मालवा
का लोकनाट्य माच
डॉ. शिवकुमार माथुर
भारत
की पारंपरिक लोकरंग शैलियों में मध्यप्रदेश के
प्रतिनिधि लोकनाट्य मानवा के माच का विशिष्ट स्थान है।
माच की उत्स भूमि उज्जयिनी है और प्रसार क्षेत्र
मालवा। मालवा चंबल, बेतवा और नर्मदा नदियों के बीच बसा
है। इसके अंतर्गत उज्जैन, इंदौर, धार, रतलाम, मंदसौर,
शाजपुर, राजगढ़, देवास और सिहोर जिले आते हैं। इसके
अतिरिक्त गुना, विदिशा, भोपाल और होशंगाबाद जिले के
कुछ भाग भी मालवा से जुड़े हुए हैं। माच मंच का तद्भव
रूप ही नहीं एक रुढ़ शब्द है। माच अर्थात् ऊँचे और
खुले मंच पर अभिनीत की जाने वाली नाट्य प्रस्तुतियाँ।
माच की नाट्य प्रस्तुतियों को खेल कहते हैं और अभिनय
को खेलना।
माचकारों की परंपरा-
माच के आदि प्रणेता हैं जयसिंहपुरा, उज्जैन के गुरु
बालमुकुंद जी। गुरु बालमुकुंद जी बहुमुखी प्रतिभा के
धनी थे। उन्होंने माच के १६ नाटकों की रचना की, जिसमें
से १० का प्रकाशन हो चुका है। वे कुशल अभिनेता, गायक,
और निर्देशक थे। माच के खेलों के मुक्य पात्र की
भूमिका वे स्वयं निभाते थे। गुरू बालमुकुंद ने अपने
तांत्रिक मिभ सुखराम यति और मुकुन्दराम सेठ के सहयोग
से माच के खेलों की ऐसी धूम मचा दी कि उज्जैन, रतलाम,
मन्दसौर और शाजापुर दि शहरों और अनेक गाँवों में भी
माच मंडलियां बन गईं। उज्जैन में ही उस्ताद कालूरामजी
ने दौपतगंज वाले माच के अखाड़े की नींव डाली और २०
खेलों की रचना की जिनमें १२ खेलों का प्रकाशन हो चुका
है। उज्जैन के बेगमपुरा मोहल्ले में गुरु रामकिशुन जी,
नयापुरा में गुरु राधा किशनजी और अब्दालपुरा में गुरु
फकीरचंद जी ने अपनी-अपनी प्रतिभी अनुसार माच के नये
नये खेल रचे और मंचित किया। उज्जैन जिले के तहसील
कस्बे बड़नगर के गुरू शिवजीरामजी और उज्जैन जिले के
ग्राम मंगरोला के गुरु चुन्नीलाल ने माच परंपरा को सबल
बनाया। आधुनिक समय में उज्जैन के श्री सिद्धेश्वर सेन,
जावरा (जिला रतलाम) के चम्पालाल और ग्राम मंगरोला
(जिला उज्जैन) के श्री मोहनसिंह बैस ने माच की परंपरा
को आगे बढ़ाया है। वर्तमान माचकारो में भी श्री
सिद्धेश्वर सेन सर्वाधिक लोकप्रिय और प्रतिभा सम्पन्न
माचकार हैं जिन्होंने माच के २५ खेलों की रचना की है।
माच का स्वरूप विधान-
माच खुले रंगमंच की शैली है। इसलिये माच के खेल प्रायः
गर्मी के मौसम में मालवा के शहरों और गाँवों में
आयोजित किये जाते हैं। माच मंडलियाँ प्रदर्शन की
निर्धारित तिथि से एक पखवाड़ा पूर्व मांगलिक शुभ घड़ी
में पूरे विधि विधान के साथ माच का खंब (स्तंभ) गाड़कर
अपने गुरु के हाथों पूजाविधि संपन्न करती है। तदुपरांत
लकड़ी के मजबूत खंभों और चौड़े मोटे पट्टों (तख्तों)
को लेकर १०-१२ फुट ऊँचा, पूर्व दिशोन्मुखी मंच बनाया
जाता है। मंच के चारों कोनों पर ऊँची बल्लियाँ गाड़कर
छत के रूप में चंदोवा (एक सफेद चादर) तान देते हैं।
तीनो तरफ से मंच खुला रहता है। पृष्ठ भाग में कहीं
कहीं पर्दा टांग देते हैं। अन्यथा रंगस्थली के पृष्ठ
भाग में “१२ घाट का पाट” होता है। जिस पर माच मंडली के
विश्वासपात्र कार्य कर्ता मंच सुरक्षा और सहायता के
लिये बैठते हैं। इसके बाद “टेक” का पाट होता है। जिसपर
नए युवा कलाकार टेक झेलने के लिये बैठते हैं। मंच पर
जब पात्र अपना बोल प्रस्तुत करता है तो ये नए कलाकार
इसे दोहराते हैं। इस पद्धति को टेक झेलना कहते हैं।
इसके कारण बोल प्रभावी बनते हैं और लाउड स्पीकर के
अभाव में दूर दूर तक बैठे प्रेक्षकों को पात्रों के
संवाद स्पष्ट हो जाते हैं। अभिनेता का नर्तन के दौरान
थोड़ी देर का कंठ विश्राम मिल जाता है और नये कलाकारों
को टेक झेलते हुए माच की विभिन्न रंगतों और धुनों को
सीखने का अवसर मिल जाता है। मंच के सामने तीन चार
मजबूत ऊँची बल्लियों पर पुराने जमाने में मशाल बाँधकर
प्रकाश की व्यवस्था की जाती थी। मशाल के बाद
पेट्रोमैक्स का युग आने पर पहले कोठेवाली गैसबत्ती और
बाद में लटकनेवाली गैस बत्ती काम में लाई जाने लगी।
आजकल तो गाँव गाँव में बिजली पहुँच चुकी है। अतः बिजली
के लट्टू और मरकरी ट्यूब्स लगाए जाते हैं।
मंच के बाएँ कोने में साजिन्दे अर्था ढोलक, सारंगी और
हारमोनियम वादक बैठते हैं। ढोलक माच की प्राण है। गायक
कलाकारों को बोल और नर्तन व टेक झेलने वालों के
सामूहिक स्वर संगीत ढोलक की गत पर चलते हैं। जिस तरह
नौटंकी में नगाड़ा और कत्थकली में चेंडा वाद्य की
आवाज़ खानगी पैदा करती है उसी तरह माच में ढोलक की थाप
खानगी और गत प्रस्तुति में प्राण फूँक देती है। माच की
ढोलक बजाने का अपना एक खास गुर है। रात्रि के प्रथम
प्रहर से सुबह तक अनवरत रूप से ढोलक वादन कुशल वादक ही
कर सकता है। इसलिये हर मंडली का अपना एक खास ढोलकिया
होता है। यह कला पीढ़ियों में पनपती रही है। माच की
ढ़ोलक पर ठेका थाप कहरवा चाचर दून और अद्दा आदि खूब
चलते हैं। ढोलक की भाँति सारंगी भी माच का
महत्त्वपूर्ण वाद्य है। सारंगी पर सधे और बँधे स्वरों
में माच का खेल रात भर चलता है। जब कलाकार अपने बोल के
बाद मंच पर नर्तन करता है तब उस बोल को सारंगी के
तारों से निकालकर सारंगी वादक संगीत का एक सम्मोहक जाल
बुनता है। माच की सारंगी को बजाने की अपनी एक विशिष्ट
शैली है। अन्य वाद्यों में पहले पैर से बजाया जाने
वाला पेटी का बाजा (हारमोनियम) काम में लाया जाता था,
किंतु अ सामान्य हारमोनियम पर चौथी और पाँचवीं काली से
ऊपर स्वर साधकर कलाकार कहते हैं। कुछ मंडलियाँ सेनाई
(शहनाई) और वायलिन जैसे वाद्यों का भी प्रयोग करने लगी
हैं किंतु माच मूलतः ढोलक-सारंगी का खेल है।
पूर्व रंग परंपरा
माच के खेल रात्रि के पहर से प्रारंभ होकर अंतिम प्रहर
तक चलते हैं। माच के मुख्य खेल के पूर्व कलाकार भिश्ती
बनकर भूमि पर छिड़काव करने फर्रासन बनकर जाजम (बिछाने
का स्वांग अभिनय करते हैं। नानक साईं के पंडे आकर गीत
गाते हैं। पूर्वरंग की उस पृष्ठभूमि में सिद्धों
फकीरों और नाथपंथी कनफटिये जोगियों का प्रभाव स्पष्ट
रूप से दिखाई देता है। जिनका उज्जयिनी प्रमुख केंद्र
रहा है। हाजरात विद्या में माहिर लोग अपने मंत्रबल से
मंच को बाँध लेते हैं। ताकि माच के खेल निर्विघ्न
संपन्न हो सकें। माच की विभिन्न मंडलियाँ थोड़े हेरफेर
के साथ अपनी अपनी पूर्व रंग प्रस्तुतियों द्वारा मंच
को सिद्ध कर लेती हैं। हाजरात विद्या का मंच कीबड़गट
पर सीधी प्रभाव दिखाई देता है। भिश्ती और फरासन वाले
स्वांग प्रसन्नाभिनय के पश्चात सभी कलाकार मंच पर सजधज
कर आते हैं। चूँकि माच में स्त्री पात्र का अभिनय
पुरुष कलाकार करते हैं अतः उनकी वेशभूषा और अलंकरण पर
विशेष ध्यान दिया जाता है। पक्की जरी की चुनड़ी साड़ी,
रेशमी घाघरा, लहँगा और साटन की काँचली नखशिख तक सोने
चाँदी के गहने और सोलह शृंगार से सुसज्जित पुरुष
कलाकार जब मंच पर प्रवेश करते हैं तो देखने वाले दंग
रह जाते हैं।
माच के प्रमुख पात्र अधिकांश खेलों में राजा के सिर पर
चीरा (पगड़ी) जोधपुरी कोट कमर में केशिरिया फेंटा
(दुपट्टा) सफेद मलमल की धोती और हाथों में मखमली मयान
वाली तलवार। खेल का मुख्य पात्र राजा पैरों में घुँघरू
नहीं बाँधता। उसके बाएँ हाथ में माणिक मोती की सुमिरनी
(माला) रहती है। अन्य पुरुष पात्रों में सहायक पात्र
शेरमार खान सिर पर रंगीन केशरिया साफ़ा, बदन पर अचकन,
कमर में दुपट्टा और पैरों में चूड़ीदार पायजामा पहनता
है। उसके पैरों में घुँघरू बँधे होते हैं। अन्य
पात्रों चौबदार, भालदार, भिश्ती, फरासन, नानक साईँ के
पंडे माली मालिन आदि पात्रोंचित वेशभूषा धारण करते
हैं।
मंच प्रस्तुति एवं रूढ़ियाँ
माच का मुख्य खेल रात के ९-१० बजे शुरू होता है। तब
मंगलाचरण में सभी कलाकार मंच पर आते हैं और गणपति की
वंदना करते हैं। किसी छोटे से बालक को चोल से लपेटकर
दुंदाले और सुँडाले गणपति जी का स्वाँग रचकर मंच के
बीचो बीच ऊँचे आसन पर बैठा देते हैं। माच मंडली का
मुखिया गणेश वंदना करता है। तत्पश्चात सरस्वती भैरव
भवानी आदि देवी देवताओं की स्तुतियाँ की जाती हैं और
फिर माच का मुख्य खेल शुरू होता है। खेल के मुक्य
पात्र के बाद आने वाले पात्र अपने बोलों से कथा प्रवाह
को आगे बढ़ाते हैं। माच का प्रारंभिक रूप गीति नाट्य
का रहा है। धीरे धीरे गद्यात्मक संवादों का समावेश
बढ़ता गया। पात्रों के बीच होने वाले संवाद बोल और
वार्ता कहलाते हैं। माच मुख्यतः दूहा छंद और माच के
बोल विभिन्न रंगतों में निबद्ध होते हैं। जैसे रंगत
छोटी रंगत बड़ी दोहरी, इकहरी, हलूर, रंगत रांझे की,
रंगत, चलत आदि। शास्त्रीय राग रागिनियों में राग
कलिंगड़ा, आसावरी, सोरठ मांड, पीलू और भैरवी के साथ
होली फाग रसिया गणगौर कजरी बधावा मामेरा, आदि मालवी
लोकसंगीत के समावेश से माच का सांगीतिक स्वरूप विरल और
विशिष्ट है।
माच के खेलों में मालवा का लोक जीवन प्रतिबिंबित है।
यद्यपि माचकारों ने धार्मिक पौराणिक और सामाजिक
कथानकों पर अनेक खेलों की रचना की है जैसे सत्यवादी
राजा हरिश्चंद्र, राज राजभर्तृहरि, गोपीचंद, भक्त
ध्रुव, भक्त प्रहलाद, नरसिंह मेहता, मैना सुंदरी, भक्त
पूरनमल, आदि प्रेमाख्यानों पर आधारित शृंगार परक माच
के खेल डोला मारुनी, सुद्ध बुद्ध सालंगा हीर रांझा,
निहालदे सुल्तान, नागजी दूधजी, नल दमयंती, आदि खेल भी
काफ़ी लोकप्रिय हुए। माच के लगभग डेढ़ सौ खेलों की
जानकारी मिलती हैं। इनमें से अधिकांश हस्तलिखित हैं।
माच के प्रेक्षक की कल्पनाशक्ति अद्भुत और बेजोड़ होती
है। खेल का नायक अथवा कोई भी पात्र ढोलक की एक विशेष
गत पर मंच पर चार पाँच चक्कर लगाकर मीलों लंबा सफर तय
कर लेता है। सई सई बहादुरों वाली आवाज़ लगाकर टेक
झेलने वाले खेल में स्थान और दृश्य परिवर्तन की सूचना
दे देते हैं। खेल के मुख्य पात्र को यदि कुछ कारणवश
मंच पर से जाना पड़े तो उसकी तलवार अथवा मुँदड़ी लेकर
अन्य कलाकार मुख्य पात्र की भूमिका निभाने लग जाते
हैं। यही स्थिति अन्य पात्रों की भी होती है। इसी तरह
घूँघट की ओट में स्त्री पात्र का अभिनय करते हुए पुरुष
कलाकार की भरी भरी मुँछें भी कभी कभी दिख जाएँ तो माच
के दर्शक को कोई रसाघात नहीं होता।
माच की आधुनिक कृतियों में सामाजिक और आर्थिक समस्याओं
पर भी नये नये खेल रचे गए हैं। भूदान आंदोलन पर आधारित
“धरती को दान” और नवनिर्माण विषय “उगता सूरज” तथा
परिवार नियोजन की पृष्ठभूमि पर आधारित भगवान की देन
जैसी माच कृतियां इस बात का प्रमाण हैं कि मालवा का यह
लोकमंच समय के साथ कदम मिलाकर चलता रहा है।
मालवा का माच रंग कर्म की चुनौतियों और प्रतिस्पर्धाओं
के बीच पनपी एक स्वतंत्र लोकरंग शैली है। लगभग २ सौ
वर्षो से अधिक समय से प्रचलित मालवा के इस लोकमंच पर
नए नए प्रयोग होते रहे हैं। और उसके परिणाम स्वरूप माच
कई पीढ़ियों तक लोक जीवन में आकर्षण का केंद्र बना हुआ
है। राजाश्रय की तुलना में लोकाश्रय के कारण माच ने
संपूर्ण मालवा में लगभग २०० से २५० वर्षों से अपने रंग
साम्राज्य का सिक्का जमाए रखा है।
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अक्तूबर २०१० |