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१९. ७. २०१०

सप्ताह का विचार- शासन के समर्थक को जनता पसंद नहीं करती और जनता के पक्षपाती को शासन। इन दोनो का प्रिय कार्यकर्ता दुर्लभ है। - पंचतंत्र

अनुभूति में-
रमेशचंद्र शर्मा आरसी, चंद्रभान भारद्वाज, नवनीत शर्मा, मदन मोहन पांडे और राजकिशोर की रचनाएँ।

सामयिकी में- अपने प्रयत्नों से पानी के संकट पर विजय प्राप्त करनेवाले अल्बुकर्क के निवासियों की कहानी एलिजाबेथ रॉट से- जो सुख में सुमिरन करे

रसोईघर से सौंदर्य सुझाव- बालों में चमक लाने के लिए १ प्याला पानी मे ३ बडे चम्मच सफेद सिरका मिलाकर लगाएँ और १५ मिनट बाद धो दें।

पुनर्पाठ में- विशिष्ट कहानियों के स्तंभ गौरव गाथा के अंतर्गत १६ अप्रैल २००४ को प्रकाशित मन्नू भंडारी की कहानी-- यही सच है।

क्या आप जानते हैं? आम के उत्पादन में भारत विश्व में पहले स्थान पर है। यहाँ प्रति वर्ष २३.१ लाख हैक्टर क्षेत्र में १२.७५ मिट्रिक टन आम की खेती होती है।

शुक्रवार चौपाल- इस शुक्रवार चौपाल दुबई के इंटरनेशनल सिटी में स्थित सबीहा के घर पर हुई। चौपाल में हरिशंकर परसाईं की रचना... आगे पढ़ें

नवगीत की पाठशाला में- कार्यशाला-९ के कमल पर आधारित नवगीतों का प्रकाशन जारी है। रचनाएँ अभी भी भेजी जा सकती हैं।


हास परिहास


सप्ताह का कार्टून
कीर्तीश की कूची से

इस सप्ताह
समकालीन कहानियों में
यू.के. से महेन्द्र दवेसर की कहानी सुरभि

कहानियों सी कहानी नहीं हूँ मैं! मगर कहानी बन गयी हूँ, और कुछ कर नहीं सकती! जज साहिब ने प्रेस पर से रिपोर्टिंग की पाबन्दी क्या हटाई, मैं तो वेश्याओं से भी बदतर हो गयी । वेश्याएँ बिकती हैं तो बन्द कमरों में नग्न होती हैं। मैं तो नंगी की जा रही हूँ खुले आम– सड़कों पर, दुकानों में, किसी की भी गोद में, मेज़ पर, बिस्तर में . . . कहीं भी! मैं पढ़ी जा रही हूँ, कही जा रही हूँ, सुनी जा रही हूँ!! पत्रकार तो वैसे ही बढ़ा चढ़ाकर, नमक मिर्च लगाकर लिखते हैं। रही सही कसर लोग पूरी कर देते हैं। जितने कलम उतनी घातें, जितने मुँह उतनी बातें। जब किसी के हाथ में पत्थर आ जाता है, तो सामने वाला घायल हो जाता है। उसकी हत्या तक हो जाती है। मैं किसी के हाथ का पत्थर नहीं हूँ जो किसी को चोट पहुँचा सकूँ। पत्थरों के हाथों में है मेरा भाग्य-भविष्य! एक पत्थर का आदेश आयेगा और मैं दुनिया की नज़रों से ओझल...  पूरी कहानी पढ़ें।
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प्रेम जनमेजय का व्यंग्य
राधेलाल का कुत्ता
 
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वरिष्ठ चित्रकार जे.पी.सिंघल से प्रभु जोशी की भेंट
कला मेरे लिये कुरुक्षेत्र ही थी
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नवीन पंत का आलेख
लोकमान्य तिलक की कानूनी लड़ाइयाँ
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कनीज भट्टी की कलम से
दो विदेशियों की प्रेम कहानी भारत में

पिछले सप्ताह

सुरेन्द्र सुकुमार का व्यंग्य
जूतों का महत्त्व
 
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राधेश्याम का आलेख
विश्व का पहला उपन्यास- गेंजी की कहानी
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अचला दीप्ति कुमार का संस्मरण
मेरा न्यायधीश
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विनीता शुक्ला और दीपिका जोशी से जानें
वट सावित्री पर्व के विषय में

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समकालीन कहानियों में भारत से
रमणिका गुप्ता की कहानी ओह ये नीली आँखें

'ओह ये नीली आँखें!`
मैं कुछ बदहवास, कुछ हताश-सी बुदबुदा उठी। दरअसल रेखा चिल्ला रही थी कि किचन में घुस कर बिल्ली सारा दूध पी गयी है। वह उसे खदेड़ते हुए मेरे बेडरूम तक ले आई थी। मैंने उसे कहा, 'इसे मारो मत।`
एक टुकड़ा टोस्ट का तोड़ कर मैंने जमीन पर फेंक दिया था। बिल्ली ने उसे खाकर पुन: मेरे हाथ में बचे टोस्ट पर अपनी नीली आँखें गड़ा दीं। जैसे ही मेरी आँखें उसकी आँखों से टकराईं मुझे बरसों पहले बंबई से मद्रास की यात्रा करते समय नीली आँखों वाला सहयात्री याद आ गया। वह इस बिल्ली की तरह ही मेरी देह को ललचायी आँखों से टकटकी लगाए रातभर देखता रहा था। वैसे मुझे बिल्ली का यों कातर होकर ताकना अजीब-सा लग रहा था!... पूरी कहानी पढ़ें

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प्रकाशन : प्रवीण सक्सेना -|- परियोजना निदेशन : अश्विन गांधी
संपादन, कलाशिल्प एवं परिवर्धन : पूर्णिमा वर्मन
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सहयोग : दीपिका जोशी

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