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माँ की मौत के दो दिन गुज़रे थे। उसकी याद में मुझे बार-बार रोना आ रहा था। पिता जी
दिन-रात सिर पर हाथ रखे कोने में बैठे रहते। उन्हें देख कर तो मुझे माँ की याद और
भी सताती थी। हर रात माँ मुझे बगल में ले कर सोती थी। इन दो रातों में सुरंग मुझे
अपनी झोंपड़ी में ले गई थी। उसके बगल में मैं पिल्ले जैसा सुस्ता गया था। पर आज
पिता जी ने मेरा बिछौना अपनी झोंपड़ी में ही लगा दिया। जब सुरंग मुझे लेने आई तो
उन्होंने कहा, "सोने दो उसे यहीं पर। मुझ अकेले को खाली झोंपड़ी खाने को दौड़ती
है।"
सुरंग के पास जाने के लिए मेरा जी तरस रहा था। फिर भी मैं चुप रहा। रात को अकेले ही
बिछौने पर लेटा और मुझे रुलाई आ गई। अंधेरे में हाथ लंबा कर के मैंने योंही इधर उधर
टटोल कर देखा, माँ नहीं थी। कम से कम पिता जी तो मुझे अपनी बगल में सुला लें, इस
आशा से पिता जी को पुकारने के लिए मैंने मुँह खोला। पर मुझे उनके रोने की सी आवाज़
आई। उन्हें भी माँ की याद आती होगी, यह सोच कर मैं हिचक-हिचक कर रोने लगा। माँ। । ।
ऐसा आक्रोश कर के मैं धम्म से पिता जी के बिछौने पर आ धमका। उन्होंने मुझे कस के
गले लगाया। मैंने भी उन्हें बाँहों में जकड़ा। उनके आँसू मेरे गालों पर टपकने लगे।
वे मुझे सहलाते रहे। जैसे कि मेरी माँ सहलाती थी।
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