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कलमकारी
भारत की
समृद्ध कला परंपरा में लोक कलाओं का गहरा रंग है। काश्मीर
से कन्या कुमारी तक इस कला की अमरबेल फैली हुई है। कला
दीर्घा के इस स्तंभ में हम आपको लोक कला के विभिन्न रूपों
की जानकारी देते हैं। इस अंक में प्रस्तुत है कलमकारी के
विषय में -
कलमकारी
आंध्र प्रदेश की अत्यंत प्राचीन लोक कला है और जैसा कि नाम
से स्पष्ट है यह कलम की कारीगरी है। इसकी जड़े आंध्र के
श्रीकलाहस्ति और मछलीपुरम नामक नगरों में हैं।
श्रीकलाहस्ति में आज भी कलमकारी के लिये कलम का उपयोग होता
है जबकि मछलीपुरम में ठप्पों का चलन है।
अन्य अनेक लोक कलाओं की तरह इस कला को भी स्थानीय मंदिरों
का आश्रय प्राप्त हुआ। मानव आकृतियों और चित्रों में आज भी
पुराण और रामायण के प्रसंगों को चित्रित किया जाता है।
कलाकृतियों के किनारों को फूल पत्तियों के आकर्षक नमूनों
से सजाया जाता है।
इस कला में आमतौर पर
पूरा परिवार संलग्न रहता है। परिवार का मुखिया ही इन
कलाकारों का गुरू और मालिक होता है। यह गुरू मुख्य चित्र
को सफेद सूती कपड़े पर कलम से बनाकर कलमकारी का प्रारंभ
करता है । इसके बाद परिवार के अन्य सदस्य इसमें रंग भरते
हैं। इन रंगों को वेजेटेबल डाय या वनस्पति रंग कहा जाता है
और इनमें रसायनों का प्रयोग नहीं होता।
कपड़े पर आकृतियों को उभारने के लिये राल और गाय के दूध के
मिश्रण में एक घंटा भिगोकर रखा जाता है और इस पर ख़मीरी
गुड़ में पानी मिलाकर बाँस की कलम से चित्र की रूपरेखा
खींच दी जाती है। जहाँ पर रंग भरना है वहाँ फिटकरी का घोल
लगा दिया जाता है। इसके बाद कपड़े एक मिश्रण में भिगोया
जाता है जिसकी प्रतिक्रिया से चित्र के रंग उभर कर दिखाई
देने लगते हैं। विभिन्न प्रकार के प्रभावों को उत्पन्न
करने के लिये गोबर, बीज, फूल और
पत्तियों का प्रयोग किया जाता है।
कलम कारी
से चित्रित कपड़ों के परिधान, पर्दे, बिस्तर की चादरें,
दीवार पर लगाने के चित्र से लेकर लैंपशेड तक सभीकुछ बनाया
जा सकता है। इन्हें भारत की सरकारी हस्तकला की दूकानों में
आसानी से प्राप्त किया जा सकता है।
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