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                  विश्व में आजतक जारी गुलाम प्रथा 
					का आकलन करता फिरदौस खान का लेख-  
 गुलाम 
							प्रथा : दुनिया की हाट में बिकते इंसान 
 दुनियाभर में आज भी अमानवीय 
							गुलाम प्रथा जारी है और 
							जानवरों की तरह इंसानों की खरीद-फरोख्त की जाती है। 
							इन गुलामों से कारख़ानों और बाग़ानों में काम कराया 
							जाता है। उनसे घरेलू काम भी लिया जाता है। इसके अलावा 
							गुलामों को वेश्यावृति के लिए मजबूर भी किया जाता है। 
							गुलामों में बड़ी तादाद में महिलाएँ और बच्चे भी 
							शामिल हैं।
 संयुक्त राष्ट्र संघ की एक रिपोर्ट के अनुसार मादक 
							पदार्थ और हथियारों के बाद तीसरे स्थान पर मानव तस्करी 
							है। एक अन्य रिपोर्ट में कहा गया है कि दुनियाभर में 
							करीब पौने तीन करोड़ गुलाम हैं। एँटी स्लेवरी 
							इंटरनेशनल की परिभाषा के अनुसार वस्तुओं की तरह 
							इंसानों का कारोबार, श्रमिक को बेहद कम या बिना 
							मेहनताने के काम करना, उन्हें मानसिक या शारीरिक तौर 
							पर प्रताड़ित कर काम कराना, उनकी गतिविधियो पर हर वक्त 
							नजर रखना गुलामी माना जाता है। १८५७ में संयुक्त 
							राष्ट्र सम्मेलन गुलामी की चरम अवस्था ‘किसी पर 
							मालिकाना हक जताने’ को मानता है। फ़िलहाल दासता की 
							श्रेणियों में जबरन काम कराना, बंधुआ मजदूरी, यौन 
							दासता, बच्चों को जबरने सेना में भर्ती करना, कम उम्र 
							में या जबरन होने वाले विवाह और वंशानुगत दासता शामिल 
							है।
 
 अमेरिका में करीब ६० देशों से लाए गए करोड़ों लोग गुलाम के तौर पर 
							जिन्दगी गुज़ारने को मजबूर हैं। 
							ब्राजील में भी लाखों गुलाम हैं। हालांकि वहाँ के श्रम 
							विभाग के अनुसार इन गुलामों की तादाद करीब ५० 
							हज़ार है और हर साल लगभग सात हज़ार गुलाम यहाँ लाए 
							जाते हैं। पश्चिमी यूरोप में भी गुलामों की तादाद 
							लाखों में है। एक रिपोर्ट के अनुसार वर्ष २००३ में 
							चार लाख लोग अवैध तौर पर लाए गए थे। पश्चिमी अफ्रीका 
							में भी बड़ी तादाद में गुलाम हैं, जिनसे बाग़ानों और 
							उद्योगों में काम कराया जाता है। सोवियत संघ के बिखराव 
							के बाद रूस और पूर्वी यूरोप में गुलामी प्रथा को 
							बढ़ावा मिला।
 
 पूर्वी अफ्रीका के देश सूडान में गुलाम प्रथा को सरकार 
							की मान्यता मिली हुई है। यहाँ अश्वेत महिलाओं और 
							बच्चों से मजदूरी कराई जाती है। युगांडा में सरकार 
							विरोधी संगठन और सूडानी सेना में बच्चों की जबरन भर्ती 
							की जाती है। अफ्रीका से दूसरे देशों में गुलामों को 
							ले जाने के लिए जहाज़ों का इस्तेमाल किया जाता था। इन 
							जहाज़ों में गुलामों को जानवरों की तरह ठूंसा जाता 
							था। उन्हें कई-कई दिनों तक भोजन भी नहीं दिया जाता था, 
							ताकि शारीरिक और मानसिक रूप से वे बुरी तरह टूट जाएँ 
							और भागने की कोशिश न करें। अमानवीय हालात में कई गुलामों की मौत हो जाती थी और कई समुद्र में कुदकर 
							अपनी जान दे देते थे। चीन और बर्मा में भी गुलामों की 
							हालत बेहद दयनीय है। उनसे जबरन कारख़ानों और खेतों में 
							काम कराया जाता है। इंडोनेशिया, थाइलैंड, मलेशिया और 
							फ़िलीपींस में महिलाओं से वेश्यावृति कराई जाती है। 
							उन्हें खाड़ी देशों में वेश्यावृति के लिए बेचा जाता 
							है।
 
 दक्षिण एशिया ख़ासकर भारत, पाकिस्तान और नेपाल में 
							ग़रीबी से तंग लोग गुलाम बनने पर मजबूर हुए। भारत में 
							भी बंधुआ मजदूरी के तौर पर गुलाम प्रथा जारी है। 
							हालांकि सरकार ने १९७५ में राष्ट्रपति के एक अध्यादेश 
							के जरिए बंधुआ मजदूर प्रथा पर प्रतिबंध लगा दिया 
							था,मगर इसके बावजूद सिलसिला आज भी जारी है। यह कहना 
							गलत न होगा कि औद्योगिकरण के चलते इसमें इज़ाफ़ा ही 
							हुआ है। सरकार भी इस बात को मानती है कि देश में बंधुआ 
							मजदूरी जारी है। भारत के श्रम व रोजगार मंत्रालय की 
							वार्षिक रिपोर्ट के अनुसार देश में १९ प्रदेशों से ३१ 
							मार्च तक देशभर में दो लाख ८६ हज़ार ६१२ बंधुआ 
							मजदूरों की पहचान की गई और मुक्त उन्हें मुक्त कराया 
							गया। नवंबर तक एकमात्र राज्य उत्तर प्रदेश के २८ हज़ार 
							३८५ में से केवल ५८ बंधुआ मजदूरों को पुनर्वासित किया 
							गया, जबकि १८ राज्यों में से एक भी बंधुआ मजदूर को 
							पुनर्वासित नहीं किया गया।
 इस 
							रिपोर्ट के अनुसार देश में सबसे ज्यादा तमिलनाडु में 
							६५ हज़ार ५७३ बंधुआ 
							मजदूरों की पहचान कर उन्हें मुक्त कराया गया। कनार्टक 
							में ६३ हज़ार ४३७ और उड़ीसा में ५० हज़ार २९ बंधुआ 
							मजदूरों को मुक्त कराया गया। रिपोर्ट में यह भी बताया 
							गया कि १९ राज्यों को ६८ करोड़ ६८ लाख ४२ हज़ार रुपए 
							की केंद्रीय सहायता मुहैया कराई गई, जिसमें सबसे 
							ज़्यादा सहायता १६ करोड़ ६१ लाख ६६ हज़ार ९४ रुपए 
							राजस्थान को दिए गए। इसके बाद १५ करोड़ ७८ लाख १८ 
							हज़ार रुपए कर्नाटक और नौ कराड़ तीन लाख ३४ हज़ार रुपए 
							उड़ीसा को मुहैया कराए गए। इसी समयावधि के दौरान सबसे 
							कम केंद्रीय सहायता उत्तराखंड को मुहैया कराई गई। 
							उत्तर प्रदेश को पांच लाख ८० हज़ार रुपए की केंद्रीय 
							सहायता दी गई। इसके अलावा अरुणाचल प्रदेश, बिहार, 
							छत्तीसगढ़, दिल्ली,गुजरात, हरियाणा, झारखंड, कर्नाटक, 
							मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, मणिपुर, उड़ीसा, पंजाब, 
							राजस्थान, तमिलनाडु, उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड को ३१ 
							मार्च २००६ तक बंधुआ बच्चों का सर्वेक्षण कराने, 
							मूल्यांकन अध्ययन कराने और जागरूकता सृजन कार्यक्रमों 
							के लिए चार करोड़ २० लाख रुपए की राशि दी गई।
 भारत में सदियों से किसान गांवों के साहूकारों से खाद, 
							बीजए रसायनों और कृषि उपकरणों आदि के लिए कर्ज़ लेते 
							रहे हैं। इस कज के बदले उन्हें अपने घर और खेत तक 
							गिरवी रखने पड़ते हैं। कर्ज़ से कई गुना रकम चुकाने 
							के बाद भी जब उनका कर्ज़ नहीं उतर पाता। यहाँ तक कि 
							उनके घर और खेत तक साहूकारों के पास चले जाते हैं। 
							इसके बाद उन्हें साहूकारों के खेतों पर बंधुआ मजदूर 
							के तौर पर काम करना पड़ता है। हालत यह है कि किसानों 
							की कई नस्लें तक साहूकारों की बंधुआ बनकर रह जाती हैं।
 
 बिहार के गांव पाईपुरा बरकी में खेतिहर मजबूर जवाहर 
							मांझी को ४० किलो चावल के बदले अपनी पत्नी और चार 
							बच्चों के साथ ३० साल तक बंधुआ मजदूरी करनी पड़ी। करीब तीन साल पहले यह मामला सरकार की नजर 
							में आया। मामले के अनुसार ३३ साल पहले जवाहर मांझी ने एक 
							विवाह समारोह के लिए जमींदार से ४० किलो चावल लिए। उस 
							वक्त तय हुआ कि उसे जमींदार के खेत पर काम करना होगा 
							और एक दिन की मजदूरी एक किलो चावल होंगे। मगर तीन दशक 
							तक मजदूरी करने के बावजूद जमींदार के ४० किलो का कर्ज़ 
							नहीं उतर पाया। एँटी स्लेवरी इंटरनेशनल के अनुसार भारत में देहात में बंधुआ मजदूरी का सिलसिला 
							बदस्तूर जारी है। लाखों पुरुष, महिलाएँ और बच्चे बंधुआ 
							मजदूरी करने को मजबूर हैं। पाकिस्तान और दक्षिण एशिया 
							के अन्य देशों में भी यही हालत है।
 
 देश में ऐसे ही कितने भट्ठे व अन्य उद्योग धंधे हैं, 
							जहाँ मजदूरों को बंधुआ बनाकर उनसे कड़ी मेहनत कराई 
							जाती है और मजदूरी की एवज में नाममात्र पैसे दिए जाते 
							हैं, जिससे उन्हें दो वक्त भी भरपेट रोटी नसीब नहीं हो 
							पाती। अफसोस की बात तो यह है कि सब कुछ जानते हुए भी 
							प्रशासन इन मामले में मूक दर्शक बना रहता है, लेकिन जब 
							बंधुआ मुक्ति मोर्चा जैसे संगठन मीडिया के जरिये 
							प्रशासन पर दबाव बनाते हैं तो अधिकारियों की नींद 
							टूटती है और कुछ जगहों पर छापा मारकर वे रस्म अदायगी 
							कर लेते हैं। श्रमिक सुरेंद्र कहता है कि मजदूरों को 
							ठेकेदारों की मनमानी सहनी पड़ती है। उन्हें हर रोज 
							काम नहीं मिल पाता इसलिए वे काम की तलाश में ईंट 
							भट्ठों का रुख करते हैं, मगर यहाँ भी उन्हें अमानवीय 
							स्थिति में काम करना पड़ता है। अगर कोई मजदूर बीमार 
							हो जाए तो उसे दवा दिलाना तो दूर की बात उसे आराम तक 
							करने नहीं दिया जाता।
 
 दास प्रथा की शुरुआत की कई सदी पहले हुई थी। बताया 
							जाता है कि चीन में १८-१२वीं शताब्दी ईसा पूर्व गुलामी 
							प्रथा का जिक्र मिलता है। भारत के प्राचीन ग्रंथ मनु 
							स्मृति में दास प्रथा का उल्लेख किया गया है। एक 
							रिपोर्ट के अनुसार ६५० ईस्वी से १९०५ के 
							दौरान पौने दो करोड़ से ज्यादा लोगों को इस्लामी 
							साम्राज्य में बेचा गया। १५वीं शताब्दी में अफ्रीका के 
							लोग भी इस अनैतिक व्यापार में शामिल हो गए। १८६७ में करीब छह करोड़ लोगों को बंधक बनाकर दूसरे देशों में 
							गुलाम के तौर पर बेच दिया गया।
 
 गुलाम प्रथा के खिलाफ दुनियाभर में आवाज़ें बुलंद 
							होने लगीं। इस पर १८०७ में ब्रिटेन ने दास प्रथा 
							उन्मूलन कानून के तहत अपने देश में अफ्रीकी गुलामों 
							की खरीद-फरोख्त पर पाबंदी लगा दी। १८०८ में अमेरिकी 
							कांग्रेस ने गुलामी के आयात पर प्रतिबंध लगा दिया। 
							१८३३ तक यह कानून पूरे ब्रिटिश साम्राज्य में लागू कर 
							दिया। कहने को तो भारत में बंधुआ मजदूरी पर पाबंदी लग 
							चुकी है, लेकिन हकीकत यह है कि आज भी यह अमानवीय 
							प्रथा जारी है। बढ़ते औद्योगिकरण ने इसे बढ़ावा दिया 
							है। साथ ही श्रम कानूनों के लचीलेपन के कारण मजदूरों 
							के शोषण का सिलसिला जारी है। शिक्षित और जागरूक न होने 
							के कारण इस तबके की तरफ किसी का ध्यान नहीं गया। 
							संयुक्त राष्ट्र संघ को चाहिए कि वह सरकारों से श्रम 
							कानूनों का सख्ती से पालन कराए, ताकि मजदूरों को 
							शोषण से निजात मिल सके। संयुक्त राष्ट्र संघ और 
							मानवाधिकार जैसे संगठनों को गुलाम प्रथा के खिलाफ 
							अपनी मुहिम को और तेज करना होगा। साथ ही गुलामों को 
							मुक्त कराने के लिए भी सरकारों पर दबाव बनाना होगा। 
							इसमें बात में कोई राय नहीं है कि विभिन्न देशों में 
							अनैतिक धंधे प्रशासनिक अधिकारियों की मिलीभगत से ही 
							होते हैं, इसलिए प्रशासनिक व्यवस्था को भी दुरुस्त 
							करना होगा, ताकि गुलाम भी आम आदमी की जिन्दगी बसर कर 
							सकें।
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