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साहित्यिक निबंध

हिंदी बाल साहित्य का इतिहास
अखिलेश श्रीवास्तव चमन


भारत में प्राचीन काल से ही पंचतंत्र हितोपदेश तथा कथासरित्सागर आदि के रूप में बाल साहित्य की एक समृद्ध परंपरा रही है। इसके अतिरक्त लोक कथाओं तथा दंत कथाओं के रूप में भी बाल साहित्य का एक विपुल भंडार है, जो पीढ़ी दर पीढ़ी मौखिक रूप से हस्तांतरित होता चला आ रहा है। इस क्रम में बीरबल तेनालीराम, गोपाल भांड और लाल बुझक्कड़ शास्त्री आदि के नाम से प्रचलित तमाम किस्से कहानियों का उल्लेख किया जा सकता है जो गाँव देहातों तक में बच्चे बच्चे की ज़ुबान पर चढ़ी हैं और आए दिन कही सुनी जाती हैं। इस सबका सीधा लाभ हिंदी साहित्य को मिला।

हिंदी बाल साहित्य का प्रारंभिक काल (१९०० से १९५०)-

सन १८८२ में स्वयं भारतेंदु हरिश्चंद्र द्वारा बाल दर्पण नामक पत्रिका के प्रकाशन का उल्लेख मिलता है। भारतेंदु हरिश्चंद्र ही आधुनिक हिंदी साहित्य के निर्माता माने जाते हैं। इस प्रकार यह बात प्रमाणित है कि हिंदी में बाल साहित्य का इतिहास ठीक उतना ही पुराना है जितना कि स्वयं हिंदी साहित्य का।

हिंदी बाल साहित्य में मौलिक सामयिक तथा उद्देश्यपूर्ण लेखन की विधिवत शुरूआत २०वी शताब्दी के दूसरे दशक से देखने को मिलती है। जब विद्यार्थी, शिशु तथा बालसखा जैसी पत्रिकाओं का प्रकाशन प्रारंभ हुआ। इनके बाद वानर, कुमार तथा मनमोहन आदि बाल पत्रिकाएँ भी निकलीं। इनमें से सन १९१७ में लल्ली प्रसाद पांडे के संपादन में प्रारंभ बालसखा लगातार ५३ वर्षों तक प्रकाशित होती रही। इन बाल पत्रिकाओं ने न सिर्फ अनेकों समर्थ बाल साहित्यकार पैदा किये किंतु बाल साहित्य की समृद्धि एवं सुदृढ़ स्थापना की दिशा में नीव के पत्थर का काम भी किया। इन बाल पत्रिकाओं में उस समय के कई प्रतिष्ठित साहित्यकारों जैसे मैथिलीशरण गुप्त, कामताप्रसाद गुरू, रामनरेश त्रिपाठी, बाबू गुलाबराय, अयोध्यासिंह उपाध्याय हरिऔध तथा सुभद्राकुमारी चौहान आदि ने भी रचनाएँ लिखीं। वह समय सामाजिक जन जागरण तथा स्वतंत्रता आंदोलन का समय था। अतः उन दिनों के बाल साहित्य में स्वाभाविक रूप से आदर्शपरक, नीतिपरक तथा देश प्रेम की भावनाओं से ओतप्रोत रचनाओं की ही अधिकता रही।

१९५० से २००० मध्यकाल-

विगत शताब्दी के चौथे पाँचवें दशक तक हिंदी बाल साहित्य के विकास ने काफ़ी गति पकड़ ली। उस समय रचनाकारों की एक ऐस पीढ़ी सामने आई जिसने समृद्ध बाल साहित्य की आवश्यकता एवे उपादेयता को महसूस किया तथा इसकी समृद्धि तथा विकास के लिये प्राण प्रण से जुट गए। श्रीधर पाठक, ठाकुर श्रीनाथ सिंह, लल्ली प्रसाद पांडे, द्वारका प्रसाद माहेश्वरी, निरंकार देव सेवक, विष्णुकांत पांडे, सोहनलाल द्विवेदी आदि ऐसे ही रचनाकार थे जिन्होंने अपना सारा ध्यान सारी ऊर्जा तथा सारी प्रतिभा सिर्फ बाल साहित्य के विकास के लिये ही समर्पित कर दी।

इस अवधि में हिंदी बाल साहित्य को एक निश्चित एवं स्वतंत्र स्वरूप प्राप्त हुआ। फिर तो एक के बाद एक ढेरों समर्पित साहित्यकार इस क्षेत्र में आते गए और विकास का कारवाँ आगे बढ़ता गया। शकुंतला सिरोठिया, श्री प्रसाद, चंद्रपाल सिंह यादव, मयंक, स्वर्ण सोहदर, शंभुप्रसाद श्रीवास्तव, हरिकृष्ण देवसरे, नारायण लाल परमार, शंकर सुल्तानपुरी, दामोदर अग्रवाल, सत्येन्द्र वर्मा, राष्ट्रबंधु, जयप्रकाश भारती, चक्रधर नलिन, विनोदचंद्र पांडेय और शोभनाथ लाल ऐसे ही रचनाकार हैं जिन्होंने हिंदी बाल साहित्य को न सिर्फ समृद्ध किया बल्कि उसे बहुआयामी विस्तार भी दिया। उस अवधि में हिंदी साहित्य के कुछ महत्त्वपूर्ण हस्ताक्षरों जैसे रामकुमार वर्मा, सर्वेश्वर दयाल सक्सेना, कमलेश्वर तथा प्रयाग शुक्ल आदि ने भी हिंदी बाल साहित्य की समृद्धि में महत्तवपूर्ण योगदान किया।

उपर्युक्त रचनाकारों ने हिंदी बाल साहित्य की रचना को एक चुनौती के रूप में लिया। उनके पास बाल साहित्य को लेकर एक सुनिश्चित दृष्टि और उद्देश्य था। यही कारण है कि गत शताब्दी के छठे दशक के बाद से हिंदी बाल साहित्य ने गुण और परिमाण दोनो ही दृष्टि से उल्लेखनीय प्रगति की। बाद के दशकों में प्रकाश मनु शेरजंग गर्ग, भौरोंलाल गर्ग, रतनलाल शर्मा, रोहिताश्व अस्थाना, उषा यादव, सूर्यकुमार पांडे, सुरेन्द्र विक्रम, बानो सरताज, सूर्यभानु गुप्त, भगवती प्रसाद द्विवेदी, चित्रेश, जगदीश चंद्र शर्मा, राजनारायण चौधरी, संजीव जायसवाल, कमलेश भट्ट, घमंडीलाल अग्रवाल, रमेश तैलंग, शंभुनाथ तिवारी, परशुराम शुक्ल और सरोजिनी कुलश्रेष्ठ आदि रचनाकारों ने हिंदी बाल साहित्य क बेहतरी के लिये युद्ध स्तर पर कार्य किया।

इन लोगों ने सिर्फ कविता कहानी उपन्यास और एकांकी आदि विधाओं तक सीमित बाल साहित्य का विस्तार तमाम अछूती विधाओं तक किया और भाषा शैली शिल्प एवें विषय वस्तु आदि सभी दृष्टि से अनेकों नये प्रयोग किये। उसके बाद की पीढ़ी के रूप में शकुंतला कालरा, जाकिर अली रजनीश, उषा विमलांशु, श्याम सुंदर कोमल रमाशंकर, नागेश पांडेय संजय, अजय जनमेजय, रावेंद्र कुमार रवि, देशबंधु शाहजाहाँपुरी, साबिर हुसैन, सुरेन्द्र श्रीवास्तव, वीणा श्रीवास्तव, शिवचरण चौहान, राजकुमार जैन राजन, मोहम्मद फहीम और अरशद खान आदि रचनाकारों की एक सशक्त टीम हिंदी बाल साहित्य की बेहतर की दिशा में सक्रिय है। इन सभी रचनाकारों के अथक प्रयास ने आज हिंदी बाल साहित्य को उस स्थिति में लाकर खड़ा कर दिया है कि वह अन्य किसी भी भाषा के बाल साहित्य से होड़ लेने में पूरी तरह समर्थ है।

प्रौद्योगिकी काल का आरंभ-

पिछले लगभग तीन दशक का समय विज्ञान तकनीक संचार और सूचना के क्षेत्र में क्रांति का समय रहा है। विज्ञान और टेकनालाजी न सिर्फ हमारे सामाजिक और पारिवारिक बल्कि वैयक्तिक जीवन में भी काफ़ी गहरा हस्तक्षेप किया है। आज का बच्चा होश संभालते ही टी वी कंप्यूटर एसी फ्रिज और मोबाइल जैसे उपकरणों से साक्षात्कार करता है। अतः उसे परी अपसरा भूत प्रेत और दैवीय चमत्कार सरीखी काल्पनिक बातों से नहीं बहलाया जा सकता।

हिंदी के बाल साहित्यकार इस तथ्य को बखूबी समझते हैं और यही कारण है कि हिंदी में आज वैज्ञानिक दृष्टि संपन्न साहित्य प्रचुर मात्रा में उपलब्ध है। शुकदेव प्रसाद, जयंत विष्णु नार्लीकर, विजयकुमार उपाध्याय, गुणाकर मुले तथा लल्लन कुमार प्रसाद जैसे रचनाकारों ने विविध विधाओं में विपुल मात्रा में मौलिक रोचक तथा उपयोगी विज्ञान बाल साहित्य की रचना की है। इनके अतिरिक्त संजीव जायसवाल संजय अरविंद मिश्र तथा जाकिर अली रजनीश ने भी वैज्ञानिक विषयों को लेकर कविताओं कहानियों उपन्यासों तथा वैज्ञानिक लेखों आदि की रचना की है।

बाल पत्रकारिता-

जहाँ तक बाल पत्रकारिता की बात है इस दृष्टि से भी हिंदी बाल साहित्य की स्थिति प्रारंभिक काल से ही काफी सुदृढ़ रही है। कुमार, बालसखा, शिशुवानर, विद्यार्थी, मनमोहन, बालक, राजाभैया, अच्छे भैया, मेला, बाल मेला, चुन्नू-मुन्नू, दोस्त कलरव, तारा, बाल लहर, बाल परंपरा, स्नेह, बाल भारती, पराग और नंदन से लेकर बालहंस बाल वाटिका, बालवाणी चंपक, चकमक, देवपुत्र चंदामामा गुड़िया, प्यारी बहना, लोटपोट मधु मुस्कान नन्हें सम्राट, बाल भूमि, बाल मितान, बाल दर्शन बाल बोध, बाल प्रहरी, समझ झरोखा, लल्लू जगधर, नया सूरज नई धारा नई पौध, बच्चों का देश और अनुराग आदि तक बाल पत्रिकाओं की एक अटूट शृंखला है जिन्होंने हिंदी बाल साहित्य के सृजन संवर्धन तथा संरक्षण की दिशा में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है और निभा रहे हैं।

बंद हो चुकी बाल पत्रिका पराग के संपादक हरिकृष्ण देवसरे ने अपने संपादकत्व में बाल पत्रकारिता के क्षेत्र मे कई अभिनव प्रयोग किये और बाल साहित्य को रहस्य रोमांच चमत्कार एवं कल्पनालोक के घेरे से निकालकर यथार्थ के धरातल पर लाने का महत्तवपूर्ण कार्य किया। देवसरे ने तर्क संगत समय सापेक्ष्य एवं यथार्थ परक दृष्टि संपन्न बाल साहित्य लेखन का बाकायदा एक आंदोलन खड़ा किया और उसे सफलता पूर्वक स्थापित भी किया। अपने समय की अत्यंत लोकप्रिय पत्रिकाओं धर्मयुग तथा साप्ताहिक हिंदुस्तान में बाल साहित्य को प्रमुखता से स्थान मिलता रहा। यद्यपि उपरोक्त में से बहुत सी पत्रिकाओं में से, बहुत का प्रकाशन अब बंद हो चुका है फिर भी आज कम से कम डेढ़ दर्जन बाल पत्रिकाएँ ऐसी हैं जो नियमित रूप से प्रकाशित हो रही हैं।

आज हिंदी का कोई भी ऐसा दैनिक या साप्ताहिक पत्र नहीं हैं जिसमें बाल साहित्य को प्रमुखता से स्थान न मिलता हो। हिंदी की कई प्रतिष्ठित मासिक पत्रिकाओं में भी बाल साहित्य के लिये स्थान आरक्षित रहता है। कई स्थापित पत्रिकाओं ने तो समय समय पर बाल साहित्य पर विशेषांक भी निकाले हैं। ये सारी बातें स्वयमेव बाल साहित्य की समृद्धि और सामर्थ्य की द्योतक हैं।

बाल साहित्य में शोधकार्य-

सन १९६८ में हरिकृष्ण देवसरे ने हिंदी बालसाहित्य पर पहला शोधकार्य किया था। तब से अब तक उत्तर भारत के विभिन्न विश्व विद्यालयों में २०० से भी अधिक शोधकार्य बाल साहित्य पर हो चुके हैं और सैकड़ों शोधार्थी शोधरत हैं। हिंदी के प्रसिद्ध साहित्यकार प्रकाश मनु, हरिकृष्ण देवसरे, श्री प्रसाद, सुरेन्द्र विक्रम आदि ने भी समक्षा के क्षेत्र में उल्लेखनीय कार्य किया है। प्रकाश मनु हिंदी बाल साहित्य का विस्तृत इतिहास लिख रहे हैं जिसमें निश्चित ही हिंदी बाल साहित्य के विविध पक्षों का तथ्यात्मक रेखांकन देखने को मिलेगा।

बाल साहित्य के प्रकाशक-

नेशनल बुक ट्रस्ट, चिल्डरेंस बुक ट्रस्ट और केन्द्र सरकार के प्रकाशन विभाग से लेकर छोटे बड़े विभिन्न शहरों में फैले सैकड़ों ऐसे प्रकाशन संस्थान हैं जो प्रतिवर्ष विपुल मात्रा में बाल साहित्य का प्रकाशन कर रहे हैं। आज हिंदी का हर बड़ा प्रकाशक सहर्ष बाल साहित्य छाप रहा है। भारी मात्रा में बाल साहित्य का यह नियमित प्रकाशन स्वतः इसकी अच्छी बिक्री का प्रमाण है। तात्पर्य यह कि आज का हिंदी बाल सहित्य हर दृष्टि से समृद्ध, समर्थ, विकसित तथा समय सापेक्ष्य है। आज समर्पित रचनाकारों की एक बड़ी संख्या है। जो इसे नई ऊँचाइयों की ओर ले जाने के लिये प्रयासरत हैं।

८ नवंबर २०१०

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