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कहानियाँ

समकालीन हिंदी कहानियों के स्तंभ में इस सप्ताह प्रस्तुत है भारत से
 भीष्म साहनी की कहानी— ओ हरामजादे


घुमक्कड़ी के दिनों में मुझे खुद मालूम न होता कि कब किस घाट जा लगूँगा। कभी भूमध्य सागर के तट पर भूली बिसरी किसी सभ्यता के खण्डहर देख रहा होता, तो कभी यूरोप के किसी नगर की जनाकीर्ण सड़कों पर घूम रहा होता। दुनिया बड़ी विचित्र पर साथ ही अबोध और अगम्य लगती, जान पड़ता जैसे मेरी ही तरह वह भी बिना किसी धुरे के निरुद्देश्य घूम रही है।

ऐसे ही एक बार मैं यूरोप के एक दूरवर्ती इलाके में जा पहुँचा था। एक दिन दोपहर के वक्त होटल के कमरे में से निकल कर मैं खाड़ी के किनारे बैंच पर बैठा आती जाती नावों को देख रहा था, जब मेरे पास से गुजरते हुए अधेड़ उम्र की एक महिला ठिठक कर खड़ी हो गई। मैंने विशेष ध्यान नहीं दिया, मैंने समझा उसे किसी दूसरे चेहरे का मुगालता हुआ होगा। पर वह और निकट आ गयी।

“भारत से आये हो?" उसने धीरे से बड़ी शिष्ट मुसकान के साथ पूछा।

मैंने भी मुस्कुरा कर सिर हिला दिया।

“मैं देखते ही समझ गई थी कि तुम हिंदुस्तानी होगे।" और वह अपना बड़ा सा थैला बैंच पर रख कर मेरे पास बैठ गई।

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