मेरा न्यायधीश
--अचला
दीप्ति कुमार
हम लोगों के मानस-पथ से न
जाने कितने लोग गुज़रते हैं। कुछ लोग हल्के-हल्के कदम उठाते
हुये, कुछ ऐसे ढंग से कि उनके पदचिह्ण ढूँढे से भी नहीं मिलते,
कुछ क़दम जमा-जमा कर हर पदक्षेप के साथ अपनी पहचान बनाते हुए।
डेविड इस दूसरी श्रेणी के लोगों में एक था। आज सालों बाद भी
उसकी याद मेरे मन में ताज़ा है और वह अपराधबोध भी जो उसकी याद
के साथ अखण्ड रूप से जुड़ा है।
हम शिक्षकों को सिर्फ़ दो ही तरह के विद्यार्थी छाप छोड़ने वाले
प्रतीत होते हैं - बहुत प्रखर बुद्धि और अच्छे व्यवहार वाले या
मन्द बुद्धि व उद्दंड व्यवहार वाले। अभाग्यवश डेविड की गिनती
इस दूसरे श्रेणी के विद्यार्थियों में होगी। पूत के पालने से
ही दिखने वाले पाँवों की तरह अपने भावी विद्यार्थियों के
रंग-ढंग हम लोगों को किंडरगार्टन से ही पहचानने में कठिनाई
नहीं होती। कब किसने अपना आधा सेब अपने मित्र को खिला पाने के
आग्रह में उसके मना करने पर भी उसके मुँह में इस तरह ठूँसा कि
उसका साँस लेना भी दूभर हो गया, कब किसने क्लास में अपने सामने
बैठी लड़की के बाल समान रूप से कटे न देख कर चुपचाप कैंची से
काट कर कुछ ऐसे बराबर किये कि उसका सर ब्रश की तरह दिखने लगा,
व किसने किसी से झगड़ा हो जाने पर दूसरे बच्चे को घोड़ा समझने की
ग़लतफ़हमी में उसके मुँह पर स्किपिंग रोप की लगाम लगा कर सवारी
गाँठ ली, ये क़िस्से हम लोगों को शुरु से ही सुनने को मिलते
हैं। डेविड के बारे में भी तरह की बातें हम लोग सुनते रहते थे।
पहली कक्षा में आने पर तो उसकी उद्दंडता और भी बढ़ गई। रोज़ ही
तोड़-फोड़ या नई शरारत करना उसके कार्यक्रम का एक आवश्यक अंग बन
गया था।
एक दिन उसकी शिक्षिका ने हाँफ़ते-हाँफ़ते स्टाफ़रूम में प्रवेश
किया। गुस्से में मेज़ पर किताबें फेंक कर पहले तो डेविड को
उसने एक ऐसी जगह भेजने की व्यवस्था की जिसकी भौगोलिक स्थिति के
बारे में कोई ज्ञान नहीं है (टू हेल...), फिर उत्तेजित स्वर
में बताया कि कक्षा में शरारत करने के कारण जब उसने डेविड को
कोने में अकेले बैठने का आदेश दिया, तो उसने ’फ़...आफ़’ का धीमे
पर श्रवण योग्य स्वर में पाठ करना शुरु कर दिया। इस अक्षम्य
अपराध के कारण जब उसे प्रिंसिपल के पास ले जाया गया, तो उसने
भोला सा मुँह बना कर कहा, " मेरे सामने मेज़ पर ग्लोब रखा था,
उसमें मुझे अफ़्रीका देश दिखाई दिया। मुझे ये नाम हमेशा भूल
जाता है, इसीलिये मैं बार बार उसी नाम को दोहराया था, मैंने वह
नहीं कहा जो टीचर कह रही है।"
उस शिक्षिका को जहाँ डेविड पर क्रोध था, वहीं प्रिंसिपल पर भी
खीझ थी, जिन्होंने ’संदेह का लाभ’ देते हुये डेविड को कड़ी सज़ा
नहीं दी थी। स्वभावत: यह, शिक्षिका को अपनी श्रवण शक्ति पर
आक्षेप लगा। हम सब जहाँ डेविड की उद्दंडता पर क्षुब्ध हुये,
वहीं, उसकी तुरत बुद्धि से चमत्कृत भी!
इस तरह के बच्चों को, साधारणत: सामान्य कक्षा में नहीं रखा
जाता। डेविड को भी विशेष कक्षा (बिहेवियर माडिफ़िकेशन क्लास)
में भेजने की व्यवस्था होने लगी। स्कूल का सत्र समाप्त होने से
पहले, प्रिंसिपल ने मुझे बुलाया और कहा, " डेविड एक तीक्ष्ण
बुद्धि का बच्चा है। उसकी पारिवारिक स्थिति ऐसी रही है कि उसका
भावनात्मक विकास ठीक से नहीं हो सका है। इतने छोटे से बालक को
बाहर भेजने से पहले हम लोगों को उसे एक मौक़ा और देना चाहिये।
तुम नये सत्र में, जब वो दूसरी कक्षा में आये, तो उसे अपने
क्लास में रख कर कुछ दिन देखना। यदि परेशानी हुई, तो हम उसे
फ़ौरन ही स्थानान्तरित कर देंगे। लिखा-पढ़ी तो हो ही चुकी है। "
अगला साल किस तरह शुरु होगा ये सोचते ही मेरा मन डूबने लगा।
यंत्रचालित की तरह उसकी पारिवारिक फ़ाइल हाथ में पकड़े मैं अपने
कमरे में आई। धीरे-धीरे, जब उसके पन्ने पलटे, तो पाया कि मन
में उभरे आक्रोश को हटा कर सहानुभूति की भावना मेरे अंदर जाग
रही है।
डेविड अपनी माता-पिता की दूसरी संतान था। उसके जन्म के कुछ
वर्षों बाद ही पिता उसके जीवन से ऐसे लुप्त हुये कि फिर उनका
पता नहीं चला। डेविड की मां का मस्तिष्क भी बहुत संतुलित नहीं
था। कुछ वर्षों वो एक दूसरे व्यक्ति के साथ रही। डेविड को उससे
भी बहुत स्नेह हो गया था। पर एक कार की धोखाधड़ी के सिलसिले में
वह और डेविड का बड़ा भाई दोनों पकड़े गये। अब वह व्यक्ति जेल में
है और डेविड का भाई ग्रूप होम ( सुधार गृह) में। उनसे डेविड का
मिलना नहीं होता है। डेविड की मां जब संतुलित होती है, तो
डेविड उसके साथ रहता है वरना उसे विभिन्न फ़ास्टर केयर ( पालक
गृहों ) में भेज दिया जाता है। उसके मन में असुरक्षा की भावना
घर कर गई है और यही भावना, उसके उद्दंड व्यवहार का कारण है।
ये सब तो ठीक, पर इस बच्चे को सितंबर से अपनी कक्षा में रखना
मेरे लिये एक चुनौती ही थी। लंबे अनुभव के अलावा, इस स्थिति से
सामना करने के लिये, मेरे पास और कोई भी हथियार नहीं था। डेविड
को मैंने स्कूल में कई बार देखा था। लंच रूम से निकाले जाने पर
दरवाज़े के पास बैठ कर आराम से खाना कहते हुये, जिम कक्षा से
निकाले जाने पर दीवार से टिक कर उदासीन भाव से बाहर देखते
हुये। पर उस दिन यार्ड ड्यूटी के दौरान उसे मैंने ध्यान से
देखा- पहली बार! मुझे तो वो बड़ा भोला-भाला, सुंदर सा बच्चा
लगा। गहरी नीली आँखें, सुनहरे बाल, तीखे नक्श, दुबला-पतला छोटा
डील-डौल, साफ़-सुथरे कपड़े पहने हुये। बस आँखों में कुछ उदासीनता
सी थी व चेहरे पर एक अस्वाभाविक गंभीरता। दूसरे बच्चों के साथ
खेलते मैंने उसे नहीं देखा, न ही उन्हें तंग करते हुये।
मई में बारिश के कारण, मैदान में जगह-जगह पानी भर जाता है।
उन्हीं जगहों में बैठ कर वह अकेला एक दो खिलौने की कारों से
खेलता रहता था। यदि सितंबर में उसे मेरी कक्षा में रहना है तो
अभी से उसका मन जीतने का प्रयास करना चाहिये, ये सोच कर एक दिन
दो तीन छोटी-छोटी कारें मैंने उसके पास रख कर कहा, " ये मेरे
पास बेकार पड़ी थीं, तुम इनसे खेल सकते हो।" डेविड ने उन पर कोई
ध्यान नहीं दिया। मशीनी ढंग से धन्यवाद दे कर वह अपनी ही कारों
से खेलता रहा। मेरी दी हुई कारें उपेक्षित सी एक ओर पड़ी रहीं।
मेरे मन पर हल्की सी चोट लगी। पर तभी ध्यान आया, जब एक ऐसे
बच्चे के रिजेक्शन या अस्वीकृति से जिसका मेरे जीवन में कोई
स्थान नहीं है, मुझे दुख हो रहा है, तो डेविड की मन:स्थिति
कैसी होगी जिसके कोमल मन पर कितने ही आघात उसके प्रिय
व्यक्तियों ने दिये हैं। स्वाभाविक ही है कि वह किसी के भी
स्नेहमय व्यवहार को शंका की दृष्टि से देखता है।
सितंबर में कुछ आशंका के साथ मैंने डेविड का कक्षा में स्वागत
किया। बड़े निस्पृह भाव से एक कोने का डेस्क चुन कर वह चुपचाप
बैठा इधर-उधर देखता रहा। उसकी दृष्टि की वीतरागता ने मुझे
विचलित सा कर दिया। जेल बदले जाने पर कैदियों की दृष्टि में
ऐसी ही उदासीनता रहती होगी। एक स्नेह की लहर मन में उमड़ी। लगा
उसे समझाऊँ, कहूँ, " बच्चे! तुम्हारी ज़िंदगी तो अभी शुरु ही हो
रही है। कितना कुछ तुम्हारे आगे है। अभी से ऐसी हताशा कैसी? "
संभवत: स्नेह की उसी डोर ने मुझे उससे बाँधे रखा वरना अपनी ओर
से तो उसने पूरा प्रयास किया कि मैं अपनी कक्षा से उसे निकाल
दूँ। देर से आना, चीज़ें तोड़ना-फोड़ना, काम न करना, मुँहफट जवाब
देना, उसके नित्य के काम थे। रूलर को तोड़ताड़ कर उसने पेंसिल की
आकार का बना दिया था, पेंसिल को कुतर-कुतर कर रबर के आकार, और
रबर का काम तो वह उँगलियों से ही चला लेता था। हाँ, इतना ज़रूर
था कि वो दूसरे बच्चों को तंग नहीं करता था। उसकी लड़ाई मानो
वयस्कों से ही थी। किसी भी बच्चे को किसी भी तरह की तकलीफ़
पहुँचने पर डेविड का व्यवहार उसके प्रति बहुत ही प्यार भरा
होता था। उसके स्वभाव के इसी पहलू ने मुझे आश्वासन दिया कि यह
केस पूरी तरह से हारा नहीं गया है।
डेविड के उत्पात के ढँग अनोखे थे। कभी कीचड़ से भरे बूटों से
लंबा रास्ता चुन कर कक्षा में पड़े कालीन पर पैर जमाता हुआ
धीरे-धीरे वह अपने डेस्क तक पहुँचता। डाँटने पर वह भोलेपन से
उत्तर देता, " आपका ही तो नियम है कि नंगे पैरों क्लास में
नहीं आना चाहिये क्योंकि कोई पिन चुभ सकता है। आज कक्षा के
जूते मैं घर पर ही भूल गया। " कभी कापी में कोई
X देख कर उस
ग़लत सवाल को वह झुँझला कर इतनी ज़ोर से मिटाता कि दूसरे पन्ने
त्राहि-त्राहि कर उठते और इरेज़र उस पन्ने को पार कर डेस्क की
चिकनी सतह तक पहुँच जाता। कभी वह खाने का डिब्बा इस बेपरवाही
से शेल्फ़ पर फेंकता कि वह खुल जाता, फ़्लास्क लुढ़क कर दुग्धधारा
बरामदे में प्रवाहित करने लगता और सैंडविच उछल कर पास खड़े किसी
बच्चे के सिर का आभूषण बन जाता।
अपने डेस्क पर वह एक बाल्टीनुमा डिब्बे में कई दर्जन रंगीन
पेंसिलें रखता था। जब भी मैं सारे बच्चों का ध्यान कठिनाई से
अपनी ओर खींच कर कोई महत्त्वपूर्ण पाठ पढ़ाना शुरु करती, न जाने
किस मंत्र से बिंध कर वह डिब्बा डेस्क के कोने तक पहुँच जाता
और फिर मानो किसी अनजान वायु के धोखे से वह ज़ोर की आवाज़ के साथ
ज़मीन पर गिर पड़ता। दर्जनों पेंसिलें चारों ओर बिखर जातीं। सारे
बच्चे उन्हें उठाने को दौड़ते और डेविड बड़े आराम से उन्हें
धीरे-धीरे कलर-कोड के हिसाब से वापस डिब्बे में जमाता। जब तक
ये काम ख़त्म होता, मेरा रक्तचाप इतना बढ़ जाता कि पढ़ाने का
उत्साह ही ख़त्म हो जाता।
डेविड के बुद्धिशाली होने में कोई संदेह नहीं था। हाँ, काम
करने में विशेषत: लिखित कार्य में उसकी कोई रुचि नहीं थी। अपने
काम की नन्ही सी त्रुटि भी उसे उससे विरत करने के लिये काफ़ी
थी। पश्चिमी शिक्षा पद्धति में ऐसे बच्चों को उत्साहित करने के
बहुत तरीक़े हैं। उनमें से बहुतों का प्रयोग करके ही डेविड से
कुछ काम करवाया जा सका।
डेविड को अनुशासन में रखने के लिये मैंने उसका डेस्क अपनी मेज़
के साथ ही लगा लिया था। उन कुछ महीनों के समय में हममें कितने
झगड़े हुये, कितने ही वाद विवाद! उन सब के बारे में लिखने बैठूँ
तो शायद एक नये महाभारत की रचना हो जाये। संक्षेप में इतना ही
कि धीरे-धीरे डेविड के उत्पात कम होने लगे। मार्च-अप्रैल तक
डेविड और मेरे संबंध एक स्नेह के बंधन में बँध चुके थे। यह
क्रिया बड़ी धीमी व कष्टप्रद थी। हाँ, जिस गति से डेविड ने मेरे
हृदय पर अधिकार जमाना शुरु किया, उसी तरह मेरी मेज़ पर भी। अपनी
सीमा का अतिक्रमण करके पहले उसकी रंगीन पेंसिलों की बाल्टी
मेरी मेज़ पर आई। वहाँ से उसके गिरने की संभावना कम थी इसलिये
मैंने उसे अनदेखा कर दिया। धीरे-धीरे उसकी किताबें, हाकी के
कार्ड, व छोटे-मोटे खिलौने भी मेरी मेज़ पर जम गये। अपना डेस्क
वह बहुत साफ़-सुथरा रखता था। बस मेरी मेज़ की ही दुर्दशा थी।
डेविड कभी भी दूसरे बच्चों को तंग नहीं करता था। यह बात मैं
पहले भी कह चुकी हूँ। एक दिन रिसेस के समय दीवार के सहारे खड़ा
वह अपना ’ग्रनोला बार’ बड़े चाव से खा रहा था। तभी एक बड़े लड़के
बिली ने वह बार छीनना चाहा। डेविड के आपत्ति करने पर उसने उसे
ऐसा धक्का दिया कि डेविड का सर दीवार से जा टकराया। डेविड अपने
हाथ से आँसू पोंछता उसे बुरा-भला कहता रहा पर बिली पर उसका कोई
असर नहीं हुआ। इस घटना की साक्षी मैं थी। अत: दोनों को साथ ले
कर मैंने ये बात प्रिंसिपल को बताने का फ़ैसला कर लिया।
दोनों को प्रिंसिपल के आफ़िस के बाहर छोड़ कर मैंने उनको सारी
घटना बताई। " डेविड को आपसे हमेशा सज़ा ही मिली है। आज उसका
पक्ष ले कर आप बिली को सज़ा दें।" मैंने कहा " डेविड भी तो देखे
कि जो व्यवस्था नियम तोड़ने पर दोषी को सज़ा देती है, वही नियम
के साथ रहने वाले को न्याय भी दिलाती है, चाहे वह कोई भी क्यों
न हो। " प्रिंसिपल ने मामले की गंभीरता को समझते हुये उन दोनों
को अंदर बुलाया।
डेविड की आँखें रोने के कारण लाल थीं, माथे पर गूमड़ निकल आया
था। बिली भी कुछ भयभीत सा था। सारी घटना डेविड ने बताई। झूठ
बोलने की कोई संभावना न देख कर बिली ने अपना अपराध स्वीकार कर
लिया। गवाह के रूप में मैं और वह आधा खाया ग्रनोला बार उसके
हाथ में ही मौजूद था।
संभवत: मेरी बात को ध्यान में रखते हुये प्रिंसिपल ने पहले तो
बिली की कड़ी ताड़ना की, फिर डेविड के कंधे पर हाथ रख कर कहा, "
डेविड, बिली ने तुम्हारे प्रति अन्याय किया है। तुम ही उसकी
सज़ा का विचार करो। उसके मां-बाप से शिकायत की जा सकती है, उसे
ससपेंड किया जा सकता है, अथवा तुम जितने चाहो उतने
’डिटेन्शन्स’ उसे दिलवा सकते हो। तुम्हारा ग्रनोला बार तो उसे
नया ला कर देना ही होगा, क्षमा भी उसे तुमसे माँगनी होगी पर
बाक़ी सज़ा तुम ही तय करो।"
उनकी बात सुन कर मुझे झुंझलाहट आई। यह तो नन्हें बच्चे के हाथ
में तलवार थमा देना हुआ। ये अधिकारी लोग बच्चों को क्या
समझेंगे! मेरे उनसे कहने का यह मतलब तो नहीं था कि डेविड को
ऐसा अबाध अधिकार दे दिया जाये। इधर प्रिंसिपल अपनी सूझ-बूझ पर
स्वयं कायल हो रहे थे, उधर मैं क्षुब्ध सी खड़ी थी। बेचारे बिली
का मुँह सूख सा गया था। संभवत: उसने अपनी वृद्धावस्था तक अपने
को कोने में खड़े रहने की कल्पना कर ली थी। हम तीनों ही डेविड
का मुँह ताक रहे थे।
डेविड के चेहरे पर उस समय जो भाव था उसे मैं आज तक नहीं भूल
पाई हूँ। इस अप्रत्याशित अधिकार से उसके गांभीर्य में कोई अंतर
नहीं आया। कुछ सोचने के बाद उसने गर्दन कुछ टेढ़ी की और बिली को
भवें कुंचित कर, सीधी, सतर दृष्टि से देखते हुये शांत, गंभीर
स्वर में कहा, " आइ विल अक्सेप्ट जस्ट अन अपोलोजी फ़्राम यू,
बिली" । प्रिंसिपल और मैं भौंचक्के से रह गये। बिली ने फ़ुर्ती
से डेविड से क्षमा प्रार्थना की व द्रुत गति से बाहर भागा।
डेविड भी मंथर गति से उसके पीछे चला गया। केवल प्रिंसिपल और
मैं एक दूसरे का मुँह ताकते खड़े रहे।
धीरे-धीरे वो साल बीत गया। डेविड अच्छे नंबरों से पास हुआ और
उसे सामन्य तीसरे दर्जे में प्रवेश मिल गया। साल के अंत तक
उसका व्यवहार काफ़ी सुधर गया था और उत्पात बहुत कम हो गया था।
सत्र के अंत में मुझे फिर एक बार आफ़िस में बुलाया गया। इस बार
प्रिंसिपल ने मेरे सामने एक नया प्रस्ताव रखा। " डेविड के
व्यवहार में इतनी उन्नति होने के कारण हम लोग यह चाहते हैं कि
अगले साल भी वो तुम्हारे साथ रहे। ऐसे बच्चों को यदि दो-तीन
साल स्थिर वातावरण मिल जाये तो उनका व्यवहार भी संतुलित हो
जाता है। तुम सोच कर देखो, यदि तुम्हें आपत्ति न होगी तो अगले
साल तीसरी कक्षा में तुम ही उसे पढ़ाओगी। "
डेविड अक्सर ही अगले साल के बारे में अपने ढंग से चिंता किया
करता था। शायद जीवन में पहली बार उसे स्थिरता का स्वाद मिला
था। घर लौटने पर मां मिले न मिले, कक्षा के दरवाज़े पर मैं उसे
अवश्य खड़ी मिलूँगी, इसका विश्वास उसे हो चला था। इस बार जब
उसने " आइ वन्डर नेक्सट इयर..." से अपना वाक्य शुरु किया तो
उसके कंधे पर हाथ रख कर मैंने उसे बताया कि अगर उसका काम व
व्यवहार इसी तरह सुधरते रहे तो अगले साल वह तीसरी कक्षा में
मेरे ही साथ रहेगा।
मेरी बात को सुन कर आई उसकी आँखों की चमक व मुख की मुस्कान को
याद करके मेरा मन डूबने लगता है। जीवन में किये को अनकिया और
कहे को अनकहा नहीं किया जा सकता। यदि ऐसा हो सकता तो सब से
पहले मैं अपने इस वाक्य को अनकहा करती।
हर क्षेत्र की तरह शिक्षा के क्षेत्र में भी राजनीति और
स्पर्धा चलती है। सत्र के अंत मे ये चीज़ें ज़ोर पकड़ती हैं
क्योंकि उसी समय नये साल के लिये महत्त्वपूर्ण निर्णय लिये जाते
हैं। तीसरी कक्षाओं की तीनों अध्यापिकायें उस समय मिल जुल कर
टीम-टीचिंग कर रहीं थीं। यह क्रम कई सालों से चल रहा था।
स्वाभाविक ही था कि उस व्यवस्था में व्यवधान आने की आशंका से
वे क्षुब्ध हुईं। संभवत: उससे भी बड़ा क्षोभ का कारण वह इंगित
था जिसके द्वारा उनकी कठिन बच्चों को संभालने की योग्यता पर
संदेह किया गया था। एक दिन तीनों ने आकर मुझसे अनुरोध किया कि
तीसरी कक्षा को पढ़ाने का अपना निर्णय मैं बदल दूँ। उनका
विश्वास था कि डेविड का व्यवहार इतना सुधर गया है कि तीसरी
कक्षा में उसे संभालना कठिन न होगा। "फिर हर साल बच्चों की
परिपक्वता में वृद्धि होती ही है, डेविड इस नियम का अपवाद तो
नहीं होगा", उन्होंने कहा। अपने ढंग से मैंने उन्हें समझाने की
कोशिश की- डेविड का सारा जीवन ही नियमों का अपवाद रहा है तो
उससे भिन्न होने की ही अपेक्षा होनी चाहिये, वह अभी भी सामान्य
नहीं हो सका है। किंतु सक्षेप में यह कि मैं उन्हें अपना
दृष्टिकोण नहीं समझा सकी। " इसीलिये हम लोग तुम से कह रहे हैं,
प्रिंसिपल तो सुनेंगे नहीं", उन्होंने उपालम्भ भरे स्वर में
कहा।
कुछ समय सोचने के बाद मैंने प्रिंसिपल को अपना निर्णय बता
दिया, " नई कक्षा पढ़ाने में बहुत तैयारी और मेहनत करनी होती
है। डेविड तो अब बहुत सुधर गया है। उसे यूँ ही तीसरी कक्षा में
जाने दीजिये। मैं दूसरी कक्षा ही पढ़ाउँगी। "
मेरी बात सुन कर वे क्षुब्ध और चकित हुये। बीस साल से मैं उनके
साथ काम कर रही थी। केवल मेहनत से बचने के लिये यह निर्णय लिया
जा रहा है, इस पर उन्हें स्वभावत: विश्वास नहीं हुआ। पर समझाने
की कुछ असफल कोशिशों के बाद उन्होंने मेरा निर्णय स्वीकार कर
लिया।
आज, इतने वर्षों के बाद भी अक्सर मुड़ कर मैं जीवन के उस छोटे
(?) से निर्णय को उलटती-पलटती हूँ। क्यों लिया मैंने उसे?
झगड़े-झंझट से दूर रहने की अपनी प्रवृत्ति के कारण? ’प्राइमरी
डिविशन’ में वैमनस्य की आशंका से? या मन में कहीं दबी-ढकी यह
भावना थी कि ये लोग भी तो देखें कि डेविड को संभालना इतना आसान
नहीं। कितनी मेहनत उसे सीधी राह पर लाने में लगी है, इसका कुछ
अनुमान इन लोगों को भी तो हो। क्या वह मेरे अहं की आँधी थी
जिसने अपने शोर में डेविड की कमज़ोर आवाज़ को दबा लिया था?
इस निर्णय को लेने के बाद मेरा मन बुझा-बुझा सा रहा। स्कूल के
अंतिम दिन डेविड को पास बुला कर बड़े प्यार से मैंने उसे उसकी
अगले साल की शिक्षिका का नाम बताया। विस्मित हो कर उसने अपनी
प्रखर दृष्टि मुझ पर केंद्रित कर, अपने गंभीर स्वर में " बट यू
प्रामिस्ड...." कहा। कितने ही तर्क मैंने उसे देने के लिये सोच
रखे थे, उसके उस अधूरे वाक्य ने उन्हें धुँधला कर दिया। उसने
तो अपनी ओर से समझौते की हर शर्त निभाई थी। मेरी ओर से दिया हर
कारण, हर तर्क उसके लिये बेमानी था। विदा कह कर वह धीरे-धीरे
वहाँ से चला गया।
सितंबर की चहल-पहल आरंभ हुई। तीसरी कक्षायें स्कूल के दूसरे
कोने में थीं अत: मुझे डेविड कम दिखा। धीरे-धीरे फिर उसका नाम
स्टाफ़रूम में सुनाई देने लगा। धीमी गति से वह फिर अपने पुराने
रूप में लौट रहा था। दो-तीन बार प्रिंसिपल उसे मेरे कमरे में
भी लाये। जल्दी से पास का डेस्क ख़ाली करके मैंने उसे बिठाया।
खोई-खोई उदासीन आँखों से वह चारों ओर देखता रहा। मैंने उससे
बात करने की भी कोशिश की पर बहुत जल्दी मुझे प्रतीत हो गया कि
स्नेह का वह तंत, जो मुझे उससे बाँधे था अब टूट गया है। अनजाने
में ही सही, मैंने अपने आप को उन वयस्कों के गिरोह में शामिल
कर लिया था जिन्होंने समय-समय पर उसे धोखा दिया था, उसके कोमल
मन पर चोट पर चोट पहुँचाई थी।
कुछ दिनों बाद डेविड को ’बिहेवियर माडिफ़िकेशन क्लास’ में भेज
दिया गया। वहाँ से वह वापस नहीं लौटा। वह कक्षा दूसरे स्कूल
में थी इसलिये उसका कोई समाचार भी नहीं मिला। आज वह कहाँ है,
कैसा है मुझे नहीं मालूम। डरती हूँ कि किसी दिन किसी अपराध के
सिलसिले में बनी नामसूची में मुझे उसका नाम पढ़ने को न मिल
जाये।
वह किसी का भी अपराधी क्यों न हो, आज यह स्वीकार करने में मुझे
कोई दुविधा नहीं कि उसकी विश्वास भावना को ठेस पहुँचा कर मैंने
उसके प्रति अक्षम्य अपराध किया है। इस मामले का निपटारा कौन
करेगा, मैं नहीं जानती। किन्तु यदि यह कल्पना सच है कि अपने
अपराधों का दंड हमें जीवनोपरांत भी मिलता है, तो मेरी ईश्वर से
यही प्रार्थना है कि मेरा न्यायाधीश डेविड ही बने मेरी सज़ा का
निर्णय वही ले। मुझे पूरा विश्वास है कि मेरे अपराध पर विचार
करते समय भवें कुंचित कर अपनी नीली आँखों की प्रखर दृष्टि को
मुझ पर केंद्रित कर वह यही कहेगा," आइ विल जस्ट अक्सेप्ट अन
अपालाजी फ़्राम यू, मिसेज़ कुमार"। |