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मन घूमता है बार-बार उन्हीं खंडहर हो गए मकानों
में, रोता-तड़पता, शिकायतें करता, सूने -टूटे कोनों में ठहरता,
पैबन्द लगाने की कोशिशें करता... मैं टुकड़ा-टुकड़ा जोड़ती हूँ
लेकिन कोई ताजमहल नहीं बनता!
ये पंक्तियाँ मेरी नहीं, निमिषा की हैं। मैने जब पहली बार उसकी
डायरी के पन्ने पर ये पंक्तियाँ पढ़ीं तो चकित रह गई थी। यह
लड़की इतना सुन्दर लिख सकती है! उसका उत्साह और बढ़ा था, उसने
कुछ और पन्ने चुन- चुन कर मुझे पढ़ाए थे।
हम तो डूबने चले थे मगरसागरों में ही अब गहराइयाँ नहीं रहीं!
"कैसे लिख लेती हो तुम ऐसा?" मैने प्रशंसा की थी। उसने कुछ
शरमा कर अपनी डायरी बंद कर दी थी। लेकिन तब मैं बिल्कुल नहीं
सोच पाई थी कि किस सन्दर्भ में ये पंक्तियाँ उसके मन में उपजी
होंगीं! किसी से प्रेम किया होगा और क्या! ऐसा ही तो हम सोच
लेते हैं न! तब एक पूरा समय-चक्र बाकी था जो मुझसे उसकी पहचान
कराता।
जब मैं हॉस्टल में उसकी रूममेट बनकर उसके कमरे में आई तो शुरू-
शुरू में बस इतना ही जान पाई थी कि वह अपनी माँ से बेहद प्यार
करती है। अपनी टेबल पर उसने माँ की तस्वीर सजा रखी थी जिसमें
वह अपनी माँ के बराबर में खड़ी हँस रही थी। उसकी शकल अपनी माँ
से बेहद मिलती थी। माँ की ही तरह सुन्दर थी वह! |