सप्ताह
का
विचार- तर्क से किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुँचा
जा सकता।
मूर्ख लोग तर्क करते हैं, जबकि बुद्धिमान विचार करते हैं। -श्री परमहंस योगानंद |
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अनुभूति
में-
डॉ. राधेश्याम शुक्ल, देवेंद्र शर्मा इंद्र, ज़क़िया ज़ुबैरी,
महेश नारायण और संजय कुमार की रचनाएँ। |
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इस सप्ताह
समकालीन कहानियों में
यू.एस.ए से
इला प्रसाद की कहानी
एक
अधूरी प्रेमकथा
मन घूमता है बार-बार उन्हीं खंडहर हो गए मकानों
में, रोता-तड़पता, शिकायतें करता, सूने-टूटे कोनों में ठहरता,
पैबन्द लगाने की कोशिशें करता... मैं टुकड़ा-टुकड़ा जोड़ती हूँ
लेकिन कोई ताजमहल नहीं बनता!
ये पंक्तियाँ मेरी नहीं, निमिषा की हैं। मैने जब पहली बार उसकी
डायरी के पन्ने पर ये पंक्तियाँ पढ़ीं तो चकित रह गई थी। यह
लड़की इतना सुन्दर लिख सकती है! उसका उत्साह और बढ़ा था, उसने
कुछ और पन्ने चुन- चुन कर मुझे पढ़ाए थे।
हम तो डूबने चले थे मगरसागरों में ही अब गहराइयाँ नहीं रहीं!
"कैसे लिख लेती हो तुम ऐसा?" मैने प्रशंसा की थी। उसने कुछ
शरमा कर अपनी डायरी बंद कर दी थी। लेकिन तब मैं बिल्कुल नहीं
सोच पाई थी कि किस सन्दर्भ-में-ये-पंक्तियाँ-उसके
मन में उपजी
होंगीं!
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हरि जोशी का व्यंग्य
कार्यालयों की गति
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रश्मि सिंह का आलेख
माउसलेस- एक अदृश्य कंप्यूटर माउस
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देवेंद्र चौबे की कलम से-
मुक्तछंद के प्रथम कवि महेश नारायण
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पर्यटक के साथ करें
बात बर्लिन की |
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पिछले सप्ताह
रामवृक्ष सिंह का व्यंग्य
आक्टोपस बाबा पधारो म्हारे
देस
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गौतम सचदेव का ललित निबंध
बिल्ली और छींका
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डॉ. शिवकुमार माथुर का आलेख
मालवा का लोक नाट्य- माच
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विजयदशमी के अवसर पर
विशेष-
मैसूर का दशहरा
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समकालीन कहानियों में
यू.एस.ए से
प्रतिभा सक्सेना की कहानी
स्वीकारोक्ति
ट्रेन का सफ़र कभी-कभी बड़ा
यादगार बन जाता है। मुझे बहुत यात्राएँ करनी पड़ी हैं और
अधिकतर अकेले ही। पति अधिकतर टूर पर और फिर उन्हें इतनी छुट्टी
भी कहाँ। उस दिन भी विषय-विशेषज्ञ बन कर
एक मीटिंग में जा रही थी। पहले ही
पता कर लिया था जिस कूपे में मेरा रिज़र्वेशन है उसमें एक
महिला और हैं। मुझे सी ऑफ़ कर ये चले गए।
वे महिला समवयस्का निकलीं। चलो, अच्छी कट जाएगी!
बातें शुरू -
'आप कहाँ जा रही हैं।'
'इंदौर, और आप?'
'हमें तो उज्जैन तक जाना है, आप भी अकेली हैं?'
'हाँ अकेली ही, अक्सर जाना-आना पड़ा है, आदत-सी हो गई है।'
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