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साहित्यिक निबंध

मुक्तछंद के प्रथम कवि महेश नारायण
देवेंद्र चौबे


मुक्त छंद के पहले कवि महेश नारायण (१८५८-१९०७) का नाम बहुत कम लोग जानते हैं। वे हिंदी की खड़ी बोली तथा अँग्रेजी के विद्वान थे। उन्होंने ऐसे समय में खड़ी बोली के विकास का काम किया जब केवल ब्रजभाषा या अवधी में ही कविताएँ लिखी जाती थीं और खड़ी बोली को कविता की भाषा नहीं समझा जाता था। खड़ी बोली के विकास के काम में उन्हें बहुत सी कठिनाइयों और विरोध का सामना करना पड़ा लेकिन वे डिगे नहीं।

महेश नारायण के पिता मुंशी भगवतीचरण संस्कृत और फारसी के विद्वान थे। तथा उन्होंने महेश नारायण को शुरू से ही ऐसा वातावरण प्रदान किया कि बचपन से ही उनके अंदर कुछ कर गुजरने की चाह बनी रही। पटना से एंट्रेंस की परीक्षा पास करने के बाद, वह उच्च शिक्षा के लिये कलकत्ता चले गए लेकिन बीए की पढ़ाई बीच में ही छोड़कर वे वापस अपने बड़े भाई गोविंदचरण के पास पटना आ गए जहाँ उन्होंने बिहार टाइम्स और कायस्थ गजट नामक पत्रों का प्रकाशन किया। इन दोनो पत्रों का उन्होंने विदेशी शासन के विरुद्ध हथियार के रूप में इस्तेमाल किया तथा बिहार टाइम्स में यह नारा स्पष्ट रूप से प्रकाशित किया कि बिहार बिहारियों का है और इसकी शिक्षा प्रणाली बिहारियों की सुविधा के अनुरूप होनी चाहिये। उन्होंने सरकार पर इस बात के लिये दबाव डाला कि हिंदी बिहार के सभी बच्चों की शिक्षा का माध्यम हो। परिणामतः धीरे धीरे वह प्रशासन और सरकार की निगाह में आ गए। तथा पहले तो डिप्टी मजिस्ट्रेट बनने का लालच दिया गया फिर तरह-तरह से परेशान किया गया। लेकिन वे झुके नहीं तथा अपना आंदोलन जारी रखा। उन्होंने हिंदू और मुसलमान छात्रो के लिये क्रमशः हिंदी संस्कृत और अँग्रेजी तथा हिदी फारसी और अंग्रेजी त्रिभाषा फार्मूला की परिकल्पना की। तथा इस बात पर जोर दिया कि भाषा व्यक्ति की अस्मिता और अपने समाज की पहचान होती है इसलिये उससे व्यक्ति को अलग नहीं किया जा सकता है।

महेश नारायण ने हिंदी और अँग्रेजी दोनों में अनेक निबंधों और कविताओं की रचना की है। लेकिन उनकी रचना के केन्द्र में आम आदमी के जीवन की समस्याएँ ही रहीं। तथा इसी क्रम में उन्होंने समाज और राष्ट्र की समस्याओं को उठाया। हिंदी भाषी जनता की अस्मिता के लिये उन्होंने लगातार हिंदी की वकालत की तथा अपने द्वारा संपादित पत्रों के संपादकीय में भारतीय राष्ट्रीयता के सवाल को उठाया। सन १८८१ में २३ वर्ष की अवस्था में उन्होंने खड़ी बोली हिंदी में स्वप्न नामक एक कविता की रचना की। जिसका प्रकाशन पटना से प्रकाशित बिहार बंधु में १३ अक्तूबर १८८१ से १५ दिसम्बर १८८१ तक धारावाहिक हुआ था। यह रचना सूर्यकांत त्रिपाठी निराला की जुही की कली से प्रायः ३६ वर्ष पूर्व प्रकाशित हो चुकी थी। इस कविता के प्रकाशन ने तत्कालीन हिंदी कविता के इतिहास में हलचल मचा दी तथा भारतेंदु मंडली के लेखकों और उस समय के भाषाविदों की इस राय को झुठला दिया कि खड़ी बोली में कविता लिखी ही नहीं जा सकती है।

समय भाषा विज्ञान के क्षेत्र में खड़ी बोली को लेकर जिस तरह की हलचलें मची हुई थीं तथा उसकी स्वीकृति अस्वीकृति का दौर चल रहा था, उसमें इस प्रकार के नये प्रयोग की स्वीकृति स्वाभाविक नहीं थी। कविता की भाषा ब्रज या अवधी थी तथा भारतेंदु हरिश्चंद्र तथा उनके समकालीन साहित्यकार उस समय तक यही मानते थे कि खड़ी बोली हिंदी कविता के लिये उपयुक्त नहीं है। अपने निबंध "हिंदी भाषा" में भारतेंदु हरिश्चंद्र इस राय को प्रकट कर चुके थे कि यद्यपि पश्चिमोत्तर देश में ऐसे नगर हैं जहाँ खड़ी बोली ही मातृभाषा है। फिर भी ब्रज भाषा में ही कविता करना उत्तम होता है, और इसी से सब कविता ब्रज भाषा की ही उत्तम होती हैं। अपने अंतिम समय में ही भारतेंदु ब्रज भाषा के इस मोह से मुक्त हो सके थे।

महेश नारायण की इस कविता के प्रकाशन के बाद भी इस प्रकार की चर्चाएँ होती रहीं तथा तत्कालीन परिस्थितियों और ब्रजभाषा के प्रेम ने साहित्य की दुनिया में महेश नारायण के इस प्रयोग को कोई प्रोत्साहन नहीं मिला। परिणाम यह हुआ कि खड़ी बोली हिंदी की यह लंबी और मुक्त छंद की प्रथम कविता दब गई तथा इतिहास में खोकर रह गई। इस कविता के खो जाने के बावजूद खड़ी बोली काव्य आंदोलन विकास के सोपान तय करता रहा। उसे मुजफ्फरपुर के अयोध्याप्रसाद खत्री इसके लिये निरंतर प्रयत्नरत रहे। इसके अतिरिक्त विदेशी विद्वान ग्रियर्सन और बनारस के बाबू हरीश्चंद्र ने हिंदी की खड़ी बोली के विकास और खड़ी बोली में कविता लिखने के पक्षधर रहे।

महेश नारायण की कविता स्वप्न एक फंतासी पर आधारित है, जिसमें एक युवक और युवती की प्रेमकथा तथा युवती की सौतेली माँ का छल प्रपंच साथ साथ चलता है। सौतेली माँ सपत्ति के लालच में युवती की विवाह एक बूढ़े से कर देती है तथा उसके मरने के बाद उसकी पूरी धन संपत्ति पर कब्जा कर लेती है। युवती विधवा होकर अपने पहले प्रेमी की खोज में निकल पड़ती है और ज्यों ही उसे प्राप्त करती है त्यों ही क्रूर पिता उसे घुमाकर शून्य में फेंक देता है। लड़की का सपना टूट जाता है और इस प्रकार इस कविता का नाटकीय अंत होता है।

भाषा शिल्प की दृष्टि से यह कविता खड़ी बोली में लिखित अपने समय की सबसे लंबी कविता ही नहीं है, बल्कि हिंदी कविता के इतिहास में मुक्तछंद की प्रथम कविता भी है। इसमें कवि ने तत्सम और अरबी फारसी के शब्दों के व्यवहार के साथ ही वार्तालाप की अनौपचारिक शैली का भी प्रयोग किया है। बिंबों और प्रतीकों के माध्यम से इस कविता में कवि  ने भारतीय समाज में व्यापत अनमेल विवाह, घरेलू अत्याचार, भारत की पराधीनता और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के सार्थक मुद्दों को वाणी दी है। कविता की भाषा एकदम सरल है तथा कवि ने छोटे छोटे शब्दों और मुक्तछंदों के माध्यम से तत्कालीन समय और समाज के जीवन की धड़कनों को पकड़ने की कोशिश की है।

१८ अगस्त २०१०

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