरह वे
दुरूहतर होते जाते हैं।
हिन्दी कविता के आधुनिकरण के साथ ही गीत अपने नएपन के
साथ कई आयामों में गुजरा है। भारतेन्दु युग के
प्रार्थना पदों और नाट्य गीतों में, द्विवेदी युग के
राष्ट्रीय एवं विलाप गीतों में, छायावादी युग के
कलानिष्ठ और प्रकृति गीतों में, प्रगतियुग के क्रान्ति
एवं वर्ग संघर्ष के गीतों में नए गीत की प्रतिध्वनियाँ
हैं।प्रयोगवादी कविता के उत्थान ने गीत काव्य में
वैयक्तिक एवं एकान्तिक अनुभूति को अयोग्य माना और तब
नवगीत के जन्म की संभावनाएँ नजर आने लगीं।
सन् 1950-55 के बीच जिन गीतकारों के कविता संग्रह
प्रकाशित हुए उनमें शिल्प की नवीनता, लोकतत्व, प्रकृति
साहचर्य तथा सामाजिक मनस्थिति का सूत्रपात हुआ।गीत का
स्वभाव एक नए फैलाव, एक नए परिवेश की माँग करने
लगा।सन् 1951-52 की काशी में आयोजित नवगीत की नौका
गोष्ठी, 1955 में वीरेन्द्र मिश्र का हालावाद के
साहित्यकार सम्मेलन में नवगीत के आविर्भाव का संकेत
तथा फार्म एवं करेन्ट दोनों में परिवर्तन की चर्चा और
फिर 1958 का वह ऐतिहासिक क्षण जब राजेन्द्र प्रसाद
सिंह ने " गीतांगिनी " गीत संग्रह का संपादन किया,
उसमें निराला से उदय खन्ना तब समूची गीत यात्रा से
जुड़े पाँच पीढ़ियों के 75 गीतों को स्थान मिला और उसकी
भूमिका में नवगीतों के पाँच तत्व प्रतिष्ठित किए गएः
जीवन दर्शन, आत्मनिष्ठा, व्यक्तिबोध प्रीति तत्व और
परिसंचय। इस नए आन्दोलन में गीत के लिए कई नाम
प्रस्तावित हुए ..आधुनिकतर गीत, बिम्ब गीत, तालिक गीत,
किन्तु राजेन्द्र प्रसाद सिंह गीतों की सम्भावना को
काल की प्रवृत्ति और शिल्प की एकान्तिक सीमा में नहीं
बाँधना चाहते थे, इसलिए नवगीत संज्ञा से उन गीतों को
अभिहित किया।नवगीत के जिन तत्वों का गीतांगिनी में
उल्लेख है, वे चौथाई सदी तक समर्थन और सहमति प्राप्त
करते रहे। उनमें बदलाव भी आया है, पर क्रमिक रूप से,
यहौ कारण है कि नवगीत में आंचलिक प्रयोग, लोक
संस्कृति, शिल्प एवं भाषा का गुंफन होने लगा और
छन्दाश्रित गीत रचना और लयाश्रित गीत रचना में फर्क
समझा जाने लगा। अब कुछ लोग मानने लगे हैं कि नवगीत को
नवगीत के नाम से कोठरी में बन्द नहीं किया जा सकता।
गीतांगिनी के प्रकाशन के बाद 1960 में डा. शिवप्रसाद
सिंह ने नवगीत आन्दोलन छेड़ा।रवीन्द्र भ्रमर ने 1961
में नवगीत की विस्तृत चर्चा की और नई कविता के
समानान्तर इसे एक सहज विकसित काव्य विधा माना।लेखनी
बेला (1958) में नवगीत की विस्तृत चर्चा की और नई
कविता के समानान्तर इसे सहज विकसित काव्य विधा
माना।लेखनी वेला (1958), बंशी और मादल (1960), आओ खुली
बयार (1962), समवेत नई कविता अंक (1969), गीत एक
(1962), पाँच जोड़ बाँसुरी (1969) और बाद में नवगीत दशक
एक दो तीन की कृतियाँ नवगीत विकास यात्रा में माइल
स्टोन की तरह स्मरणीय रहेंगी।लहर वासन्ती कल्पना,
ज्योत्सना, अन्तराल, कल्पना, ज्ञानोदय आदि
पत्रपत्रिकाओं ने सभी प्रहारों का उत्तर दिया।मूर्धन्य
नवगीतकारों में वीरेन्द्र मिश्र, धर्मवीर भारती,
रवीन्द्र भ्रमर, नचिकेता, देवेन्द्र शर्मा, महेन्द्र
शंकर, सूर्यभानु गुप्त, केलाश गौतम, रामदरसमिश्र,
राजेन्द्र प्रसाद सिंह, ओम प्रभाकर, बालस्वरूप, नईम,
प्रेम शंकर, शंभुनाथ सिंह, उमाकान्त मालवीय, सोम
ठाकुर, ठाकुर प्रसाद सिंह, भारतभूषण, चन्द्रसेन विराट,
उमाशंकर तिवारी, नरेश सक्सेना, माहेश्वर तिवारी, रमेश
रंजक, कुँवर बैचेन, शान्ति सुमन आदि के नाम कानों में
बजते रहे।
नवगीत का खतरा उसके आलोचकों से नहीं उसके नादान
दोस्तों से रहा है।कुछ घुसपैठिये गीत, नव गीत और नई
कविता तीनों में जमे रहे, बाद में उन्होंने ही नवगीत
को ही झूठा नारा घोषित किया।वे नवगीत को नई कविता में
तिरोहित मानने लगे और उसके फलस्वरूप अगीत का जन्म
हुआ।नई कविता से नवनीत को अलग न मानने के फलस्वरूप
अगीत का जन्म हुआ।नई कविता से नवनीत को अलग ना मानने
केउन लोगों ने दो तर्क दिए.. पहला यह है कि नई कविता
के खेमे की चीज ही नवगीत है और दूसरा यह कि नई कविता
के विशिष्ट कवि ही नवगीतकार हैं।नई कविता से अकविता तक
उन लोगों ने नवगीत के विरुद्ध नयागीत, अगीत, प्रगीत,
भूखी नंगी श्मशानी अकविता जैसे कई कुरुचिपूर्ण काव्य
आन्दोलन चलाए।अज्ञेय ने सप्तकों में सम्मिलित कविता नई
कविता के गीतकारों को ही नवगीतकार मान लिया तो
उमाकाकान्त मालवीय ने यहाँ तक कहा .."तार सप्तक कवियों
में नवगीत की तलाश कोई अर्थ नहीं रखती।"
छायावादी गीत सृष्टि का खैयामी दर्शन बच्चन नीरज जैसे
स्वच्छन्दतावादी कवियों की छत्रछाया में अतृप्तिमूलक
मांसल दार्शनिकता को व्यक्त करता रहा, जबकि मार्क्स
चिन्तन ने जनवादी कविता तक की यात्रा में गीत की
वैयक्तिकता को संगीतमय बनाकर पोस्टरबाजी तक पहुँचाया,
लेकिन नई कविता की वैयक्तिता को संगीतमय बनाकर तथा
समाजवादी विचारधारा को पोस्टरबाजी से हटा कर गीतों के
नए प्रयोगधर्मी एवं आधुनिकता के समर्थक नवगीतकार
रुमानियन के साथ ही जीवन की जटिलता को भी व्यक्त करते
रहे।सही अर्थ में वे ही नवगीतकार हैं।नई कविता के मूल
में मानसिक तनाव था, नवगीत के मन में तनावमुक्त मन था
आनन्द पूर्ण एकान्त क्षणों का मुख्य लेखाजोखा था।वहाँ
साहित्य और संगीत एकाकार हो गए।इसी नवगीतत धारा ने
शुद्ध साहित्य देकर कवि सम्मेलन के मंचों को चुटकुले
बाजी और तुक्कड़ से बचाए रखा।गीत अपने बड़े अर्थ में
रचनारत गीतकार का मनोगायन होते हैं।वह वस्तनिष्ठ और
आत्मनिष्ठ दोनो होता है। यही चेतना उसमे नयापन पैदा
करती है और नये मुहावरों, ताजा टटके उपमानों, नए बिम्ब
प्रतीकों, साँस्कृतिक चेतना के नए संकेतों, भाषा के नए
प्रयोगो, मिथकीय बिन्दुओं के नए आयामों, आंचलिक
दृष्यों और आधुनिक विसंगतियों के ऐन्द्रिक प्रयोगों के
प्रति उसे आकर्षित करती है।मेलामे, रीवाँ, पाउंड,
इलियट, रिचर्ड्स जैसे पाश्चात्य काव्य शिल्पियों ने
इन्हीं तत्वों की सराहना की है।मेलामे ने कहा है.. वही
कविता श्रेष्ठ है, जो अनुभूति का संकेत मात्र दे और
उसका शनैः शनैः उद्घाटन करे।तोष कवि ने भी कहा
है..देखि रहे ओ दुरान रहे कवि तोध सोई कविता मन भावे। |