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              बिल्ली और छींकाडॉ. गौतम सचदेव
 
 ब्रिटेन में 
					अग्रेज़ों के घरों में बिल्लियाँ तो ख़ूब मिलती हैं, लेकिन 
					छींके नहीं। छींकों का न तो रिवाज रहा है और न ही ज़रूरत। 
					बिल्लियाँ के प्रेमी उनसे खाना छिपाकर नहीं रखते, बल्कि उन्हें 
					दिल खोलकर खिलाते हैं और सीने से लगाकर रखते हैं। उन्हें अपने 
					साथ सुलाते भी हैं और अगर कुछ दिनों के लिये कहीं जा रहे हों, 
					तो उसे या तो मार्जारी वाहक मंजूषा में अपने साथ ले जाते हैं 
					या किसी के सुपुर्द कर जाते हैं। इस लिये इन लाडली बिल्लियों 
					को न तो छींके की ओर देख-देखकर तरसना पड़ता है और न ही अपने 
					भागॊं उसके टूटने का इंतज़ार करना पड़ता है। दुनिया बहुत 
					बदल गई है। भारत में भी बदल गई है। वहाँ अब दूध की नदियाँ बहने 
					के दिन गये। वैसे जब बहती थीं, तो दूध साफ़ कैसे रहता होगा? अब 
					तो लोग दूध-दही को फ्रिज में रखते हैं, जिसे खोलना कम-से-कम 
					भारत की बिल्लियों के बस की बात तो नहीं ही है। लेकिन देखिये, 
					बिल्ली के भागों छींका टूटा लोकोक्ति है कि बदलने का नाम ही 
					नहीं ले रही। भाषाओं का स्वभाव भी अजीब होता है। एक बार जिस 
					लोकोक्ति को अपना लेती हैं, उसे शायद ही बदलने देती हैं। झक 
					मारकर दुनिया मुहावरे-लोकोक्तियों को छोड़कर आगे निकल जाती है 
					और अपनी हिन्दी की तरह उनका प्रयोग करना ही छोड़ देती है। वैसे 
					एक बात ज़रूर है कि ब्रिटेन की बिल्लियाँ हैं बड़ी भाग्यशाली। 
					वे पुराने ज़माने से ही लोगों की चहेती रही हैं, इस लिये 
					अंग्रेज़ी में उनके भागों छींका टूटने जैसी भाग्यपरक लोकोक्ति 
					बन ही नहीं पाई। 
 ब्रिटेन की बिल्लियाँ बढ़िया नस्लों की यानि अपर क्लास की होती 
					हैं, बिल्कुल उसी क्लास (वर्ग) की, जिसमें बड़े-बड़े शाही और 
					ख़ानदानी रुतबे वाले अमीर, लॉर्ड और बैरन आदि होते हैं। भारतीय 
					रुतबे के हिसाब से ख़ानदानी रईस। ब्रिटेन की बिल्लियाँ भारतीय 
					बिल्लियों की तरह मारी-मारी भी नहीं फिरतीं और न ही पंजाबियों 
					के कहने के मुताबिक़ घर-घर का भेद लेती फिरती हैं। अगर घर से 
					बाहर निकलती हैं, तो ज़्यादा से ज़्यादा अगल-बगल के घरों में 
					ही ताक-झाँक करती हैं और ठुमकती हुई लौट आती हैं। उन्हें 
					विटामिन खिलाये जाते हैं, बीमारियों से बचाव के टीके लगवाये 
					जाते हैं और समय-समय पर वैटरिनरी डॉक्टरों के पास ले जाकर उनके 
					स्वास्थ्य का मुआयना कराया जाता है। लोग भले ही अपने बूढ़े 
					माता-पिता को अपने साथ रखना पसंद न करते हों या उनके साथ रहना 
					न चाहते हों, लेकिन बिल्ली-कुत्ते के बिना नहीं रह सकते। 
					इन्हें वे अपने एकाकीपन और मानसिक तनाव को दूर करने का 
					सर्वोत्तम साधन समझते हैं। एक बात और, वे अपने बच्चे को 
					बिल्ली-कुत्ता इस लिये लेकर देते हैं ताकि ख़ुद परिवार नियोजन 
					कर सकें और बच्चा भाई-बहिन के अभाव में बोर न हो। मुझे मेरे 
					डॉक्टर ने सलाह दी थी कि अगर अपने ब्लड प्रेशर को नियन्त्रण 
					में रखना चाहते हो, तो नियमित रूप से दवाइयाँ तो खाओ ही, घर 
					में कुत्ता या बिल्ली भी रख लो।
 
 बिल्ली पालने की सलाह देने वाले बताते हैं कि यह हर बात में 
					कुत्ते से अच्छी होती है, क्योंकि जहाँ आपको कुत्ते को 
					नहलाने-धुलाने, साफ़ रखने और नियमित रूप से टहलाने का कष्ट 
					उठाना पड़ता है, वहाँ बिल्ली अपना ध्यान ख़ुद रखती है। वह अपनी 
					सफ़ाई भी ख़ुद ही कर लेती है। न घर में हगती है, न भूँक-भूँक 
					कर सिर खाती है और न ही कुत्ते की तरह कटखनी होती है। रॉटवाइलर 
					जैसे बेहद ख़ूँख़्वार नस्ल के कुत्ते तो सचमुच फाड़ भी खाते 
					हैं। इस लिये सरकार ने ऐसे कुत्ते रखने वालों के लिये कई कड़े 
					क़ानून बनाये हैं। ब्रिटेन में ऐसी घटनाएँ कई बार हुई हैं, जब 
					घर के पालतू कुत्ते ने अचानक मालिक के बच्चे, भाई-बहिन, 
					माता-पिता या राह चलते अजनबी पर हमला कर दिया। कई घटनाएँ तो 
					बच्चों को मार डालने की भी हुई हैं और पुलिस को उस हत्यारे 
					कुत्ते को हमेशा के लिये सुलाना पड़ा है। लेकिन ऐसा शायद ही 
					कभी हुआ है, जब किसी पालतू बिल्ली ने यह काम किया हो। वह बहुत 
					तंग किये जाने पर पंजा तो मारती है, लेकिन इससे ज़्यादा कुछ 
					नहीं करती।
 
 छायावाद के मूर्धन्य कवि सुमित्रानन्दन पन्त ने एक कविता में 
					प्रेमिका को मार्जारी कहकर याद किया है। कवियों के मन की बात 
					है। मार्जारी क्या, वे अपनी प्रेमिका को कुछ भी कह सकते हैं, 
					लेकिन शुक्र है आम लोगों की तरह वे पत्नी को कुतिया, गधी और 
					नागिन नहीं कहते। यही नहीं अगर वे सच्चे कवि हैं, तो केवल 
					कल्पना की उड़ान ही भरते हैं, गालियों की नहीं। वैसे अगर भरते 
					तो, हिन्दी भाषा काव्यात्मक गालियों से काफ़ी सम्पन्न हो जाती 
					और उन्हें शब्दकोशों में भी स्थान मिलता। कवियों की इस उपेक्षा 
					के कारण वे गालियाँ, जो बोलचाल की भाषा में तो गंदगी और 
					भ्रष्टाचार की तरह भरी हुई हैं, कोशों से एकदम नदारद हैं। मैं 
					तो यहाँ तक कहूँगा कि जहाँ हिन्दी में लाखों विषयों पर 
					पी-एच.डी. हो चुकी हैं, वहाँ गालियों के शोध पर किसी ने ध्यान 
					नहीं दिया। कहीं इस लिये तो नहीं कि गालियों पर पी-एच.डी. करने 
					वाले को गालियाँ पड़ेंगी?
 
 मिस्र के प्राचीन फ़राऊन शासकों के काल में बिल्ली को एक देवता 
					माना जाता था। उसकी मूर्ति बनाकर पूजा की जाती थी और उसके मरने 
					पर उसे ममी बनाकर स्थायी रूप से संरक्षित कर दिया जाता था। ऐसी 
					ममियाँ संसार के अनेक संग्रहालयों में देखी जा सकती 
					हैं।ब्रिटेन में बिल्लियों से प्यार तो बहुत किया जाता है, 
					लेकिन उनकी पूजा नहीं होती। होती तो यहाँ के राष्ट्रीय चिह्न 
					में शामिल शेर के अलावा सार्वजनिक स्थानों पर बहुतायत से लगी 
					शेरों की मूर्तियों के साथ उसकी यह मौसी भी अमर हो जाती।
 
 छींके के अलावा बिल्ली ने और भी कई मुहावरे लोकोक्तियों और 
					विश्वासों-अंध विश्वासों को जन्म दिया है। अब देखिये न अगर वह 
					आपका रास्ता काट जाये, तो मनहूस क़रार दे दी जाती है। बताइये, 
					क्या रास्ता केवल इन्सान की बपौती है? जिसे क़ुदरत ने पाँव 
					दिये हैं, क्या वह चलेगा नहीं और क्या उन्हें अपने सिर पर 
					रखेगा? इसी तरह से अगर आप दबे पाँव चलकर आयें, तो आपको बिल्ली 
					के पाँवों चलने वाला घोषित कर दिया जायेगा। ख़ैर, इससे शायद 
					बिल्ली ख़ुश ही होती होगी, क्योंकि इस नाते आप बिल्ली की चाल 
					की तारीफ़ भी करते हैं और अपने फ़ैशन शो में मॉडल गर्ल्ज़ से 
					कैटवॉक कराने में गर्व अनुभव करते हुए व्यापार बढ़ाते हैं।
 
 बिल्ली से जुड़ी कहानियों में मुझे सबसे प्यारी कहानी वह लगती 
					है, जिसमें चूहे बिल्ली के गले में घंटी बाँधने की तरक़ीबें 
					सोचते हैं। उन्होंने बिल्ली के दबे पाँव आने की चालाकी को 
					निरस्त करने के लिये उसके गले में घंटी बाँधने वाला जो उपाय 
					सोचा है, वह अनुपम है, लेकिन उन बेचारों की मुसीबत यह है कि वे 
					ख़ुद घंटी बाँध नहीं सकते और अगर दुस्साहस दिखाने चलें, तो 
					बिल्ली के पेट की शोभा बढ़ाते हैं। इस लिये वे इन्सान से 
					उम्मीद करते हैं कि वह उनका काम कर दे, लेकिन इन्सान को और 
					बहुत-से काम रहते हैं। सबसे पहले तो उसे चूहों का ही सफ़ाया 
					करना होता है। फिर, उसे यह सोचते रहना होता है कि वह आतंकवादी 
					रूपी बिलावों के गले में ऐसी कौन-सी घंटी बाँधे, जिससे वे दबे 
					पाँव आकर सबके परखचे न उड़ा सकें।
 
 अंग्रेज़ी में एक कहावत है कि ‘अ कैट हैज़ नाइन लाइव्ज़’, यानि 
					बिल्ली के नौ जीवन होते हैं। अगर वह आठ बार मरे, तो भी ज़िंदा 
					रहती है। इस अर्थ में बिल्ली मनुष्य से बहुत ज़्यादा दीर्घजीवी 
					हो सकती है, लेकिन बेचारी क्या करे। भगवान ने उसे आयु ही 
					अधिक-से-अधिक बीस वर्ष की दी है। वह लाख जीवेम् शरदः शतम् का 
					जाप करे, वे उसे कभी सौ वर्ष की आयु प्रदान नहीं करेंगे। शायद 
					इसी कारण वे मनुष्यों में भी गिने-चुने भक्तों को ही शतायु 
					बनाते हैं, जिनपर उन्हें विश्वास है कि वे बिल्ली जैसी आदतें 
					नहीं पालेंगे और छोटे-मोटे, निर्बल तथा कम पहुँच वाले उन 
					मनुष्यों के पीछे नहीं पड़े रहेंगे, जिन्हें वे वॉल्ट डिस्नी 
					की बालकथा टॉम एंड जैरी के जैरी नामक चूहे जैसा समझते हैं।
 
 अंग्रेज़ी में बिल्ली को लेकर और भी बहुत-सी कहावतें प्रचलित 
					हैं, जैसे बिल्ली दस्ताने पहनकर चूहे नहीं पकड़ सकती, जब 
					बिल्ली ग़ैर-हाज़िर होती है, तो चूहे खेलते हैं, बिल्ली मछली 
					तो खाना चाहती है, लेकिन पंजे गीले नहीं होने देना चाहती, उतनी 
					बिल्लियाँ ही रखिये, जितनी चूहे पकड़ सकें और किसी बिल्ली को 
					मारने के तरीक़े और भी होते हैं, सिर्फ़ क्रीम खिलाकर उसका गला 
					रूँधना ही नहीं, आदि आदि। कहावतों के अलावा अंग्रेज़ी में 
					बिल्ली से सम्बन्धित बड़े दिलचस्प मुहावरे भी हैं, जैसे बिल्ली 
					को झोले से बाहर निकालना यानि भेद खोलना, गरम छत पर बिल्ली की 
					तरह होना यानि बहुत भड़कना, बिल्ली को कबूतरों के बीच छोड़ना 
					यानि मुसीबत खड़ी करना तथा बिल्लियों और कुत्तों की तरह बरसना 
					यानि बड़े ज़ोर की वर्षा होना। इन कहावतों और मुहावरों से 
					दो-तीन बातें सिद्ध होती हैं। एक तो यह कि इंग्लैंड में चूहे 
					बहुत होते थे और इसी वजह से अंग्रेज़ सारी दुनिया में शेरगीरी 
					करने निकले। दूसरी यह कि अंग्रेज़ बिल्ली की हत्या करने को पाप 
					नहीं मानते, जैसे कि हिन्दू मानते हैं और बिल्ली के मर जाने पर 
					सोने की बिल्ली बनवाकर दान देना आवश्यक समझते हैं। तीसरी यह कि 
					अंग्रेज़ प्राचीन काल से ही बिल्ली प्रेमी रहे हैं और उन्हें 
					अपने आसपास रखकर अपनी भाषा को समृद्ध करते आ रहे हैं।
 
 क्या आप जानते हैं कि अंग्रेज़ उन औरतों को बिल्ली का दर्जा 
					देते हैं, जो चालाक और धूर्त्त होती हैं? नहीं तो जान लीजिये, 
					क्योंकि उनकी यह धारणा आपको उन मेमों से बचा सकती है, जिनपर 
					जवानी में मोहित होकर आप उनसे शादी करने पर उतारू हो जाते 
					हैं।मैंने बचपन में एक विचित्र घटना देखी थी। मैं अपनी छत पर 
					खेल रहा था कि अचानक बग़ल वाली छत पर तीन बिल्लियाँ आ गईं। 
					उनमें से एक काफ़ी मोटी, तगड़ी और डरावनी लगती थी। भूरे, 
					साँवले-से रंग की, जो शायद बिल्ली नहीं, बिलाव था। दूसरी 
					बिल्ली को वह जाने नहीं देता था। ज्योंही वह पीछे मुड़कर या 
					बग़ल से होकर निकल भागना चाहती, वह उसे गुर्राते हुए घेर लेता 
					और वह दुबक कर बैठ जाती। उस सहमी हुई बिल्ली की बड़ी मुसीबत 
					थी, क्योंकि तीसरी बिल्ली बिलाव का साथ दे रही थी और उसके आगे 
					गुर्राकर पहरेदार बन जाती थी। आख़िर उस अबला को आत्मसमर्पण 
					करना पड़ा। बिलाव उसके ऊपर सवार हो गया। मुझे उसके ऐसा करने का 
					कोई कारण समझ में नहीं आया। जब मैंने अपने पिताजी से पूछा – 
					अगर वह बिल्ली उससे खेलना नहीं चाहती थी, तो उसने उसके साथ 
					ज़ोर-जबरदस्ती क्यों की? उन्होंने मुझे यह कहकर टाल दिया – अभी 
					बहुत छोटे हो। बड़े होने पर समझ जाओगे।
 
 हिन्दी में एक कहावत है – मेरी बिल्ली मुझी को म्याऊँ। इस 
					कहावत के पीछे शायद कोई ऐसी बिल्ली रही होगी, जो अपने 
					पालक-पोषक को ही आँखें दिखाने लगी होगी, लेकिन मेरी समझ में यह 
					नहीं आता कि दूध पिलाने वाले ने मुझी को म्याऊँ क्यों कहा? 
					क्या उसे यह नहीं कहना चाहिये था कि मेरी बिल्ली मुझी को आँखें 
					दिखाती है या मुझी को पंजा मारती है। कहावत ग़लत है, लेकिन 
					भारत वालों और ख़ासकर हिन्दी वालों की यही विशेषता है। वे 
					दूसरों द्वारा चलाई गई बातों (समेत शोध कार्य) की नक़ल करने की 
					तरह ग़लत कहावतों को अपनाने में भी देर नहीं लगाते।
 
 पंजाब के लोग यह मानते हैं कि बहुत पुराने ज़माने में शेर को 
					शिकार करने की कला बिल्ली ने सिखाई थी, लेकिन वह बड़ी दूरंदेश 
					थी, इस लिये उसने उसे पेड़ पर चढ़ना नहीं सिखाया। जब शेर अपने 
					गुरु से भी तेज़ हो गया, तो उसने अपनी विद्या की उसीपर जाँच 
					करनी चाही। चूँकि बिल्ली जानती थी ऐसा होकर रहेगा, इस लिये वह 
					भागकर पेड़ पर चढ़ गई और शेर ताकता रह गया। मैं जब इस लोक 
					विश्वास पर विचार करता हूँ, तो मेरी समझ में यह नहीं आता कि 
					बिल्ली को आख़िर ऐसा आतंकवादी तैयार करने की ज़रूरत क्या थी? 
					क्या वह ख़ुद चूहे खाकर आराम से नहीं रह सकती थी?
 
 बिल्ली का यह गुणगान समाप्त करने से पहले मुझसे यह बताये बिना 
					नहीं रहा जा रहा कि मुझे कमाल अमरोही की महल फ़िल्म की वह 
					बिल्ली बहुत पसंद है, जो हीरो अशोक कुमार को अन्त तक धोखे में 
					रखती है। वह समझता है कि यह कोई मृतात्मा है, लेकिन दरअस्ल वह 
					कुछ और ही होती है। इसके बाद क्या हुआ, पर्दा स्क्रीन पर 
					देखिये....
 
                            ११ 
                            अक्तूबर 
          २०१० |