बाल
साहित्य संरचना- ध्यान देने योग्य बातें
विनोदचंद्र पांडेय विनोद
बच्चों में अनुकरणशीतला जिज्ञासा और कल्पनाशीलता बहुत
अधिक होती है। अनुकरण से उनके चरित्र का विकास होता
है, जिज्ञासा से उनकी ज्ञानवृद्धि होती है और
कल्पनाशीलता से वे जीवन जगत के विषय में अपेक्षित
ज्ञान प्राप्त करने की ओर स्वयमेव उन्मुख होते हैं।
ऐसी दशा में यह आवश्यक है कि बच्चों के चारित्रिक
विकास और ज्ञानवर्धन हेतु शैशव बालपन और कैशोर्य तीनो
अवस्थाओं के अनुरूप उनके लिये बाल साहित्य का निर्माण
हो जो उन्हें किस प्रकार उपलब्ध हो उसका भी ध्यान रखा
जाए। यह तभी संभव होगा जब बाल साहित्यकार, प्रकाशक और
अभिभावक सभी इस ओर अपने कर्तव्य पालन के लिये सजग और
सतर्क रहें। बच्चे ही तो बढ़कर परिवार समाज एवं देश के
प्रति अपने उत्तरदायित्वों का निर्वहन कर योग्य नागरिक
बनने के गौरव से अभिमंडित होते हैं। योग्य नागरिक वे
तभी बनेंगे जब उनके सामने आदर्श होंगे उनकी जिज्ञासाओं
के समाधान के भंडार होंगे और उनके कल्पना जगत को और
अधिक तेजोमय बनाने के उपक्रम होंगे। यह कार्य बाल
साहित्यकार ही संपन्न कर सकते हैं। यों तो विद्यार्जन
के समय ज्ञान वर्धन के लिये पाठ्यपुस्तकें होती हैं
किंतु इन पाठ्य पुस्तकों की पाठ्य वस्तु आएगी कहाँ से
उसे तो बाल साहित्यकार ही तैयार करेंगे। उनके मनोरंजन
और ज्ञानार्जन के लिये पाठ्येतर साहित्य की भी महती
आवश्यकता है। इसे भी बाल साहित्यकार को सृजित करना
होता है।
वस्तुतः बालमन को ध्यान में रखकर जो साहित्य रचा जा
चुका है या रचा जा रहा है वही बाल साहित्य के नाम से
अभिहित किया जाता है। इस साहित्य में सभी विद्याएँ-
कविता, कहानी, नाटक, लेख, जीवनी, संस्मरण, पहेली
चुटकुले आदि सम्मिलित है। अतः जिस किसी विद्या में बाल
साहित्य की सर्जना की जाय उसमें बच्चों की भावनाओं
रुचियों कल्पनाशीलता आदि को दृष्टिगत रखना होता है।
ऐसे साहित्य का स्वस्थ व सुरुचिपूर्ण होना नितांत
आवश्यक है क्यों कि इसका एक निश्चित उद्देश्य होता है।
मात्र मनोरंजन ही नहीं वरन् उससे बच्चों का समुचित
ज्ञानार्जन हो तथा उनमें संवेदनशीलता के भावों का जन्म
हो कहने का आशय यह है कि एक अच्छे मानव एक अच्छे
नागरिक बनने के लिये जिन गुणों की आवश्यकता होती है वे
गुण बाल मनोभूमि में अंकुरित किये जाएँ।
स्पष्ट है कि ऐसे उद्देश्य परक साहित्य की संरचना सरल
नहीं है। सरल भाषा में गंभीर विचारों को अभिव्यक्त
करना कठिन कार्य है। बाल साहित्य का सृजन वही
साहित्यकार कर सकता है जो अपनी विद्वत्ता, अनुभव की
गहनता और लेखन की दक्षता को बालमन की सहजता और सरलता
में डुबो दे। वह लिखते समय बालक बन जाय। बड़ी कठिन है
यह साधना। बाल साहित्यकार को अपने बचपन में लौटना
पड़ता है उसके सृजन की पृष्ठभूमि में उद्देश्य परक
सरलता की सहस्र धाराएँ जब प्रवाहित होती हैं तब वह
सृजन उन समग्र समस्याओं का समाधान बनकर स्वतः प्रस्तुत
हो जाता है। जिनसे बाल साहित्य प्रायः जुड़ा प्रतीत
होता है।
बाल साहित्य की समस्याओं में सबसे पहली समस्या लेखन की
समस्या है। रचनाकारों को सोचना होगा कि वे क्या लिखें
कैसे लिखें। उन्हें अपने सोच को व्यवहारिकता का रूप भी
प्रदान करना होगा। तभी अपेक्षित बाल साहित्य की रचना
हो सकती है। जिस प्रकार प्रत्येक प्रवहमान धारा नदी
नहीं होती उसी प्रकार प्रत्येक बाल रचना बाल साहित्य
की कोटि में नहीं आती। नदी के लिये आवश्यक है स्वच्छ
जलराशि। बाल साहित्य के लिये आवश्यक है पारदर्शी बालमन
की पारदर्शी भावनाओं की अभिव्यक्ति।
बच्चों में पढ़ने के प्रति बहुत अधिक अभिरुचि पाई जाती
है। उन्हें मनपसंद पाठ्य सामग्री मिले तो वे उसके साथ
घंटों जुड़े रहते हैं। सब कामों को भूलकर वे मनोरंजन
कथा कहानी को पढ़ने में इस तरह जुटते हैं कि खाना पानी
तक भूल जाते हैं। वे जिज्ञासु होते हैं, कौतूहल प्रिय
होते हैं, बाल पाठकों की समस्या का समाधान बाल
साहित्यकार शिक्षक अभिभावक प्रकाशक मिलकर कर सकते हैं।
वे उन्हें स्वस्थ सुरुचिपूर्ण श्रेष्ठ बालसाहित्य
उपलब्ध कराने में महत्त्वपूर्ण योगदान दे सकते हैं।
बच्चों के लिये जो भी अच्छा साहित्य लिखा जा रहा है।
उसके लिये उत्साही प्रकाशकों की भी आवश्यकता है। अतः
प्रकाशकों का कर्तव्य है कि उत्कृष्ट बाल साहित्य को
प्रकाश में लाने का प्रयास करें। ऐसे साहित्य के
प्रकाशन की समुचित व्यवस्था होनी चाहिये, जिससे बाल
साहित्य के समुचित प्रचार प्रसार के लिये योजनाबद्ध
रूप में कार्य हो सके। अच्छा हो गाँवों और नगरों में
सर्वत्र बाल पुस्तकालय हों जहाँ बाल साहित्य की
पुस्तकें बच्चों को सहज सुलभ हों। इन पुस्तकालयों के
लिये बाल साहित्यकारों की पुस्तकों के नियमित क्रय का
प्राविधान होना चाहिये। जिससे अद्यतन बाल साहित्य उन
पुस्तकालयों में अनवरत उपलब्ध होता रहे।
बाल साहित्य की पुस्तकों का सचित्र होना अनिवार्य है।
यदि वे सचित्र नहीं होंगे तो बच्चे उनके प्रति आकर्षित
नहीं होंगे। अतः बाल साहित्य को सचित्र एवं सुसज्जित
रूप से प्रस्तुत करने की दिशा में चित्रकारों की महती
भूमिका है।
नवसंचार माध्यमों का आज वर्चस्व निरंतर बढ़ता जा रहा
है। बच्चे भी इससे अछूते नहीं हैं। देखा जाय तो
दूरदर्शन और आकाशवाणी के प्रति वे अधिक आकृष्ट होते
हैं। उनके माध्यम से बाल कहानियों बाल नाटकों बाल
फिल्में आदि के प्रसरण की नियमित व्यवस्था की जानी
चाहिये। बाल साहित्यकारों की कहानियों नाटकों पर
आधारित कार्यक्रम तैयार किये जाएँ बाल फिल्में भी बनाई
जाएँ यों तो दूरदर्शन और आकाशवाणी पर बच्चों के लिये
कार्यक्रम प्रसारित होते हैं, परंतु उनके संयोजन अथवा
प्रायोजन में बाल साहित्यकारों की सक्रिय भागीदारी भी
सुनिश्चित होनी चाहिये। इस क्षेत्र में देखा जाय तो
बाल साहित्य के प्रचार प्रसार की बड़ी संभावनाएँ हैं।
दृश्य और श्रव्य ढंग से बाल कविताओं, बाल कहानियों बाल
नाटकों बाल एकांकियों की प्रस्तुति के व्यापक उपाय
होने पर उससे बाल श्रोता उनके अभिभावक और बाल
साहित्यकार सभी को प्रोत्साहन और संतुष्टि मिलने से एक
सुविस्तृत उत्साह वर्धक बाल साहित्य के क्षेत्र का
निर्माण होगा। इस प्रकार नवसंचार माध्यमों का बाल
साहित्य के सम्यक विकास में समुचित सदुपयोग किया जा
सकता है।
उल्लेखनीय है कि हिंदी में बाल साहित्य का पर्याप्त
सृजन हुआ है। जो लोग हिंदी में बाल साहित्य के अभाव की
बात करते हैं वे कदाचित बाल साहित्य के प्रणेताओं की
रचनाओं से अपरिचित होने के कारण ऐसा कह देते हैं।
हिंदी में बाल साहित्य का विपुल भंडार है। केवल
आवश्यकता है उसके उचित मूल्यांकन और उसकी सम्यक
प्रतिष्ठा की। हिंदी साहित्य के इतिहास में बाल
साहित्य संबंधी अध्याय भी जोड़ा जाना चाहिये। जिसकी ओर
प्रायः हिंदी साहित्य के इतिहास लेखक पूरा ध्यान नहीं
देते हैं। अनेक बाल साहित्यकार बाल साहित्य के विकास
की दिशा में प्रयत्नशील हैं बाल साहित्य का सम्यक
मूल्यांकन कर बच्चों उनके अभिभावकों तथा बाल साहित्य
में रुचि रखनेवाले अनेक व्यक्तियों को इस संबंध में
जानकारी दी जानी चाहिये। और इस धारणा को निर्मूल किया
जाना चाहिये कि बाल साहित्य का अभाव है। हिंदी बाल
साहित्य के संबंध में परिचयात्मक पुस्तकें तो प्रकाशित
हुई हैं किंतु कौन सा बाल साहित्य बच्चों के लिये
अच्छा है कौन सा अच्छा नहीं है इस ओर सभी समीक्षकों का
ध्यान नहीं गया है। इस दिशा में कार्य करने की
पर्याप्त संभावना है।
बाल साहित्य का सृजन वयक्रम के अनुसार होना चाहिये। इस
दृष्टि से इसे शिशु साहित्य बाल साहित्य एवं किशोर
साहित्य में वर्गीकृत किया जा सकता है। बाल साहित्य का
सृजन बच्चों के मनोविज्ञान को ध्यान में रखते हुए किया
जाना चाहिये जिससे उनकी रुचियों और उनकी आवश्यकताओं को
दृष्टि में रखा जाए। समय के अनुसार बाल साहित्य में
परिवर्तन भी आवश्यक है। आज के वैज्ञानिक युग में जहाँ
बालकों को बाल साहित्य के माध्यम से आधुनिक वस्तुओं की
जानकारी दी जानी चाहिये वहीं उनमें भारतीय सभ्यता एवं
संस्कृति के प्रति अनुराग जागृत करने का प्रयास भी
किया जाना चाहिये। मेरा विचार है कि जहाँ बच्चों को
अपने देश के अतीत का ध्यान कराया जाय वहीं वर्तमान
संबंध में भी उन्हें वांछित जानकारी दी जाय। बच्चों की
रुचियों और आवश्यकताओं को ध्यान में रखकर बाल साहित्य
सृजन बालकों के लिये उपयोगी एवं लाभ प्रद है। इस
दृष्टि से ज्यों ज्यों बच्चों की अवस्था बढ़ती जाती है
त्यों त्यों वे नई वस्तुओं के संपर्क में आते हैं। उन
वस्तुओं के विषय में विस्तृत जानकारी प्राप्त करने की
उनकी जिज्ञासा होती है। बाल साहित्यकार को बालक बनकर
बालकों की जिज्ञासा का समाधान करना होगा। बाल साहित्य
का सृजन जहाँ बालकों के मनोरंजन के लिये किया जाना
चाहिये वहीं उनके ज्ञानवर्धन के लिये उसकी रचना होनी
चाहिये।
जहाँ तक भाषा का प्रश्न है बाल साहित्य में सरल भाषा
का प्रयोग किया जाना उपयुक्त होगा। किंतु ज्यों ज्यों
वह अधिक उम्र के बालकों के लिये लिखा जाय त्यों त्यों
उसमें ऐसे शब्दों का प्रयोग भी होना चाहिये जिससे
बालकों का शब्द ज्ञान एवं शब्द भंडार बढ़ सके और वे नए
नए शब्दों के अर्थ जान सकें। बाल साहित्य के लिये
काल्पनिकता और यथार्थता का समन्यवय भी अपेक्षित है।
बाल साहित्यकारों अभिभावकों शिक्षकों और प्रकाशकों के
समवेत प्रयास से ही बाल साहित्य को उचित प्रतिष्ठा मिल
सकेगी। विभिन्न भारतीय भाषाओं में रचित बाल साहित्य के
पारस्परिक आदान प्रदान से बाल साहित्य के विकास को नई
दिशा मिल सकती है। अतः भारतीय बाल साहित्य के विविध
आयामों का ज्ञान भी आवश्यक है।संरचना- ध्यान देने
योग्य बातें
विनोदचंद्र पांडेय विनोद
बच्चों में अनुकरणशीतला जिज्ञासा और कल्पनाशीलता बहुत
अधिक होती है। अनुकरण से उनके चरित्र का विकास होता
है, जिज्ञासा से उनकी ज्ञानवृद्धि होती है और
कल्पनाशीलता से वे जीवन जगत के विषय में अपेक्षित
ज्ञान प्राप्त करने की ओर स्वयमेव उन्मुख होते हैं।
ऐसी दशा में यह आवश्यक है कि बच्चों के चारित्रिक
विकास और ज्ञानवर्धन हेतु शैशव बालपन और कैशोर्य तीनो
अवस्थाओं के अनुरूप उनके लिये बाल साहित्य का निर्माण
हो जो उन्हें किस प्रकार उपलब्ध हो उसका भी ध्यान रखा
जाए। यह तभी संभव होगा जब बाल साहित्यकार, प्रकाशक और
अभिभावक सभी इस ओर अपने कर्तव्य पालन के लिये सजग और
सतर्क रहें। बच्चे ही तो बढ़कर परिवार समाज एवं देश के
प्रति अपने उत्तरदायित्वों का निर्वहन कर योग्य नागरिक
बनने के गौरव से अभिमंडित होते हैं। योग्य नागरिक वे
तभी बनेंगे जब उनके सामने आदर्श होंगे उनकी जिज्ञासाओं
के समाधान के भंडार होंगे और उनके कल्पना जगत को और
अधिक तेजोमय बनाने के उपक्रम होंगे। यह कार्य बाल
साहित्यकार ही संपन्न कर सकते हैं। यों तो विद्यार्जन
के समय ज्ञान वर्धन के लिये पाठ्यपुस्तकें होती हैं
किंतु इन पाठ्य पुस्तकों की पाठ्य वस्तु आएगी कहाँ से
उसे तो बाल साहित्यकार ही तैयार करेंगे। उनके मनोरंजन
और ज्ञानार्जन के लिये पाठ्येतर साहित्य की भी महती
आवश्यकता है। इसे भी बाल साहित्यकार को सृजित करना
होता है।
वस्तुतः बालमन को ध्यान में रखकर जो साहित्य रचा जा
चुका है या रचा जा रहा है वही बाल साहित्य के नाम से
अभिहित किया जाता है। इस साहित्य में सभी विद्याएँ-
कविता, कहानी, नाटक, लेख, जीवनी, संस्मरण, पहेली
चुटकुले आदि सम्मिलित है। अतः जिस किसी विद्या में बाल
साहित्य की सर्जना की जाय उसमें बच्चों की भावनाओं
रुचियों कल्पनाशीलता आदि को दृष्टिगत रखना होता है।
ऐसे साहित्य का स्वस्थ व सुरुचिपूर्ण होना नितांत
आवश्यक है क्यों कि इसका एक निश्चित उद्देश्य होता है।
मात्र मनोरंजन ही नहीं वरन् उससे बच्चों का समुचित
ज्ञानार्जन हो तथा उनमें संवेदनशीलता के भावों का जन्म
हो कहने का आशय यह है कि एक अच्छे मानव एक अच्छे
नागरिक बनने के लिये जिन गुणों की आवश्यकता होती है वे
गुण बाल मनोभूमि में अंकुरित किये जाएँ।
स्पष्ट है कि ऐसे उद्देश्य परक साहित्य की संरचना सरल
नहीं है। सरल भाषा में गंभीर विचारों को अभिव्यक्त
करना कठिन कार्य है। बाल साहित्य का सृजन वही
साहित्यकार कर सकता है जो अपनी विद्वत्ता, अनुभव की
गहनता और लेखन की दक्षता को बालमन की सहजता और सरलता
में डुबो दे। वह लिखते समय बालक बन जाय। बड़ी कठिन है
यह साधना। बाल साहित्यकार को अपने बचपन में लौटना
पड़ता है उसके सृजन की पृष्ठभूमि में उद्देश्य परक
सरलता की सहस्र धाराएँ जब प्रवाहित होती हैं तब वह
सृजन उन समग्र समस्याओं का समाधान बनकर स्वतः प्रस्तुत
हो जाता है। जिनसे बाल साहित्य प्रायः जुड़ा प्रतीत
होता है।
बाल साहित्य की समस्याओं में सबसे पहली समस्या लेखन की
समस्या है। रचनाकारों को सोचना होगा कि वे क्या लिखें
कैसे लिखें। उन्हें अपने सोच को व्यवहारिकता का रूप भी
प्रदान करना होगा। तभी अपेक्षित बाल साहित्य की रचना
हो सकती है। जिस प्रकार प्रत्येक प्रवहमान धारा नदी
नहीं होती उसी प्रकार प्रत्येक बाल रचना बाल साहित्य
की कोटि में नहीं आती। नदी के लिये आवश्यक है स्वच्छ
जलराशि। बाल साहित्य के लिये आवश्यक है पारदर्शी बालमन
की पारदर्शी भावनाओं की अभिव्यक्ति।
बच्चों में पढ़ने के प्रति बहुत अधिक अभिरुचि पाई जाती
है। उन्हें मनपसंद पाठ्य सामग्री मिले तो वे उसके साथ
घंटों जुड़े रहते हैं। सब कामों को भूलकर वे मनोरंजन
कथा कहानी को पढ़ने में इस तरह जुटते हैं कि खाना पानी
तक भूल जाते हैं। वे जिज्ञासु होते हैं, कौतूहल प्रिय
होते हैं, बाल पाठकों की समस्या का समाधान बाल
साहित्यकार शिक्षक अभिभावक प्रकाशक मिलकर कर सकते हैं।
वे उन्हें स्वस्थ सुरुचिपूर्ण श्रेष्ठ बालसाहित्य
उपलब्ध कराने में महत्त्वपूर्ण योगदान दे सकते हैं।
बच्चों के लिये जो भी अच्छा साहित्य लिखा जा रहा है।
उसके लिये उत्साही प्रकाशकों की भी आवश्यकता है। अतः
प्रकाशकों का कर्तव्य है कि उत्कृष्ट बाल साहित्य को
प्रकाश में लाने का प्रयास करें। ऐसे साहित्य के
प्रकाशन की समुचित व्यवस्था होनी चाहिये, जिससे बाल
साहित्य के समुचित प्रचार प्रसार के लिये योजनाबद्ध
रूप में कार्य हो सके। अच्छा हो गाँवों और नगरों में
सर्वत्र बाल पुस्तकालय हों जहाँ बाल साहित्य की
पुस्तकें बच्चों को सहज सुलभ हों। इन पुस्तकालयों के
लिये बाल साहित्यकारों की पुस्तकों के नियमित क्रय का
प्राविधान होना चाहिये। जिससे अद्यतन बाल साहित्य उन
पुस्तकालयों में अनवरत उपलब्ध होता रहे।
बाल साहित्य की पुस्तकों का सचित्र होना अनिवार्य है।
यदि वे सचित्र नहीं होंगे तो बच्चे उनके प्रति आकर्षित
नहीं होंगे। अतः बाल साहित्य को सचित्र एवं सुसज्जित
रूप से प्रस्तुत करने की दिशा में चित्रकारों की महती
भूमिका है।
नवसंचार माध्यमों का आज वर्चस्व निरंतर बढ़ता जा रहा
है। बच्चे भी इससे अछूते नहीं हैं। देखा जाय तो
दूरदर्शन और आकाशवाणी के प्रति वे अधिक आकृष्ट होते
हैं। उनके माध्यम से बाल कहानियों बाल नाटकों बाल
फिल्में आदि के प्रसरण की नियमित व्यवस्था की जानी
चाहिये। बाल साहित्यकारों की कहानियों नाटकों पर
आधारित कार्यक्रम तैयार किये जाएँ बाल फिल्में भी बनाई
जाएँ यों तो दूरदर्शन और आकाशवाणी पर बच्चों के लिये
कार्यक्रम प्रसारित होते हैं, परंतु उनके संयोजन अथवा
प्रायोजन में बाल साहित्यकारों की सक्रिय भागीदारी भी
सुनिश्चित होनी चाहिये। इस क्षेत्र में देखा जाय तो
बाल साहित्य के प्रचार प्रसार की बड़ी संभावनाएँ हैं।
दृश्य और श्रव्य ढंग से बाल कविताओं, बाल कहानियों बाल
नाटकों बाल एकांकियों की प्रस्तुति के व्यापक उपाय
होने पर उससे बाल श्रोता उनके अभिभावक और बाल
साहित्यकार सभी को प्रोत्साहन और संतुष्टि मिलने से एक
सुविस्तृत उत्साह वर्धक बाल साहित्य के क्षेत्र का
निर्माण होगा। इस प्रकार नवसंचार माध्यमों का बाल
साहित्य के सम्यक विकास में समुचित सदुपयोग किया जा
सकता है।
उल्लेखनीय है कि हिंदी में बाल साहित्य का पर्याप्त
सृजन हुआ है। जो लोग हिंदी में बाल साहित्य के अभाव की
बात करते हैं वे कदाचित बाल साहित्य के प्रणेताओं की
रचनाओं से अपरिचित होने के कारण ऐसा कह देते हैं।
हिंदी में बाल साहित्य का विपुल भंडार है। केवल
आवश्यकता है उसके उचित मूल्यांकन और उसकी सम्यक
प्रतिष्ठा की। हिंदी साहित्य के इतिहास में बाल
साहित्य संबंधी अध्याय भी जोड़ा जाना चाहिये। जिसकी ओर
प्रायः हिंदी साहित्य के इतिहास लेखक पूरा ध्यान नहीं
देते हैं। अनेक बाल साहित्यकार बाल साहित्य के विकास
की दिशा में प्रयत्नशील हैं बाल साहित्य का सम्यक
मूल्यांकन कर बच्चों उनके अभिभावकों तथा बाल साहित्य
में रुचि रखनेवाले अनेक व्यक्तियों को इस संबंध में
जानकारी दी जानी चाहिये। और इस धारणा को निर्मूल किया
जाना चाहिये कि बाल साहित्य का अभाव है। हिंदी बाल
साहित्य के संबंध में परिचयात्मक पुस्तकें तो प्रकाशित
हुई हैं किंतु कौन सा बाल साहित्य बच्चों के लिये
अच्छा है कौन सा अच्छा नहीं है इस ओर सभी समीक्षकों का
ध्यान नहीं गया है। इस दिशा में कार्य करने की
पर्याप्त संभावना है।
बाल साहित्य का सृजन वयक्रम के अनुसार होना चाहिये। इस
दृष्टि से इसे शिशु साहित्य बाल साहित्य एवं किशोर
साहित्य में वर्गीकृत किया जा सकता है। बाल साहित्य का
सृजन बच्चों के मनोविज्ञान को ध्यान में रखते हुए किया
जाना चाहिये जिससे उनकी रुचियों और उनकी आवश्यकताओं को
दृष्टि में रखा जाए। समय के अनुसार बाल साहित्य में
परिवर्तन भी आवश्यक है। आज के वैज्ञानिक युग में जहाँ
बालकों को बाल साहित्य के माध्यम से आधुनिक वस्तुओं की
जानकारी दी जानी चाहिये वहीं उनमें भारतीय सभ्यता एवं
संस्कृति के प्रति अनुराग जागृत करने का प्रयास भी
किया जाना चाहिये। मेरा विचार है कि जहाँ बच्चों को
अपने देश के अतीत का ध्यान कराया जाय वहीं वर्तमान
संबंध में भी उन्हें वांछित जानकारी दी जाय। बच्चों की
रुचियों और आवश्यकताओं को ध्यान में रखकर बाल साहित्य
सृजन बालकों के लिये उपयोगी एवं लाभ प्रद है। इस
दृष्टि से ज्यों ज्यों बच्चों की अवस्था बढ़ती जाती है
त्यों त्यों वे नई वस्तुओं के संपर्क में आते हैं। उन
वस्तुओं के विषय में विस्तृत जानकारी प्राप्त करने की
उनकी जिज्ञासा होती है। बाल साहित्यकार को बालक बनकर
बालकों की जिज्ञासा का समाधान करना होगा। बाल साहित्य
का सृजन जहाँ बालकों के मनोरंजन के लिये किया जाना
चाहिये वहीं उनके ज्ञानवर्धन के लिये उसकी रचना होनी
चाहिये।
जहाँ तक भाषा का प्रश्न है बाल साहित्य में सरल भाषा
का प्रयोग किया जाना उपयुक्त होगा। किंतु ज्यों ज्यों
वह अधिक उम्र के बालकों के लिये लिखा जाय त्यों त्यों
उसमें ऐसे शब्दों का प्रयोग भी होना चाहिये जिससे
बालकों का शब्द ज्ञान एवं शब्द भंडार बढ़ सके और वे नए
नए शब्दों के अर्थ जान सकें। बाल साहित्य के लिये
काल्पनिकता और यथार्थता का समन्यवय भी अपेक्षित है।
बाल साहित्यकारों अभिभावकों शिक्षकों और प्रकाशकों के
समवेत प्रयास से ही बाल साहित्य को उचित प्रतिष्ठा मिल
सकेगी। विभिन्न भारतीय भाषाओं में रचित बाल साहित्य के
पारस्परिक आदान प्रदान से बाल साहित्य के विकास को नई
दिशा मिल सकती है। अतः भारतीय बाल साहित्य के विविध
आयामों का ज्ञान भी आवश्यक है। |