इस सप्ताह
बाल दिवस के अवसर पर
प्रताप नारायण सिंह की कहानी
गोपाल

नदी का कछार। किनारे से दस फर्लांग ऊपर दो
चर्मकर्मी नदी में बहकर आए मरे हुए बैल का चमड़ा निकाल रहे थे।
उनके पास ही बैठकर गोपाल उन्हे काम करता हुआ देख रहा था। सुबह
के लगभग दस बज रहे होंगे।
"का रे गोपला ! इहाँ आकर बैठा है?" दस कदम दूर से ही चन्दू
चीखते हुए गोपाल की ओर झपटे। आवाज सुनते ही गोपाल स्प्रिंग की
तरह उठ खड़ा हुआ और पनपनाकर भागा। चन्दू उसके पीछे दौड़े और
चालीस-पचास कदम की दौड़ के बाद उसे दबोच लिया। ग्यारह साल के
गोपाल के कदम, बीस साल के बड़े भाई के कदमों को नहीं छका सके।
पकड़ते ही लात-घूसों से पीटना शुरु कर दिया-
’उहाँ चच्चा दो घन्टा तक जोह कर चले गए और तू भागकर हियाँ
सिवान में मटरगस्ती कर रहा है।" चन्दू लगातार पीटते हुए गोपाल
को घर ले जाने लगे, "सुबह से खोज खोज कर हलकान हो गए हैं सब
लोग..." पूरी कहानी पढ़ें...
*
शशिप्रभा शास्त्री की लघुकथा-
शुरुआत
*
विनोदचंद्र पांडेय का आलेख-
बाल
साहित्य संरचना- ध्यान देने योग्य बातें
*
अखिलेश श्रीवास्तव चमन का आलेख-
हिंदी बाल साहित्य का इतिहास
*
फुलवारी में-
बच्चों की कहानियाँ |